Sunday, December 9, 2007

ज़माने से आगे ज़मानियां - द्वितीय अध्याय

- दिलीप

( मेरा गांव- मेरा देश श्रृंखला की ये तीसरी कड़ी है। ये महज संयोग है कि दिलीप और मैं एक ही जगह के रहने वाले हैं। लेकिन उनके अनुभव ज्यादा प्रामाणिक माने जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने नौकरी के जुगाड़ में जमानियां छोड़ने से पहले तक की जिंदगी इसी कस्बे में गुजारी है। उन्हें हिंदी में टाइपिंग नहीं आती है। लेकिन अपनी मिट्टी की दास्तान ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने ये लेख हिंदी में लिखा। उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, हम सभी समझ सकते हैं। टाइपिंग नहीं आने की वजह से कुछ शब्द सही नहीं छपे हैं, लेकिन इसमें सुधार नहीं किया जा रहा है ताकि आप वहां उनकी भावनाओं को समझ सकें। उम्मीद है और लोग भी अपने अनुभव बांटेंगे। - विवेक सत्य मित्रम् )


जमानियां कस्बे में अपने जीवन कीमती २० साल गुजरने के बाद मैं आज पहली बार अपनी ज़मीन पर लिखने चला हूँ, शायद देर आये दुरुस्त आये का भाव ही मुझे दिलासा दे सकता है। पर इसका अपराध बोध नही हैं मुझे, विवेक के लिखने के बाद मुझे लगा कि बिगुल बज चुका है, आवाज़ लगाने के लिए, जागने कि जिम्मेदारी हमने अवाम के मुक़द्दर पर छोड़ दी है। आज sirf सच बोलूँगा और सच के सिवा कुछ भी नही । अब बहुत हो गया गुलाबी पन्नी से देखते हुए काली दाग को कथ्थई कह देना और छुपा लेना अपने दोष, अब तो वक़्त है खुद उठ खड़ा होने का और उत्तर देने का ढेर सारे यक्ष प्रश्नों का। एमसीए करने से पहले तक मैं अपने गृह नगर में ही पढता था (कितना पढा वो मुझे ही मालूम है ...) सबसे अच्छी चीज़ मुझे यह लगती थी कि मैं अक्सर सुनता था कि कही दंगे हुए तो कही सांप्रदायिक फसाद हुए, पर मुझे कुछ भी अनुभव नही था कि ये सारी घटनाएं दरअसल होती क्या हैं, और मुझे इस बात का गर्व है कि हमारे कस्बे ने कभी हमे वो दिन नही दिखाए। पर तब मैं अपने को संकट में पता हूँ जब जब मुझे कोई पूछता है की माननीय श्री अंसारी जी आपके ही क्षेत्र से हैं न? काश के ये सवाल मेरे सामने कुछ इस तरह से आता की प्रथम पूर्ण मानव अवतार के रूप में चीरंजीवी भागवान परशुराम का जन्म आप ही की पावन भूमि यामादाग्नियाँ में हुआ था न? कुछ सूचना संप्रेषण का आभाव रहा है पर उससे ज्यादा यहाँ के लोगो में अपनी गौरवमयी थाती और भगवान् परशुराम का अ-भाव हावी रहा है . आज हमें राम तो याद आते हैं पर उनके सुपर सीनियर भगवान परशुराम कही नहीं दीखते हैं . कभी कभी मुझे डर भी लगता है की शायद राजनीति के सीपहसालार इस पावन प्रेरणादायी बिन्दु को भी अपना खिलौना बना कर कुर्सी-कुर्सी ना खेलने लगें. मेरा यह कथन आधारहीन नहीं हैं, सभी लोग जो इस पवित्र अभियान से जुडे रहे हैं, उन सबको पता है की कितनी क्रूरता से यहाँ कुछ लोगो ने अपने किसी अहम् की शांति के लिए यह कह दिया की ये तो किसी समुदाय या समूह विशेष के लाभ के लिए है. कहना ना होगा की जिस समुदाय या समूह की तरफ वो इशारा कर रहे थे वो कलियुग का सबसे उपेक्षित और वर्ण व्यवस्था के कारन सबसे अपमानित (?) शब्द "ब्राहमण" है. उन्हें समझाने का अथक प्रयास किया गया की भगवान् परशुराम सिर्फ धार्मिक आस्था की वजह से की नहीं अपितु राजनीतिक और आर्थिक कारणों से भी प्रासंगिक हैं, आज हर समाज में, हर देश में शास्त्र और श्स्र्ता के संतुलन की आवश्यकता है, कही पर शास्त्र हावी है तो कही पर शस्त्र का साम्राज्य है, इन दोनों के समन्वयकर्ता के रूप में रूप में भगवान् परशुराम अत्यंत ही प्रासंगिक हैं , पर सर्वविदित है की "भैंस के आगे..." . सत्य है की यमदग्नी क्षेत्र की धरती की उर्वरा शक्ति ने कई ऐसे सपूत पैदा किये हैं जिन्होंने हमें ढेर सारे गर्व के अवसर दिए हैं, पर धरती ने बहुत दिया अब हिसाब करें की हमने कितना दिया है, और अभी कितना देना है . वक़्त की मार ने कई कड़ियों को अलग कर दिया और जंजीर कमजोर पड़ गयी पर अब शायद ईश्वर ही की इच्छा ही जान पड़ती है की हम फिर से बिखरे हुए पारे की बूंदों की तरह फिर से जुड़ रहा हैं किसी निर्माण की दिशा में ... (बाकी अगले अध्याय में...)

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