हर बार उसे देखकर
एक नई तस्वीर बन जाती है
हर बार उसकी आवाज में
एक नई धुन खनकती है
हर बार उसकी खुशबुओं की बारिश में भीगना
आग लगा जाता है
हर बार उसे जाते हुए देखना
लगता है जैसे इतिहास दोहरा रहा हो खुद को
मेरा भूगोल और केमिस्ट्री बदलने के लिए
मेरे सितारों का गणित हल करने के लिए
मेरे मनोविज्ञान के अनसुलझे रहस्यों से
पर्दा उठाने के लिए
और सबसे बढ़कर
मेरे पूरे अस्तित्व को कई बार
झिंझोड़ने के लिए ।
3 comments:
कोई ज़रूरी भी नहीं. कविता ही गज़ब है
बधाई
bahut khub ..
प्रभावित करती रचना ...बिना शीर्षक की रचना....
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