Tuesday, February 26, 2008

दूसरा बनकर स्वयं को जीना?

ओम कबीर
आमतौर पर मुझे कविताएं नहीं पसंद हैं। लेकिन कुछ कविताएं मेरी संवेदनाओं को छू जाती हैं। जिन्हें बार-बार पढ़ते हुए कुछ इस तरह महसूस होता है कि अपने बारे में कुछ सोच रहा हूं। कुछ इसी तरह की कविता है हंगेरियन कवि अदी की। ये पंक्तियां उनकी प्रसिद्ध कविता डिजायर्ड टू बी लव (प्यार किए जाने की चाह) से ली गई हैं।

कोई न मेरे पहले आता है न बाद में
कोई आत्मीय जन नहीं, कोई दोस्त नहीं
न दुख में, न सुख में
मुझ पर किसी का अधिकार नहीं
-किसी का... नहीं
नहीं, मैं किसी का नहीं हूं- किसी का नहीं हूं
मैं उसी तरह हूं जैसे सब आदमी होते हैं
---ध्रुवों की जैसी सफेदी
रहस्यमय, पराई, चौंधियाने वाली चमक
किसी दूरांत में पड़ी घास के गट्ठे की वसीयत - सरीखा
मैं दोस्तों में नहीं रह सकता--
मैं नहीं रह सकता दोस्तों के बगैर भी
आत्मीयजनों के बिना
यह इच्छा कितनी खुशी बांट जाती है कि
दूसरे मुझे देखेंगे
वे देखेंगे मुझे इस तरह दूसरों के सामने दिखना
इस तरह आत्मप्रताड़ना गीत और दान
दूसरा बनकर स्वयं को जीना
दूसरों के प्यार में स्वयं की प्रतिछवि देखना
उनके प्यार करने पर खुद को
प्यार किया जाता हुआ महसूसना
हां, कितनी खुशी बांट जाता है यह अहसास
कितना ले आता है लोगों को अपने पास

Sunday, February 24, 2008

गंगा, तू कहां रे


ओम कबीर


इतिहास में गंगा के बारे में उल्लेख है कि राजा भगीरथ ने अपने हजार पुरखों को पवित्र करने के लिए इसे धरती पर लाया था। लेकिन वही गंगा आज इसने लिए अभिशाप बन गई है। गंगा एक्सप्रेस वे इसके अनवरत प्रवाह के बीच अपनी जीवनचर्या बनाने वाले लोगों के लिए बला बन चुकी है। तो क्या बदलते समय के साथ गंगा भी बदल गई है। इसका जवाब शायद हां होगा। गंगा सचमुच बदल गई है। लोगों ने गंगा के साथ खिलवाड़ किया है। अब यह पतित पावनी नहीं रह गई। इसके किनारे बसे शहरों ने इसे मुंह चिढ़ाया है। गंगा कहां तक बर्दाश्त करती। सारी सीमाएं टूट गई थी। गंगा के दोहन के बाद लोगों को विकास की बात आई। तो फिर सामने थी वही गंगा। अपने में सिमटी। लोगों की निगाहों से बचते बचाते। कागजों पर खींच दी गईं रेखाएं। गंगा ने कुछ नहीं कहा। पर विकास की आशंका ने लोगों का जीवन प्रवाह रोक दिया। फिर उनके सामने कुछ नहीं बचा। जो बाकी था वह उनका असहाय जीवन है और आशंकाएं। तीसरा कोई है तो वह गंगा है। मगर लाचार। कुछ दिनों बाद इसके किनारों को चूमते हुए १५० की स्पीड से कारें प्रतिस्पर्धा करेंगी। इसकी लहरों के साथ। मगर लाखों का जीवन तबाह हो जाएगा। कल तक जिस घरों में लोग जीवन के सपने देखते थे उन्हीं घरों के ऊपर से कारें दौड़ेगी। रौंदते हुए। शायद उनके सपनों को। कुछ भी शेष नहीं बचेगा। जो कुछ बचेगा वह सिर्फ और सिर्फ गंगा होगी.

Saturday, February 23, 2008

अप्पू मुझसे रूठ गया


भूपेंद्र सिंह



मेरे बचपन का साथी पीछे छूट गया,
मेरा अप्पू मुझसे रूठ गया।
कभी उन झूलों पर बसती थी जिंदगी,
खिलखिलाता था बचपन,
लेकिन आज फैली है खामोशी,
छाया है नीरसपन,
मेरा अप्पू अपनी मौत नहीं है मरा,
बड़ों की ख्वाहिशों ने उसे मारा है,
लेकिन क्या करें
अब तो बस अप्पू की यादों का सहारा है।

अप्पू घर महज एक एम्युजमेंट पाकॆ नहीं था। बल्कि एक सपना था, उन बच्चों का जो इसके साथ बड़े हुए। इसके साथ जिए। इसके झूले पर झूलकर जिंदगी को जिया। ये उन बच्चों का भी सपना था, जो यहां झूलना चाहते थे। अपना बचपन जीता चाहते थे। लेकिन जैसा हमेशा से होता आया है। बड़ों के अरमानों के आगे बच्चों की ख्वाहिशों की बलि दी जाती रही है। वहीं यहां भी हुआ। कुछ वकीलों और जजों की लाइब्रेरी और बैठने की जगह के लिए बच्चों के बचपन का आशियाना उजाड़ दिया गया। निदा फाजली ने ठीक ही कहा है।

बच्चों के छोटे हाथों में चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।

वकील और जज भी चार किताबें पढ़कर ये भूल गए हैं, कि वो भी कभी बच्चे थे। बचपन में जब उनसे कोई उनका खिलौना छीनता होगा, तो वो भी रोते होंगे। अगर आज वो बच्चे होते, तब उन्हें पता चलता कि बचपन की क्या अहमियत होती है। खिलौनों के छीन लिए जाने पर कैसा लगता है। आज सब बड़े हो गए हैं, उन्हें खेलने के लिए खिलौनों और झूले नहीं चाहिए। उन्हें चाहिए ऐशो आराम। ये उनकी आज की जरूरतें थी। अगर आज उनसे उनका ये ऐशो आराम छीन लिया जाए, तो सभी किस तरह भड़केंगे। हम सभी जानते हैं।
मैं बचपन से दिल्ली में रहा हूं। अप्पू घर के झूलों में झूला हूं। इसलिए जानता हूं कि पुराने साथी का बिछड़ना कैसा लगता है। कोई आपके सामने ही आपके बचपन के आशियाने को उजाड़ दे, तो कैसा लगता है। मैं जानता हूं। सबकुछ देख रहा हूं, फिर भी कुछ नहीं करता। क्या करूं कानूनी दावपेंचों में उलझना नहीं चाहता। इसलिए खामोश हूं, क्योंकि चार किताबें पढ़कर मैं भी बड़ों जैसा हो गया हूं। आगे पीछे का सोचने लगा हूं। बड़ों जैसा हो गया हूं।

Friday, February 22, 2008

कोई कुछ भी कहे, हम हैं बड़े दिलवाले

ओम कबीर
मुंबई की तंग सड़कों पर राजनीति करने वाले मराठी मानुष बाल ठाकरे ने बड़े समय की चुप्पी तोड़ी है। उन्होंने लालू को चुनौती दी है कि वे तमिलनाडु में छठ मनाकर दिखाएं। ठाकरे ने भले ही यह व्यंग्य के लहजे में कहा हो लेकिन हमने उसे दिल खोलकर स्वीकार किया है। हमने तो कभी भी दिशाओं में भेदभाव नहीं किया है। हमारे दिल में दुनियां की संस्कृतियां समा सकती है। हमने तो भारत की सभी दिशाओं को हमेशा अपना ही समझा है जहां भी गए स्वच्छंद तरीके से अपनी पहचान को संजोकर जीवन जिया है। हम मुंबई में अपनी तरह से जीवन जी सकते हैं तो तमिलनाडु में क्यों नहीं छठ मना सकते। छठ को तो हम विदेशों में भी मना रहे हैं। फिर भारत के अंदर ही क्यों नहीं मना सकते हैं। रही बात तमिलनाडु की तो वह भारत का सबसे महत्वपूर्ण शहरों में से एक है। कम से कम वह दकियानूसी विवादों पर अपनी दिनचर्या तो तय नहीं करता। तमिलनाडु के लोग अपनी संस्कृतियों और अपनी धरोहर के प्रति काफी सजग रहने वाले लोग हैं। उनके विरोध में अपना एक तर्क होता है। वे केवल प्रतिस्पर्धा के चलते किसी का विरोध नहीं करते है। वे काफी भावुक लोग होते हैं। भावनाओं में जीने वाले लोग राजनीति के दांव पेंच से काफी दूर होते हैं। बिना ठोस आधार के वे किसी की बुराई तक नहीं करते। उनकी जीवनशैली काफी नियमपूर्ण होती है। नियमो को वे अपनी दिनचर्या में भी पालन करते हैं।फिर उनका कैसे छठ से विरोध हो सकता है। कल को भले ही ठाकरे का यह बयान राजनीतिक रूप ले ले और इस पर खेमे बंट जाएं। तब यदि कहीं से विरोध की आवाज भी सुनाई पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। विरोध अच्छी चीज होती है। हर चीज का विरोध होना चाहिए। इससे एक दिशा मिलती है। लेकिन उसका स्वरूप स्वस्थ होना चाहिए। तमिलनाडु बहक नहीं सकता। मुंबई की तरह। किसी की समझदारी को बहकाना आसान नहीं होगा। इसलिए कुछ लोग लोगों की बेवकूफियों को बहका रहे हैं। मुंबई के हालात कुछ इसी तरहे के नजर आते हैं।

Thursday, February 21, 2008

इतिहास के दोराहे पर नेपाल.........

नेपाल की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है और शांति के राह में बाधाएं खत्म नहीं हुई है। माओवादियों द्वारा युद्ध विराम की घोषणा और चुनाव में भाग लेने का फैसला ही सिर्फ शांति का गारंटीकार्ड नहीं है। आज नेपाल, इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से एक तरफ स्थिरता और विकास के तमाम रास्ते खुलते हैं तो दूसरी तरफ बर्बादी का अथाह समंदर है। दरअसल नेपाल, भारत और चीन की क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओँ का शिकार हो गया है। लेकिन ये इसकी असली बीमारी नहीं है। नेपाल जैसे देशों की कोई भी समस्या भारत से ही शुरु होती है और भारत में ही जाकर खत्म भी होती है।
नेपाल के इतिहास की थोड़ी सी पड़ताल करें तो असली समस्या तब शुरु हुई जब भारत की आजादी के कुछ ही समय बाद नेपाल में वर्तमान शाह राजवंश को भारत सरकार की मदद से पुनर्स्थापित किया गया-इससे पहले लगभग सौ सालों तक वास्तविक सत्ता राणा परिवार ने हथिया रखी थी। 1844 में महल हत्याकांड के बाद राणा जंगबहादुर ने सत्ता अपने हाथों में ले ली थीं और सन सत्तावन के भारतीय विद्रोह के समय अंग्रेजों के सबसे काबिल चमचों में उसका नाम सिंधिया और सिख रजवारों के साथ आता है। लेकिन भारत की आजादी के बाद भारत ने अपने देश में तो लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन नेपाल की ओर से आंखे मूंद ली। नेपाल में निरंकुश राजतंत्र को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया गया-एक ऐसे देश द्वारा जो खुद को लोकतंत्र का अगुआ मानता था। गौर कीजिए- भारत ने दक्षिण अफ्रिका और म्यांमार को लंवे अर्से तक इसी बिना पर वहिष्कृत किए रखा, लेकिन पड़ोस की घटनाएं भारत के लिए क्षम्य बन गई। और इस शुतुरमुर्गी रबैये का खमियाजा भारत को भुगतना ही था।
दरअसल भारत ने अपनी विग व्रदर बाली भूमिका का निर्वाह करते हुए नेपाल की छोटी-मोटी जरुरतों का तो ख्याल रखा, लेकिन अपनी सुरक्षा के नाम पर कई एकतरफा संधि भी किए जिसका नेपाल की जनता के एक छोटे से लेकिन प्रभावशाली तबके ने सदा विरोध किया। नेपाल में एक परजीवी एलीट का विकास होता रहा जिसकी फैंटेसी भारत के बड़े शहरों में बसने की होती थी और जिनके बच्चे आईआईटी में पढ़ने का ख्वाब देखते थे। और राजा इस तबके का नेता हुआ करता था। जनता को इस दर्जे तक अशिक्षित और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखा गया था कि राजा ही बिष्णु अबतार था शायद बिष्णु का ग्यारहवां अबतार। भारत का सत्ताधारी वर्ग सोंचता था कि एक कमजोर नेपाल और उसका कमजोर नेतृत्व बड़ी आसानी से काबू में रह सकता है। किसी लोकतांत्रिक नेता से बात करने की तुलना में तानाशाह या राजा टाइप के नेता से बात मनबाना बड़ी ताकतों के लिए हमेशा से आसान रहा है।
लेकिन एक ऐसे देश में, जो दुरुह घाटियों से भरा पड़ा हो और जिसके दोनों तरफ दो विशाल विकासशील और गतिशील देश हों, यह लगभग असंभव ही है कि ज्यादा दिन तक उस देश में युग-सत्य न पहुंचे। कायदे से भारत को पचास के दशक से ही नेपाल में एक स्वस्थ और गतिशील लोकतंत्र के प्रयास करना चाहिए था और ऐसा न करके भारत ने राजनीति की लगभग सारी जमीन ही किसी बैकल्पिक ताकत के खाली छोड़ दी और माओवादियों ने इसे सिर्फ दस सालों में भर दिया। लेकिन सवाल सिर्फ राजशाही के खात्मे और बैकल्पिक शासन व्यवस्था की नहीं है- नेपाल में कई अन्य विवाद भी हैं। नेपाल की आवादी में भारत से गये लोगों या भारतवंशियों की संख्या उसकी कुल आवादी का लगभग 48 प्रतिशत है औप पहाड़ी लोगों की जनसंख्यया 52 फीसदी है। जबकि प्रशासन में मधेशी 10 फीसदी भी नहीं है। नेपाल का राज परिवार मधेशी मूल का है और अपनी सत्ता बचाने के लिए उसने शताव्दियों से पहाड़ियो का तुष्टीकरण किया है। मधेशी अभी तक राजा को अपना मानते थे-पहाड़ी इसलिए शान्त थे क्योंकि सत्ता में उनका सीधा दखल था। आश्चर्य की बात तो यह है कि धुर कम्युनिस्ट माओवादियों के दल में भी मधेशी बहुत कम हैं। नेपाल के सभी दलों में पहाड़ियों का दबदबा है। तो ऐसे में चुनाव होता भी है तो मधेशियों के साथ कितना न्याय हो पाएगा? क्या उन्हे युगों तक फिर अपने अधिकारों के संघर्ष नहीं करना पड़ेगा?
यहीं वह बिन्दु है जहां राजा अपने को फिर से मजबूत पाता है और उसने अपने पत्ते चल भी दिए हैं। तराई में मधेशियों का अांदोलन शुरु हो गया हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाली सेना, भारत और अमरीका पहले से ही राजा के समर्थक हैं-कम से कम सांविधानिक राजतंत्र तक तो जरुर ही।अगर मधेशी आंदोलन जोर पकड़ता है जिसकी संभावना ज्यादा है( उनकी संख्या को देखते हुए) तो ये माओवादियों के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा और शोषितों व दलितों के बीच बहुत मेहनत से बनाया गया उनका आधार दो फाड़ हो जाएगा। दरअसल तब राजा नाम की संस्था ही वो विकल्प रह जाएगी जिस पर पहाड़ी और मधेशी दोनों ही भरोसा कर सकते हैं। और यहीं नेपाल नरेश की दिली इच्छा है और भारत -अमरीका की भी। भारत के हित में चीन को नेपाल की राजनीति से बाहर रखने का अभी यहीं एकमात्र उपाय है जिसपर अमल होना चाहिए, हलांकि भारत काफी देर से जागा है। चीन की विराट सैन्य और आर्थिक ताकत नेपाल में इतनी जल्दी शांति होने देगी, मानना मुश्किल है। लेकिन भारत अगर अभी भी नेपाल नरेश को काबू में रखकर दृढ़ता और इमानदारी से नेपाल में लोकतंत्र बहाल करवाए- तो बाजीं अभी भी अपने हाथ में है।

Friday, February 15, 2008

सपनों को चकनाचूर करती मुंबई

ओम कबीर

खबर आई कि मुंबई की घटना पर राज ने माफी मांग ली है। पूरा पढ़ा तो पता चला कि उन्होंने उत्तर भारतीयों के खिलाफ अपने रुख के लिए नहीं, मुंबई में हुई हिंसा में दो मराठी लोगों की मौत पर खेद व्यक्त किया था। वहीं उसके एक दिन पहले ही समाचारपत्रों में पटना स्टेशन की तस्वीरें छपी कि लोग मुंबई छोड़कर वापस लौट रहे हैं। जाहिर है दोनों समाचारों में कोई खुश होने वाली बात नहीं थी। सपनों की नगरी कही जाने वाली मुंबई सपनों को बेच रही है। जो लोग भी मुंबई से वापस आ रहे हैं उनके पास सपने नहीं है। मुंबई ने चकनाचूर कर दिया है। उसी मुंबई ने जो कभी सपने दिखाती थी। बिखरे हुए सच के साथ जीवन कठिन होता है। वापस तो लौटना ही था। मुंबई की घटना में राजनीति की बू है। किसी का निवाला छीनना तो मुंबई का चरित्र नहीं था। वो भी उत्तर के नाम पर। दिशाएं तो सिफॆ रास्ता बताती हैं, पर उसी ने आज सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। रोजी रोटी के। जरूर इसके पीछे भी कोई 'राज' है।

Sunday, February 3, 2008

आडवानी जी का सेक्युलारिस्म......

अभी हाल में ही समाचार आया था की आडवानी जी सेक्युलर है (उनके हिसाब से)...... उसका उदाहरण उनका जिन्ना साहब के मजार पर जाना .....क्या आडवानी जी ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रधानमंत्री बनने के लिए कर रहे है , प्रधानमंत्री बनने के लिए जिन लीडरों ने अपने पंजो को तेज कर लिए थे उनमें मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह और आडवानी तो शामिल थे ही बाद में नरेन्द्र मोदी का नाम भी उस फेहरिस्त में जुड़ गया था। प्रधानमंत्री के ओहदे के सबसे मजबूत उम्मीदवार आडवानी के लिए उस वक्त मुसीबत खड़ी हो गई थी जब उन्होंने पाकिस्तान के जिन्ना को एक सेक्युलर लीडर करार देते हुए उनकी तारीफ की थी। उसके बाद आडवानी को आरएसएस के दबाव में पार्टी की अध्यक्ष पद इस्तीफा देना पड़ा था। तब ऐसा लगा था कि आडवानी प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर हो चुके हैं....
हमें लगता है की भारतीय जनता पार्टी जो राम नाम का झंडा लिए फिरती है उसमे सेक्युलारिस्म कभी आ पायेगी ??????????