Sunday, December 9, 2007

चुनावी रंग में कहां कुछ याद रहा हमें

ओम कबीर

गुजरात के चुनावी रंग पूरे देश में छिटक गए हैं। हर तरफ चरचा है। कुरसी की। ऊंट किस करवट बैठेगा। सब इसी में मशगूल हैं। इस बीच कुछ महत्वपूणॆ मुद्दों पर पेंट पुत गया है। चुनावी पेंट। नंदीग्राम और तसलीमा आउट आफ फोकस हो चुके हैं। बाजार का यही अथॆशास्त्र। हम बाजार युग में जी रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है। लेकिन मैं इस मुद्दे को उठा रहा हूं। न्याय करने की दृष्टि से। तसलीमा बड़ा मुद्दा था। नंदीग्राम से भी। तेजी से उभरा। जनआंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया। राजनीति उबलने लगी। लोग सिर के ऊपर आसमान उठाने लगे। शांत हुआ तो कहीं खो गया। इतना चुपके से। पता भी न चला। तसलीमा कहां हैं यह मीडिया के लिए भी आउट आफ कांटेक्स्ट की बात है। तसलीमा से झगड़ा लोगों का उनकी किताब की चंद पंक्तियों को लेकर था। तथाकथित ईश निंदा का। किताब की चंद पंक्तियों ने नंदीग्राम की अमानवीयता को मात दे दी। आंदोलन के स्तर पर। हजारों बेघर लोगों का मुद्दा चंद पंक्तियों से छोटा दिखने लगा। हत्या, लूट, बलात्कार से भी बड़ी थीं ये पंक्तियां। नंदीग्राम भी मुद्दा बना लेकिन जनआंदोलन नहीं। तसलीमा की तरह। सियासी मुद्दा भी बना। लेकिन लाभदायक नहीं रहा। नेताओं का भी मोहभंग हो गया। बहुत जल्द। जैसे तसलीमा चढ़ीं और उतरीं। क्या हम नंदीग्राम को तसलीमा की तरह ही बड़ा मुद्दा नहीं बना सकते थे। तसलीमा सियासी मुद्दा थी। नंदीग्राम राजनीतिक जंग। जंग में हर चीज जायज होती है। पर हर चीज जायज भी नहीं होती। नंदीग्राम को प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।

2 comments:

bhupendra said...

भईया नेता किसी भी मुद्दे को उठा सकते हैं। किसी को भी दबा। इसमें तो उन्हें महारत हासिल है। तस्लीमा के मुद्दे पर भी यहीं हुआ। नंदीग्राम को दबाने के लिए वामपंथियों के पास समय पर तस्लीमा का अच्छा मुद्दा आ गया।

Satyendra PS said...

अरे भाई, हमारे समाज को भूल जाने की आदत है। चुनावी वादे याद रहते हैं क्या? अच्छे नेता याद रहते हैं क्या.. गांधी के संघर्षों को किसने याद किया? अगर याद किया जाता है तो गालियां देने के लिए। यही तो समाज है भाई। समाचार चैनल भी इसी का फायदा उठाकर टीआरपी बढ़ाते हैं। इसमें नया क्या है?
आपको अगर याद है तो लोग आपको बैकवर्ड कहेंगे, छोटे से गांव का निवासी समझेंगे। क्योंकि वहीं के लोगों को याद रहता है। जैसे उन्हें याद है कि कल्याण जब मुख्यमंत्री थे तो अटल के कसीदे गढ़ते थे। बाहर हुए तो गालियां दी, फिर अंदर आए तो कसीदे। और गांव गिरांव की जनता कन्फ्यूज। उसने अपना जनादेश सुनाकर चित्त कर दिया।
तो सुधर जाएं अगर फारवर्ड बनना है, सुधारवादी बनना है। सेवेन स्टार की दारू और लंबा चौंड़ा भाषण। इसी में विकास है।