Tuesday, December 11, 2007

घर भी छूटे और घाट भी !

- अनिल दुबे

मोहल्ले में जाति के उपर चल रही बहस के बीच में मैने भी कुछ कहा था एक पत्र के माध्यम से. इसके बाद दिलीप भाई ने उस पत्र क जवाब भी दिया.उस पर मुझे कुछ कहना था. मैं उसी बात को आपके सामने रख रहा हूं जो मैं वहां कहना चाहता था.



बात उस समय कि है जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फ़र्स्ट इयर का स्टुडेंट था. सब कुछ नया था मेरे लिये.नये लोग, नयी बातें और वहां के छात्र राजनीति को करीब से देखना.सब कुछ नया था. एक गांव से निकल कर आया था मैं. घर में राजनीति की बातें होती रहती थी इसलिये नेताओं के नाम और उनके कामों के बारे में सुन रखा था. इसलिये राजनीतिक बातों में रुची थी.लिहाज़ा मैंने यह निर्णय लिया था कि हर जलसों में जाउंगा.वहां उनके नेताओं को सुनुंगा.

दो तीन माह हुए थे वहां गये हुए.पता चला कि सीताराम येचुरी आने वाले हैं. मैं भी वहां गया.खुब बातें हुई. जाति,धर्म,वर्ग और समाज से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी जम कर बहस हुई. सच में पहली बार मैंने एक ऐसे वक्ता को सुना था जिसने मुझे प्रभावित किया था.मेरी सोच को भी. तभी बहस वर्ग और जाति पर केंद्रित हुई.येचुरीजी कह रहे थे...हमें जाति और वर्ग को मिला देना होगा. जब तक हम जाति और वर्ग को मिला कर नहीं लडेंगे तब तक वर्ग को नहीं खत्म किया जा सकता...बारी आयी सवाल जवाब की.मेरा सवाल था," यह काम हम कैसे करेंगे? मैं जाति से ब्राहण हूं .इस वर्ण व्यवस्था में सबसे उपर हूं.और मैं गरीब हूं . इतना कि दो जून की रोटी मैं बडी मुश्किल से जुटाता हूं.मेरा दोस्त है गांव में मेरे ही जैसा पैसा कमाने वाला एक दलित.हम साथ में खेतों में काम करते हैं. दोपहर में साथ में बैठकर रोटी खाते हैं.यदि आप लडाई को वर्ग से हटाकर वर्ण पर लायेंगे तो आखिर मैं अपने ही जाति के एक आदमी को कैसे मार सकता हूं.( मैं बात को एकदम इक्स्ट्रीम पर ले गया था).क्योंकि कोई मेरा चाचा है कोई भैया है कोई दादा है. आर्थीक हैसियत भले ही मेरी वैसी नहीं है लेकिन समारोहों में उन घरों में उतनी ही इज़्जत मिलती है. हां अगर बात सिर्फ़ वर्ग की हो तो मैं अगली पंक्ती में खडा मिलुंगा लडने के लिये. क्योंकि मेरे अंदर भी गुस्सा है. येचुरीजी ने सिर्फ़ एक लाईन में जवाब दिया, "हमें यही करना होगा और अपनी मानसिकता बदलनी होगी."

मैं दुबारा सवाल करना चाह्ता था लेकिन, समय की कमी थी. एक बात जो मैं वहां पुछना चाह्ता था वो यह था," आप क्या चाहते हैं कि हम ना घर के रहें ना घाट के. हम अपने चाचा, दादा और भैया के खिलाफ़ लडें वर्ग के नाम पर.और अचानक एक दिन पता चले की रणवीर सेना और एम सी सी की मारकाट में गांव के सारे सवर्णों के घर में आग लगा दिया गया.और मेरा परिवार उस आग की भेंट चढ गया.( यह सब होगा जाति के नाम पर)...

दिलीप भाई हम तो प्रतिरोध के स्वर के साथ अपना स्वर मिलाने के लिये तैयार हैं.लेकिन उसकी कीमत क्या होगी? कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा. कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि तब बात सिर्फ़ योग्यता के ही आधार पर की जायेगी.

दिलीप भाई मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि उत्पादन संबध में परिवर्तन हुआ है.बाज़ार और वैश्वीकरण ने जाति के ज़हर के प्रभाव को धीमा किया है.लेकिन हमें तो जो प्रतिरोध के स्वर सुनाई देते हैं वहां तो बाज़ार विरोधी बातें कानों में पडती हैं.आखिर इस तरह के अंतर्विरोधों का हम क्या करें. हम उन ताकतों से कैसे निपटें जो खडे तो होते हैं वर्ग आधारित समाज की रचना करने को लेकिन उनकी सारी ताकत अपना स्वार्थ साधने में खर्च हो जाती है. हो सकता है कि यह बहुत छोटी बातें हैं.लेकिन मैने यह देखा है कि किस तरह से दो ठाकुर परिवारों में झगडा होता है और एक परिवार का बडा लडका एम सी सी को फ़ंड करता है क्योंकि दुसरे परिवार का रणवीर सेना से अच्छे ताल्लुकात होते हैं. हमें क्यॊंकर भरोसा हो ऐसे प्रतिरोध पर.

दिलीप भाई जातीय दंभ और अभिमान की बातें तो बेमानी है.सच्चाई यह है कि हम अगर जाति को खत्म करने की बात करते हैं तब भी एकबार सामने वाला सोचता है कि क्या ये सच बोल रहा है? तब हमें अपनी बात बहुत ही जोरदार तरीके से रखनी होती है.उससे भी ज्यादा जोरदार तरीके से जो इस व्यवस्था का शिकार रहा है. हमें हर बार अपनी आवाज़ उंची करनी पडती है. कुछ ठीक उसी तरह जैसे इस देश के मुसलमानों को हर बार देशभक्त होना साबीत करना पडता है.यानि जब आप पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हों तो उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो और ज़ोर से वही नारा दुहराये.आवाज़ कमज़ोर पडी नहीं कि उन्हें शक की निगाह से देखा जाता है.

तो लीजिये ...मैं अपनी आवाज़ उंची करते हुए और बहुत ही जोरदार तरीके से यह कहना चाहता हूं कि मैं जाति व्यवस्था का घोर विरोधी हूं.मैं हर काम का कद्र करता हूं.मेरी निगाह में कोई काम बडा नहीं कोई काम छोटा नहीं. मैं उस व्यवस्था पर थूकता हूं जो दो इन्सानों में फ़र्क करती है.

गाली देने नही आता. और ...इससे ज़्यादा जोरदार तरीके से मैं अपनी बात रख सकूं इतनी मजबूत नहीं है मेरी लेखनी. और कोई तरीका हो तो आप बतायें ...जिससे मैं साबीत कर सकूं कि मुझे अपनी जाति को लेकर रत्ती मात्र भी अभिमान नहीं है.आप निकालिये जाति की शव यात्रा. हम सबसे आगे आगे नाचते मिलेंगे.

3 comments:

बालकिशन said...

आपके मन कि पीडा को बाखूबी कलमबंद किया है आपने.
और आपके इस साहस और सच्चाई कि मैं दाद देता हूँ.
कीप इट अप.

ghughutibasuti said...

आपकी समस्या और भी बहुत से लोगों की समस्या है । आपने इसे इतने अच्छे ढंग से उठाया, अच्छा लगा । याद रखिये अधिक ताकत बिना जवाबदेही के जिसके भी हाथ में होगी वह उसका दुरुपयोग ही करेगा । चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या विचारधारा का हो ।
घुघूती बासूती

Batangad said...

जाति की बहस में ये हिस्सा अकसर छूट जाता है। सही है अगर जाति व्यवस्था सिर्फ इसलिए तोड़ने की कोशिश हो रही है कि एक दूसरी व्यवस्था में कुछ दूसरे लोग ऊपर की वर्ण व्यवस्था में आ जाएं तो, फिर जाति को खत्म करने के प्रतिरोध में अभी की वर्ण व्यवस्था में ऊपर बैठे लोग कैसे शामिल हो पाएंगे। बढ़िया लगा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आप हैं ये जानकर भी अच्छा लगा।