Sunday, February 20, 2011

शीर्षक नहीं सूझ रहा

हर बार उसे देखकर
एक नई तस्वीर बन जाती है
हर बार उसकी आवाज में
एक नई धुन खनकती है
हर बार उसकी खुशबुओं की बारिश में भीगना
आग लगा जाता है
हर बार उसे जाते हुए देखना
लगता है जैसे इतिहास दोहरा रहा हो खुद को
मेरा भूगोल और केमिस्ट्री बदलने के लिए
मेरे सितारों का गणित हल करने के लिए
मेरे मनोविज्ञान के अनसुलझे रहस्यों से
पर्दा उठाने के लिए
और सबसे बढ़कर
मेरे पूरे अस्तित्व को कई बार
झिंझोड़ने के लिए ।

3 comments:

Girish Billore Mukul said...

कोई ज़रूरी भी नहीं. कविता ही गज़ब है
बधाई

दर्शन कौर धनोय said...

bahut khub ..

विभूति" said...

प्रभावित करती रचना ...बिना शीर्षक की रचना....