Friday, November 30, 2007

Let's discuss it democratically...!

(Yesterday I posted a new article on this blog. Since its a new blog and we want to inform others about this, I specially askd Mr. Yashwant Singh to view the blog, and let us know his own view on the topics discussing over here. He has been moderating a community blog (http://www.bhadas.blogspot.com)for/ for so many months. its a high TRP blog, and more democratic than others. Mr.Yashwant has made a comment on my Post (which you can see in Comments section). But, here I am posting that article which is written on his own blog in its original form. whatever observations and questions are asked in this post. I will reply later, But before that I want to know, what others (you) think about these observations. We are thankful to Yashwant for diversifying this plateform. Plz have a look and express your views.) Cheers...
Vivek Satya Mitram

वामपंथ और मार्क्स को गरियाने के सुख से सुखी ये साथी??
विवेक सत्य मित्रम के अनुरोध पर मैंने उनके लिखे एक पोस्ट काल मार्क्स के नाम एक कामरेड का खत पर टिप्पणी की है। हालांकि वहां पहले से जितनी भी टिप्पणियां थीं वो सब मार्क्स और वामपंथ को गरियाने से मिले सुख से मुग्ध लोगों की थी। मुझे एक बार लगा, टिप्पणी करना चाहिए या नहीं। लेकिन लगा, अगर विवेक ने अनुरोध किया है तो जरूर करना चाहिए लेकिन बातें साफ-साफ कहूंगा, भले विवेक को बुरा लगे क्योंकि विवेक से मेरा संबंध भी भड़ासी सहजता और सरलता के चलते ही हुआ और हम दोनों चाहते हैं कि बातें जो कही, करी जाएं वो साफ-साफ हों, मुंहदेखी नहीं। तो मैंने वहां जो कमेंट किया है, उसे भड़ास पर भी डाल रहा हूं। मूल पोस्ट पढ़ने के लिए विवेक के बिलकुल नए ब्लाग आफ द रिकार्ड पर जाना होगा। इस ब्लाग के पैदा होने की भी पूरी एक कहानी है लेकिन उसे मैं आफ द रिकार्ड ही रखना चाहूंगा, जब तक कि खुद विवेक न बता दें। विवेक के गुस्से से उपजा ब्लाग है आफ द रिकार्ड। लेकिन मुझे डर यह है कि यह गुस्सा केवल वामपंथ के विरोध का अड्डा ही न बन जाए। मुझे लगता है कि इसका सृजनात्मक इस्तेमाल करना चाहिए। जैसा कि हम लोगों की बातें भी हुई हैं। भोजपुरी भाषा में एक ब्लाग होना चाहिए और वो कम्युनिटी ब्लाग हो जिसमें लोग सिर्फ भोजपुरी में लिखें। इससे शायद हम अपनी बानी और लोक संवेदना को बड़ा योगदान दे पाएंगे। वाम और दक्षिण पर बहस करने के लिए जनरलाइज एप्रोच नहीं होना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई के साथ फैक्ट्स आधारित बातें होनी चाहिए। सीपीएम की जो दिक्कत बंगाल में है दरअसल वह एक ट्रेंड है वामपंथ में। ऐसे ट्रेंड से खुद कार्ल मार्क्स भी लड़ते रहे हैं, लेनिन भी लड़ते रहे हैं। रूसी क्रांति के दस्तावेजों को पढ़िए तो पता चलेगा कि किस तरह दर्जनों कम्युनिस्ट पार्टियां थीं जो आपस में विचारधारात्कम रूप से बंटी हुई थी और वो बंटाव नकली नहीं था बल्कि ट्रेंड आधारित और विचार आधारित था। आखिर में लेनिन की बोल्शेविक धारा विजयी बनी जिसने सत्ता का पार्ट होने की बजाय खूनी क्रांति का रास्ता अपनाया। ये सारी बातें पढ़ने पर पता चलेंगी। रूसी क्रांति पर कई किताबें हैं जिसमें कम्युनिस्टों के आपसी मतभेदों का जिक्र है। मुझे भारत में भी कुछ वैसा ही लगता है लेकिन बाजी कौन मारेगा, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इतना सच है कि सीपीएम का मार्क्सवाद दरअसल क्रांतिकारी मार्क्सवाद है ही नहीं। बातें फिर होंगी, फिलहाल इतना ही....टिप्पणी पढ़िए और मूल पोस्ट पढ़िए....। समझ में आए तो इस कमेंट पर भी कमेंट करिये....जय भड़ास यशवंत

Thursday, November 29, 2007

Growing down...Progress without Grace!!!

The river of Love is,
In Droughts...

All sentiments, emotions,
Are Lost...wiped away from life...

We have lost,
Life's basics,ideologies forever...
We are dead in same way,
As she died - the River...

We kept on boasting about our Past...
And how we have grown up...
But the truth is- We have lost...
We dont have Love to Live Enough..

The Time has shown a new face...
All hope & faith seems to be flooded out...
Our dreams of a new world, in new era has lost its grace...
Society is sleeping with the dead body of our deeds in its couch...

कार्ल मार्क्स के नाम एक कामरेड का खत...

हे देव मार्क्स, लाल सलाम !
अच्छा हुआ कि आप आज इस दुनिया में नहीं हैं, वर्ना नंदीग्राम के बाद जिस तरह से अपने ही लोगों ने हमारे खिलाफ आवाज बुलंद की है, यकीन मानिए आपका सीना भी छलनी हो जाता। आखिर गलती किससे नहीं होती, हमसे भी हो गई। लेकिन इसके बाद हमारे विरोधियों ( इन्हें हम अक्सर गैर लोकतांत्रिक या सांप्रदायिक ताकत कहते हैं) का साथ हमारे ही अपने लोगों ने दिया। क्या इसी दिन के लिए हमने उन्हें वो मंच, प्लेटफार्म या सियासी सहूलियतें दीं, कि एक दिन वो हम पर ही भौंकना शुरु कर दें। Rizwan, नंदीग्राम और अब ये तसलीमा। कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं बचा जब इन लोगों ने हमारी किरकिरी नहीं की। Rizwan के मुद्दे पर तो हमारे अपने ही छात्र संगठन आइसा ने जेएनयू में हमारी भद्द पिट कर रख दी। बेचारे बुद्धदेव के मुंह पर ऐसी कालिख पोत दी जिसे छुड़ाने में शायद कई साल लग जाएं।
खैर, ये तमाम कलाकार, लेखक और संस्कृतिकर्मी भी क्या करते, हमें कभी कभी तो इनकी हालत पर ही तरस आता है। कभी समाज को अपने इशारों पर नचाने वाले ये लोग आज जनता के आगे मजबूर हैं। ये वही जनता है जिसे हम इतिहास और साहित्य जैसे क्षेत्रों में अपने प्रभाव क्षेत्र के जरिए सालों से बरगलाते आ रहे थे। लेकिन अचानक ये इतनी जागरुक हो जाएगी, और सही – गलत का फर्क करना सीख जाएगी, हमें क्या मालूम था? ये सब कुछ देखकर तो हमें भी लगता है कि ये साहित्यकार, कलाकार और संस्कृतिकर्मी करते भी तो क्या करते बिचारे। हर गली मुहल्ले में एक चैनल और हर टोले से एक अखबार निकलने लगा है। इन्हें तो अपनी इमेज की ही कमाई खानी है। अगर कहीं किसी चैनल या अखबार वाले ने इनकी निष्क्रियता को वामतुष्टीकरण का जामा पहना दिया तो ये लोग तो बैठे - बिठाए ही मारे जाते।
हमारा क्या है? अभी भी इस देश की जनता की याद्दाश्त उतनी अच्छी नहीं हो पाई है कि वो लंबे वक्त तक ये सब कुछ याद रख सके। वैसे भी हमने मध्यावधि चुनाव की आशंका तो खत्म कर ही दी है। बहुत दिनों बाद बिचारे कांग्रेसियों के हाथ सत्ता आई है, उन्हें खाने-कमाने का भरपूर मौका तो मिलना ही चाहिए। आखिर इसमें गलत क्या है, हम १९ वीं सदी में तो हैं नहीं। जो क्रांति की बात करके सत्ता हासिल कर सकें। पिछले ३० सालों से पश्चिम बंगाल में हम भी तो यही करते आ रहे हैं। लेकिन किसी ने हमारा क्या बिगाड़ लिया। इसलिए आप हमें लेकर परेशान मत होइएगा। डेढ़ साल का वक्त तो बहुत होता है। मैं आपसे शर्त लगा सकता हूं, इतने लंबे समय में तो मोदी, वसुंधरा राजे, शिवराज चौहान और तोगड़िया जैसे बीजेपी के समर्पित कार्यकर्ता हमें ऐसा कुछ न कुछ दे ही देंगे, जिसकी मातमपुर्सी करके हम इस मुद्दे से सबका ध्यान हटा देंगे।
अगर आपको रोज की खबरें मिल रही होंगी तो आप देख ही रहे होंगे किस तरह हमने तसलीमा का मुद्दा उठाकर नंदीग्राम को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। आप बेफिक्र रहिए, बीजेपी और आरएसएस वो लोग हैं जो जानते समझते हुए भी हमारा काम आसान कर जाते हैं। खैर, आप तस्लीमा नसरीन वाले मुद्दे पर भी हमसे नाराज होंगे, तो मैं आपको हकीकत बताना चाहूंगा कि हम दिल से नहीं चाहते थे कि उसे कोलकाता से जाने दें, लेकिन हम आखिर करते भी तो क्या? बेकार में हमारा मुसलमान वोट मारा जाता। लिहाजा हमें ये सब कुछ मजबूरी में करना पड़ा....। उम्मीद है, आप हमारी परेशानियों को शिद्दत से समझ रहे होंगे।
बहरहाल, आप बिल्कुल भी परेशान न होइए। सत्ता से तो हम जोंक की तरह चिपटे हुए हैं। आगे जो कुछ भी होगा, इतना तो तय है कि लेफ्ट पार्टियों का फिलहाल कोई बाल भी बांका नहीं कर पाएगा। हमें कई बार लगता है कि शायद हम आपकी विचारधारा को सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं पाए। पर आप इतना तो हमपे यकीन कर सकते हैं कि हम लेफ्ट को इस देश में खत्म नहीं होने देंगे। और जब तक यहां सांप्रदायिक ताकतों का अस्तित्व कायम है, हम किसी न किसी तरह से यहां मौजूद रहेंगे। फिलहाल, इस वायदे के साथ ये खत खत्म कर रहा हूं कि जल्द ही ये सब कुछ लोग भूल जाएंगे, और हम फिर से जनता का हितैषी होने का तमगा हासिल कर लेंगे। शेष सब कुशल है...!
आपका ही- एक कामरेड (नाम में क्या रखा है?)

Wednesday, November 28, 2007

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल...

( पीटीआई छोड़े करीब डेढ़ साल बीत गए हैं। लेकिन आज मेट्रो नाउ में एक खबर देखी तो खुद को रोक न सका। ये खबर पीटीआई के हवाले से छपी है। खबर को देखकर मैं नास्टेल्जिक हो गया। फिर क्या था, तर्जुमा करने बैठ गया। बहरहाल, एक सवाल ये भी बनता है कि आखिर इसी खबर का ट्रांसलेशन क्यों किया। इसका जवाब हमारे ब्लाग के नाम ऑफ द रिकॉर्ड में छिपा है। जी हां, ये पूरी की पूरी खबर ऑफ द रिकॉर्ड की गई बातचीत पर लिखी गई है। खबर के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं किया गया है। )

• विवेक सत्य मित्रम्

नई दिल्ली। कुछ दिनों पहले कांग्रेस में एक अजीब सी बहस गरमा गई थी। सवाल था, क्या कोई शराबी पार्टी में शामिल हो सकता है या नहीं? पार्टी की नई जेनरेशन के नेता कहते थे ‘हां’। लेकिन बड़े-बुजुर्गों का कहना था ‘कभी नहीं’। दरअसल कांग्रेस की नई पीढ़ी के नेताओं ने पार्टी की सदस्यता लेने के लिए शराब से तौबा करने की अनिवार्य शर्त पर सवाल उठाए थे। पार्टी के इन नेताओं का कहना था कि ज्यादातर लोग ऐसी शर्तों का पालन नहीं करते फिर इन्हें ऱखने का क्या फायदा। लेकिन पार्टी के तमाम दूसरे कद्दावर नेताओं का मानना था कि महात्मा गांधी की विरासत पर राज करने वाली पार्टी में ‘घोषित शराबियों’ की कोई जगह नहीं हो सकती। यंग जेनरेशन ने अपनी बात बेहद दमदार ढ़ंग से ऱखी। उनकी दलील थी कि समय के साथ चीजें बदलती हैं, ऐसे में मेंबरशिप क्राइटेरिया में भी बदलाव किया जाना चाहिए। उनकी मानें तो, “ आज के दौर में इंटरेक्शन के तौर तरीकों में भी काफी बदलाव आ चुका है, लिहाजा कभी कभार शराब पी लेने में हर्ज ही क्या है। वैसे भी आज के नेताओं को पहले की तुलना में ज्यादा बड़े और अलग-अलग किस्म के जनसमुदाय से जुड़ना होता है। ” इन तमाम नेताओं ने अपने विचार रखते हुए अपना नाम जाहिर नहीं करने की शर्त रखी थी। उन्हें डर था कि ऐसा होने पर पार्टी में उन्हें ‘पियक्कड़’ मान लिया जाएगा। इस तरह पार्टी में इस मुद्दे पर दो गुट बन गए। हर आदमी अपनी बात को ज्यादा दमदार ढ़ंग से कहने के बहाने खोज रहा था। देखते ही देखते मामला इतना गरमाया कि इसकी गूंज एआईसीसी की बैठक में भी सुनाई दी। कांग्रेस के युवा तुर्कों ने लगे हाथ इस बात पर भी सवाल उठाया कि आखिर कांग्रेस के साथ वफादारी साबित करने के लिए खादी पहनना कैसी मजबूरी है। लेकिन आखिरकार अनुभवी कांग्रेसियों के सामने उनकी एक न चली। फैसला सुनाया गया कि एक जमाने से चली आ रही परंपराओं में कोई बदलाव नहीं होगा। और ये फैसला आलाकमान का था जिसके बाद किसी if या but की गुंजाइश ही कहां बचती ?

some little some specific

congrates for this blog ! its a little step but its has far reach as angad had in ramayana-so i will call it step of angad.through it we may stay in touch informally. i got a chance to cover taslima nasrin which was quite revealing and learning experience. everyone is playing his own cards. actually no one wanted taslima to stay here in india, i m also not different from that mileux. poltician keep their barral on other's solder to shoot out their opponent. cpi's shoot out at nandigram on madam nasrin.

ये अच्छी वेबसाइट है

हेलो दोस्त
ये अच्छी वेबसाइट है । मुझे आज पता चला इसके बारे मैं .मैं अपने दोस्त सुशांत को सुक्रिया
अदा करना चाहता हूँ मुझे सूचना देने के लिए।

नए साथियों का स्वागत...

आफ द रिकार्ड से जुड़ने वाले नए साथियों का स्वागत। ये आपका अपना ब्लाग है। और ये बात सिर्फ कहने के लिए नहीं कही जा रही है। आप सभी से उम्मीद है कि आप इस ब्लाग के मकसद को पूरा करने में सहयोग करेंगे। और मकसद सिर्फ ये है कि एक ऐसा ब्लाग डेवलप करना जहां किसी को कोई भी बात कहने में संकोच न हो। ये आम आदमी का प्लेटफार्म है, इंटलेक्चुअल होना यहां की शर्त नहीं है। अगर आपके पास कहने को कुछ नहीं है, तो आप महज इतना भी लिखकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं। हमें आपकी बातों का इंतजार रहेगा....धन्यवाद।

Tuesday, November 27, 2007

तसलीमा के बहाने नंदीग्राम नरसंहार से ध्यान हटा है…

शायद ये बहुत दिनों के बाद हुआ है कि वामपंथी वैकफुट पर हैं। कोशिश ये हो रही है कि किसी तरह नंदीग्राम और तसलीमा के मामले को रफा-दफा करने में सफलता मिल जाए। बेचारे रिजवान को भी इसी बीच मरना था। लेकिन मामला है कि शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। दूसरे के घर पर पत्थर फेंकते-फेंकते अपना घर कब शीशे का बन गया लाल खेमा को पता ही नहीं चला। अब सबाल ये है कि तसलीमा का क्या होगा..नंदीग्राम तक तो ठीक था..रक्तपात तो वैसे भी क्रान्ति का शुभ संकेत है लेकिन ये तसलीमा तो आफत की पुरिया निकली। अपने पीछे 20-25 फीसदी मुसलमानों का वोट वर्वाद करने पर तुली है। इसे भगाना जरुरी था-भाड में जाए वामपंथी विचारधारा...पहले सरकार बचा लो बाद में विचारधारा बचाना। फेंको इसे उठाकर कहीं- कमसे कम राजस्थान जैसे राज्य में जहां वो मर-मुर भी जाए तो ठीकरा संघियों के सिर फोडने में मजा आए। य़ाद आता है-भंडारकर संस्थान और रानी अहिल्यावाई विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला। तब वाम आलोचना स्तुत्य लगी थी। वाम ने तो दिल चुरा लिया था। ळे बलैया..तसलीमा तो बडी वो निकली...वाम को ही नंगा ही कर दिया। एक मित्र ने कहा कि यार ठीक ही तो है ये औरत भारत में कर क्या रही है..मैने कहा कि यार एक मित्र देश की वुद्धिजीवी महिला है और उसे परेशान किया जा रहा है तो ये तो हमारा स्वाभाविक दायित्व है कि हम उसे संरक्षण दें। तो उस मित्र का जवाब था कि तो सारे बंग्लादेशियों को क्यों नहीं बसा लेते.....मैंने उसे कहा कि यार सवाल को उलट दो--अव ये वामदलों से पूछो कि जब उन्हे तमाम बंग्लादेशियों से कोई आपत्ति नहीं है तो इस महिला से क्या आपत्ति है...सवाल आपत्ति का नहीं है, सबाल ये है कि वामदल कब से वोटबैंक की राजनीति करने लगे..ये तो वाम सिद्धान्तो की सरासर पराजय है। क्या वाम सडक पर उपद्रव करने बाले मुट्ठी भर मुसलमानों से डर गया है..क्या उसे 25 फीसदी वोट की चिन्ता सताने लगी है..।अगर इसका मतलब ये नहीं है तो क्या है..। इसी मानसिकता के लोगों के कारण सलमान रश्दी को अपना वतन छोडकर बेगानों की तरह नहीं भटकना पडा था..यहां बात सिर्फ तसलीमा नामके बंग्लादेशी की नहीं है जो हमारे मुल्क में अशांति का सवव बन गयी है..बात छद्म-धर्मनिरपेक्षता और दोहरे मानसिकता की है।

दिल की बात......

नमस्कार बंधुओं,

यूं तो हमें लिखने की आदत नहीं, लेकिन विवेक भाई का लिंक हमें मिला तो सोचा कुछ संदेश छोड़ ही दूं.....ब्लॉग के होम पेज पर पढ़ा कि अपने विचार या दिल की बात यहां रख सकते हैं। कौन से दिल की बात, वो जो खुद मैं अपने आप से नहीं कह पाता या फिर वो जिनको कहने की हिम्मत लाखों लोगों में नहीं होती। आपने तो वो गाना सुना ही होगा, हर चेहरे के पीछे एक चेहरा छुपा लेते हैं लोग.........यारों दुनिया यूं ही चल रही है। कम से कम मेरे हिसाब से तो ऐसा ही है। तभी तो दिल की बात जुबां पर नहीं आती। हर शब्द बोलने से पहले हजार बार सोचते हैं लोग। इज्जत, सोहरत और स्टेटस के साथ अपने भविष्य की चिंता आप जोड़ते हैं आपके कथन के साथ। सोची हुई चीज कभी दिल की बात हो ही नहीं सकती, कैसा लगता है आपको ? दिल की बात तो अनायास या बिना रोक-टोक जुबां पर आनी चाहिए। आज के लिए बस इतना ही। RK का आपको सलाम...........गलतियों के लिए माफी चाहूंगा, लेकिन हां अगर आपकी प्रतिक्रिया मिली तो उसे प्रोत्साहन मानने की हिमाकत जरूर करूंगा। धन्यवाद।

Monday, November 26, 2007

congrats....!

आपका ब्लॉग बहुत अलग है। आजकल अलग-अलग पंथों में जिस तरह लोग बंट गए हैं और गंभीर मुद्दों पर भी सार्थक बहस से बचते हैं, ऐसे में संवेदनशील लोगों के लिए अपने दिल की बात कहना कहीं ज्य़ादा मुश्किल हो गया है। आपका ब्लॉग न सिर्फ अलग थलग पड़ चुके लोगों को आवाज़ देगा बल्कि हम सभी की ज़िन्दगी से जुड़े खट्टे मीठे अनुभवों को बांटने का माध्यम बनेगा।
मेरी तरफ़ से बहुत-बहुत शुभकामनाएं

Sunday, November 25, 2007

कार्टून्स डोंट लाइ..(इस ब्लाग पर पहला पोस्ट)

देश के राजनीतिक हालात पर मिड डे का नजरिया...

















पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सियासी मिजाज का जायजा डॉन में छपे कुछ कार्टूनों के जरिए


































खुद को सबसे डेमोक्रेटिक मुल्क बताने वाले अमेरिका की हकीकत न्यूयार्क टाइम्स की नजर से...