Wednesday, March 10, 2010

काहे का रिजर्वेशन !

देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?