Friday, May 30, 2008

ज़हीनों की महफ़िल

कुमार शैलेन्द्र

सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।

ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।

ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

Thursday, May 29, 2008

आ जा भिड़ जा


गौर से देखिए इस कार को ये फंसी हुई है रेल की पटरी पर...और उस ओर से आ रही है ट्रेन तेज रफ्तार से...और ये कार नहीं निकल रही है। क्या होगा इसका? गौर से देखिए, जरा नजदीक से देखिए, आइए एक बार फिर देखिए....ये नजारा है आजकल न्यूज चैनलों पर चलने वाले प्रोग्राम का...अरे भई ऐसे में कार के परखच्चे उड़ जाएंगे...कार में अगर कोई है तो उसकी जान चली जाएगी..और क्या होगा. इसको सरेआम सबको दिखाने का क्या मतलब! सबको डराना चाहते हैं या किसी की जान जा रही है और आप उस पर मसाले लगाकर तड़के के साथ मजा ले रहे हैं और दर्शकों को भी मजा लेने को कह रहे हैं। कहां हुई ये घटना,कब हुई,क्यों हुई....इन सब सवालों के जवाब नदारद। बस, कहीं से हेलीकाप्टर के टकराकर क्रैश होने की वीडियो दिखाने लगे तो कहीं किसी कलाबाज के उड़ने को बार-बार दिखाने लगे...और बार-बार ये कह के कि अब देखिए आदमी भी चि़ड़िया की तरह उड़ रहा है, जरा दूर से देखिए, जरा पास से देखिए...आपको लग रहा होगा कि कैसे उड़ रहा है, अबे, सभी दर्शकों को बेवकूफ समझ रखा है क्या! इतनी भी अक्ल नहीं कि पीठ पे बंधा बड़ा-सा झोला दिखे, हांय!...और तब तो हद ही लग रही है जब कुत्ते, बिल्ली, बाघ, बंदर पर भी अपनी मीडियागिरी दिखाने लगे, बाघ की आवाज भी निकलने लगी, बंदर की आवाज भी...वाह क्या कला है, वाह, भई कमाल है...अरे कमबख्तों ऐसा नहीं कि दुनिया में कोई खबर नहीं बची जिसमें दर्शकों की रुचि जग सके। वास्तव में खबर दिखाओगे तो पब्लिक उसे सीरियसली देखेगी और सराहेगी कि आज मीडिया ही बची है जिससे कुछ आस है....इन सबके बीच एक चैनल पर ये भी तो दिखाया जा रहा है कि कैसे एक आदमी पिछले 18 सालों से लगातार इंसाफ की चौखट पर एड़ियां रगड़ रहा है, और बदले में उसे कंगाली के अलावा कुछ नसीब नहीं हो रही. बेचारा कोलकाता से भीख मांग-मांग कर किसी तरह दिल्ली आता है, तारीख पे तारीख...तारीख पे तारीख बढ़ती जाती है और इसी तरह उसकी बेचैनी भी बढ़ती जाती है,उसकी घुटन बढ़ती जाती है...पब्लिक की उस बेचैनी को महसूस करो शर्म के सौदागरों...!

Wednesday, May 28, 2008

ब्लॉ-ब्लॉ ब्लॉग

ब्लॉ, ब्लॉ-ब्लॉ, ब्लॉ-ब्लॉ, ब्लॉ-ब्लॉ,ब्लॉ...ये तरजुमा है उस विज्ञापन का जिसमें बाकी न्यूज चैनलों की छीछालेदर करके खुद को अच्छा बताया जाता है। पिछले कई दिनों तक जो ब्लॉगवार चला उसमें भी मुझे ऐसा ही कुछ दिखाई देता है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के बहाने तो हर वक्त चलते रहते हैं। किसी को बढ़ती टीआरपी से चिढ़ है तो किसी को बढ़ती बौद्धिकता से...आरोपों की हकीकत चाहे जो हो हर बार शिकार होते हैं आम लोग। बड़े नेताओं पर आरोप जितना हो-हल्ला करके लगते हैं उससे कई गुना ज्यादा शांति से सुलट जाते हैं, बस मारी जाती है बेचारी भोली-भाली जनता। जनता टक-टकी लगाए देखती रहती है, कि अब क्या होगा, अब क्या होगा। सुबह-सुबह फारिग होने से ज्यादा अखबार आया कि नहीं इसी की चिंता ज्यादा रहती है। लेकिन मामला धीरे-धीरे ठंडा पड़ता जाता है और एक दिन पता चलता है, अरे फलनवां तो बाइज्जत बरी हो गया हो..नहीं पता क्या!...वही हाल हमारा है..जिन लोगों ने आज तक एक शब्द भी नहीं ब्लॉग पर वो भी पूछते फिर रहे हैं, अरे क्या हुआ भई, फलनवां का? सही में ऐसा कुछ हुआ क्या? और ब्लॉग एग्रीगेटर खोलिए तो वहां भी वही सब परसों रात के बचे चिकन की तरह कुलबुला रहे हैं। मेरा तो मन भन्ना गया है। इसीलिए कई सारे ऐसे ब्लॉग पर गया जहां कुछ शांति मिल सके.खैर,मन में तो मेरे भी है कि आगे क्या होगा?

Monday, May 26, 2008

आज तो टॉपिक रेडीमेड है...

- सुशांत झा

भाई लोगों में इस बात पर मतभिन्नता है कि ब्लाग पर किसी के चरित्र के बारे में लिखा जाए या नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि ये किसी की निजता का हनन है और जबतक उसे दोषी न ठहरा दिया जाए..आप कैसे लिख सकते है। दूसरी थ्योरी है कि भई..ब्लाग है..तो इसका मतलब ही है अभिव्यक्ति की आजादी..अगर इसपर भी सोच विचार कर लिखा जाएगा तो अघोषित संपादकीयत्व के तले जीने के बराबर है। तीसरी थ्योरी है कि चुंकि अब ये पब्लिक प्लेटफार्म बन गया है तो किसी के इज्जत के बारे में तो सोच कर लिखो। मेरा तो दिमाग चकरा गया है कि सच क्या है..हलांकि पहली दफा एफआईआर की कापी देखकर मन में शंका जरुर होती है। कुल मिलाकर मन में एक कोफ्त जरुर होती है कि इतने बडे ब्लागर हैं..जिनका नाम शायद हिंदी ब्लाग जगत के इतिहास में स्णर्णाक्षरों में दर्ज होने वाला था...उनके उपर ऐसा इल्जाम है..और ऐसी भाषा..की कल्पना तो कम से कम किसी ब्लागर ने नहीं की थी।एक मित्र बता रहे थे कि अभी हिंदी ब्लागिंग बहुत ही बच्चा है और उसमें कंटेट के स्तर पर वो परिपक्वता नहीं आ पाई है.(कुछ लोगों ने इस परिपक्वता शव्द का ही मजाक उड़ाया है और ब्लाग को जैसा है वैसा ही रहने देने की बात कही है).और ज्यादातर जो भी लिखा जा रहा है वो..या तो अपनी महानता का बखान है..या परनिंदा। जिस तरह टेलिविजन न्यूज अभी नाग-नागिन से खली युग में आया है वाया शनि ग्रह...उसी तरह हिंदी ब्लाग में कुछ खास इंफार्मेटिव नहीं है। अभी..एक किस्म की अराजकता है..जो अक्सर अपिरिपक्व किस्म के लोगों के हाथ में अधिकार दे दिए जाने के बाद देखने को मिलता है।इसमें अभी कोर्स करेक्सन होना बाकी है..बहरहाल..अभ तो ऐसा लग रहा है कि कठपिंगल टाईप लोग ज्यादा आ गए हैं..जिनका कोई गंभीर सरोकार नहीं है।

Saturday, May 24, 2008

आरुषि..! अच्छा हुआ हम नहीं मिले

- विवेक सत्य मित्रम्

अच्छा हुआ-
हम कभी किसी चौराहे,
किसी गली या फिर-
किसी नुक्कड़ पर नहीं टकराए-
अच्छा हुआ-
तुम उन तमाम लड़कियों में-
कभी शऱीक नहीं थी-
जो गाहे बगाहे-
मेरे ख्वाबों का हिस्सा बनीं-
अच्छा हुआ-
हमारी जिंदगी के सभी रास्ते-
अलग-अलग रहे-
कभी साझा नहीं हुए-
अच्छा हुआ-
कोई ऐसी लड़की नहीं गुजरी-
मेरी नजरों से-
जिसके चेहरे से मिलता हो-
तुम्हारा चेहरा-
वरना-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
तु्म्हारी खूबसूरत तस्वीर पर-
वो हर्फ उकेरना-
जिनसे टपक रहा हो खून-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
खड़े करना सवाल-
तु्म्हारे चरित्र पर-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
हाथ पर हाथ रखे...
देखना वो तमाशा-
जिसमें शामिल रहा मैं भी-
शुरु से आखिर तक-
बना रहा हिस्सा-
भेड़ियों के भीड़तंत्र का।
आरुषि...!
अच्छा हुआ हम कभी नहीं मिले।

एक बचपन ये भी...


उसका बचपन

अपने फटेहाल हाथों से
अधपके मन के बर्तन पर
उकेरता है वह
ग्राहकों-मालिकों की गालियों से
दुनियादारी के अक्षर,
उसने ककहरा नहीं सीखा
मगर सीख गया है बहुत कुछ-
मस्का लगाना, तफरी करना,
मां-बहन की गंदी गालियां...
और सबसे बढ़कर
नंबर दो का पैसा बनाना,
अखबारों के 'रंगीन चित्र'
ताजातरीन फिल्मों की तारिकाओं के
नख-शिख वर्णन होते हैं अक्सर उसकी चर्चाओं में,
प्लेटों-चम्मचों-गिलासों से ही
करता है वह सृजनशीलता की अभिव्यिक्त,
बचपन के बचपने को भूलकर वह
बर्तनों की खरखराहट में भी ढूंढता है
मां की लोरियां और
घिसता जाता है यूं ही अपने बचपने को।

नौकर

1. नौकर


वह रोज चुपचाप आता है,
साफ करता है जूठे बर्तन और घर,
भरता है पानी और सुबह सुबह हमारा पेट।

हमारी गालियों घुड़कियों को सह लेता है,
पचपन की उम्र में भी अपने पीठदर्द की ही तरह।

ककहरा तक नहीं जानता,
शायद इसीलिए बाप दादा की उम्र का होकर भी,
हमें अपना माई-बाप समझता है....


(यह कविता मैंने उन दिनों लिखी थी जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए सेकंड ईयर का छात्र हुआ करता था। कविता साहित्य अमृत-अंक 2004, दीवार और समवेत पत्रिकाओं में छपी थी। यही नहीं पहली बार कुछ जानकारों ने तारीफ भी की, बहुत अच्छा लगा था उस वक्त..)

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-2

- कुमार शैलेन्द्र

दिल छलनी, मन बैठता, घायल जब अहसास,
तब कुछ कर दिखलाएगी, निकली हुई भड़ास।

भारत साठों साल से तीन टांग पर हुंह,
चौथा खंभा लोक को लगे चिढ़ाता मुंह।

महंगाई की आग में घी, डीजल-पेट्रोल,
मुंह मिट्ठू सरकार की खुल जायेगी पोल।

थपकी अपनी पीठ पर, कानों में दे तेल,
राजनीति की कुर्सियां, करें घिनौना खेल।

चिन्दी चिन्दी हो रहा गांव, गरीब, गंवार,
पांच साल उपलब्धि के, गिना रही सरकार।

गांधीजी के बंदरों, मत कर भ्रष्ट मिजाज,
कसमों-सपनों की जरा, कुछ तो रख लो लाज।

पैसा जब से हो गया, इस युग का भगवान,
स्वर्ग नर्क सा हो गया, मनुज बना हैवान।

ऊंचे-ऊंचे हो रहे शहर अमीर-अमीर,
गांव-गरीबी द्रौपदी, झोपड़ियां है चीर।

लेने में आता मजा, मुट्ठी में कानून,
हिंसक कुत्ते चाटते, भारत मां का खून।

सत्ता सुख में तैरना, सच या बड़ा कमाल,
खोल पाता आंख भी, मुंह खोले घड़ियाल।

Wednesday, May 21, 2008

बाबूजी की कविताओं का ब्लॉग...

बाबूजी की एक किताब बहुत जल्द प्रकाशित होकर आ रही है। इस किताब की तमाम कविताओं को इंटरनेट पर पहुंचाने के लिए एक नया ब्लाग बनाया है। एक एक कर के बाबूजी की कविताएं इस पर उपलब्ध होंगी। ब्लाग का यूआरएल है www.krshailendra.blogspot.com तकरीबन दो दशकों से लिखी जा रही कविताओं में से चुनिंदा कविताएं पहले संग्रह में होंगी... इस संग्रह की कविताएं देखा जाए तो गीत की विधा में हैं... जो अब कम ही देखने को मिलती हैं।
- विवेक सत्य मित्रम्

Saturday, May 17, 2008

एक सेकुलर स्टेट में......

ताज महल, प्रेम का अद्भुत स्तंभसारी दुनिया यही जानती और मानती है,लेकिन यह केवल प्यार का स्तंभ नहीं है,यह गवाह है असुरक्छा का,यह गवाह है एक मुसलमान के प्रेम का,जिसने भारत में प्रेम किया,यहाँ प्रेम वर्जना की वस्तु है,शायद इसीलिए शाहजहाँ ने,अपने प्रेम को दीर्घकालिक बनाने के लिए ताज का निर्माण कराया,अजीब बात है मैं यह सब क्यों कह रहा हू,जबकि सारी दुनिया जानती है।लेकिन दुर्भाग्य इस प्रेम के प्रतीक का,कोई प्रेमी नहीं खाता कसम ताज कीक्यों खाते है प्रेमी कसमे लैला और मजनू कीहीर और रांझा की ?यह महज विडम्बना नहीं है,यह है एक राष्ट्र की मानसिकता,हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता,पुरुष प्रधानता की मानसिकता,अकबर महान ने प्रेम किया जोधा बाई से,लेकिन नहीं बनवाया कोई ताज महल,शुरू किया दीने इलाही,जहाँ पर लोग स्वतंत्र हो अपनी स्वतंत्रता व पसंद के साथ,क्यों रह गयी यह कहानी अधूरी?क्यों आज भी प्रेम वर्जना की वस्तु है,एक सेकुलर स्टेट में?

Thursday, May 15, 2008

कब थमेगी सियासत बेजुबान लाशों पर ?

- विवेक सत्य मित्रम्
मंगलवार की काली शाम ने गुलाबी नगरी की फिजां को लाल कर दिया। दहशत और खौफ की जो दास्तान लिखी गई.. उसकी जवाबदेही लेने को कोई तैयार नही है। वसुंधरा राजे से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक.. हर कोई ताक में है सियासी माइलेज लेने के... और तैयारी की जा रही है सरकार को चारों खाने चित्त करने की...। दूसरी ओर हमेशा की तरह यूपीए सरकार के पास कहने को ज्यादा कुछ भी नहीं है। उसे हर वक्त यही चिंता खाए जाती है कि कहीं किसी मुद्दे का फायदा बीजेपी ना उठा ले जाए...। लिहाजा मरने वालों और जख्मी लोगों के प्रति अपनी संवेदना जताने में वो भी पीछे नहीं रहना चाहती। जहां तक बात है आंतरिक सुरक्षा के मामले पर बुरी तरह फेल होने की तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल के पास वही रटा रटाया जवाब मौजूद है। अगर आप तमाम आतंकवादी हमलों के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया पर नजर डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि मिस्टर पाटिल के अल्फाज भी नहीं बदलते...। उसी घिसे पिटे अंदाज में पूरी बेशर्मी के साथ वो बोल पड़ते हैं...खुफिया एजेंसियां अपना काम कर रही हैं.. बहुत जल्द पता चल जाएगा.. इन वारदातों को किसने अंजाम दिया.. और आलम ये है कि महीनों बीतने के बाद भी तमाम वारदातों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई.. आम आदमी तो भूल ही गया...सरकार भी भूल गई.. यूपीए सरकार ने सत्ता में आते ही पोटा खत्म कर दिया.. कहा गया पोटा का तमाम मौकों पर बेजा इस्तेमाल हुआ है.. चलिए मान लेते हैं कि पोटा कानून खत्म करने में कोई हर्ज नहीं है.. लेकिन प्रभु गृह मंत्रालय जैसा महकमा संभालने के बाद बनने वाली जवाबदेही किसकी है.. आम आदमी के वोट से सुरक्षित किलों में बैठकर मलाई काटने वाले तमाम सियासतदान तो हमेशा महफूज रहते हैं... उन्हें कोई आतंकवादी संगठन निशाना क्यों नहीं बना पाता.. जाहिर है.. सामान्य हालात में भी ये महानुभाव वाई.. जेड..और जेड प्लस जैसी श्रेणियों की सुरक्षा व्यवस्था में रहते हैं.. लेकिन जब बात आती है आम आदमी की हिफाजत की तो मुल्क के भूगोल और आतंकवादियों के दुस्साहस का हवाला देकर... खानापूर्ति करने में इन्हें थोड़ी भी देर नहीं लगती... शर्म आती है हमे इस देश पर... जहां के सियासतदान लाशों पर सियासत करने से भी बाज नहीं आते... और सरकारें जिम्मेदारी लेने के बजाए... अपनी कुरस्ी बचाने में लगी रहती हैं... वाह रे ... भारत देश.. और वाह रे भाग्य विधाता नेता.....

Saturday, May 10, 2008

भई ! रात है ...

हैलो क्या हाल चाल है ?

क्योंकि -

रात अच्छी नहीं बीती

सपने थे पर डरावने

कुछ बता देने की चाह रखने वाले

काले ;

चमगादड़ों को हाँक देने वाली

हवा

सनसनाती रही

झुलसती रही उलझती सी

सायरन बजाती चल निकली

नक़ली ;

चुभन बाक़ी है अभी तलवे में

गिट्टी की

अजीब सी रगड़ की आवाज़ के साथ

जमा हुआ ख़ून है ;

हुँह !

ख़ून है !

!!! सोये नहीं ?

Sunday, May 4, 2008

यूं ही...पर

बिन पासपोर्ट
गया था चांद पर
जागा रात भर
ठंड बहुत थी
पर मजा आया
पासपोर्ट के बगैर
हहा ! सोचो
- कृष्ण

Thursday, May 1, 2008

महफूज नही है महिलाएं दिल्ली में




हमारे पुराणों धार्मिक ग्रंथो मी यू तो महिलाओ की स्थिति देवी के समान दर्शया गया है , लेकिन हमेशा से ही उनको अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता रहा है , चाहे वो सीता के रूप मे हो या फ़िर आज की गुडिया ...

दिल्ली मे महिलाओ की स्थिति की चर्चा करे तो राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली जैसे आधुनिक शहर मे महिलाओ के खिलाप अपराध मे सबसे ज्यादा बढोत्तरी हुई है । कभी तंत्र - मंत्र के नाम पर की हत्या कर दी जाती है तो कही पड़ोसी द्वारा बलात्कार यह पीडा किसी भी रूप मे हो सकती है ।

दिल्ली मे अभी हाल ही मे एक सर्वे के अनुसार बलात्कार के ५३३ मामले और छेड़ छाड़ के ६२९ मामले दर्ज किए गए है । यह आकडे एनी बड़े शहरो की तुलना मे काफी अधिक है । ऐसे मामलो मे निरंतर ब्रिधि का सबसे बड़ा कारण है दोषी के ऊपर न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न होना ।

यू तो हर तरह के अपराध से निपटने के लिय कानून है पर यह सब अपराध के आगे फिसड्डी नजर आते है , राष्ट्रीय महिला आयोग की माने तो बलात्कार छेड़ छाड़ एवं अगवा जैसे मामलो मे आरोप सिद्ध न होना एक चिंता का विषय है । देश भर मे २००६-०७ मे ३७ हजार मामले सामने आए है जिनमे दोष सिद्धि का प्रतिशत ३० से भी कम था , और एक बात बलात्कार के मामले मे तो यह आकडा २७ % से अधिक नही बढ़ पाया ।

समाज मे बलात्कार पिडिता एक दर्द लिए हर दिन मरती रहती है , ऐसे मे इन पिदितो के लिए कुछ प्रावधान होने चाहिए ताकि वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके । ज्यादातर मामलो मे पिडिता बदनामी के डर से पुलिस मे मामला दर्ज ही नही कराती है ।