Saturday, December 8, 2007

२० साल की यमुना

२० सालों से दिल्ली को देख रहा हूँ। काफी कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदली तो वो है यमुना। उस समय भी काली ओर गन्दी थी। आज भी वैसी ही दिखाती है। जब यमुना पुल नहीं रहा होगा तो लोगों को यमुना दिखती होगी। आज नहीं दिखती। क्या करे बड़े-बड़े पुल जो बन गए हैं। इन पुलों के ऊपर से लोग गाडि़यों मैं बैठकर फर्राटे से निकल जाते हैं। किसी के पास नीचे देखने का समय नहीं है। क्या करे समय कीकमी है। यमुना अपनी हालत पर आंसू बहा रही हैं लेकिन ना ही कोई देखने वाला है ओर ना ही कोई सुनने वाला। बचपन में मैं जब पिताजी के साथ साइकिल पर बैठकर प्रगति मैदान जाता था तो यमुना पुल से गुजरना होता था। यमुना के आते ही पिताजी कहते थे सिर झुकाकर नमस्कार करो यह देवी है। उस समय श्रद्धा से सिर झुक जाता था। आज शमॆ से सिर झुक जाता है। विकास कि इस अंधी रफ्तार मैं आख़िर कहा ले आये हम यमुना को। इन २० सालों में हमारा कूड़ा फेंकने का अंदाज भी बदला है। पहले पुल के किनारे रेल्लिंग़ हुआ करती थी। लोग आराम से कूड़ा फेंक देते थे। लेकिन आज हालात अलग हैं। पुल के किनारे रेलि्लंग लग गई हैं। लोग अब आराम से गाडि़यों से उतरते हैं। इसके बाद कोई एेसी जगह ढूंढते हैं। जहां कोई जाली टूटी हो और वो आसानी से कूड़ा फेंक दें। अगर कोई टूटी जाली नहीं मिलती, तो जोर लगाकर जाली के उपर से कूड़ा फेंकते हैं। कितनी अजीब बात हैं, यदि इसी ताकत का हमने सदुपयोग किया होता। तो आज हमारे पास भाला फेंक प्रतियोगिता के कई मैडल होते। यमुना की सफाई को लेकर सरकार अब तक १००० करोड़ से अधिक रुपये खचॆ कर चुकी है। लेकिन कोई खास फकॆ नहीं पड़ा है।

2 comments:

बालकिशन said...

बहुत सार्थक चिंतन है.
बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है आपका ये लेख.

समयचक्र said...

वास्तव मे यमुना नदी को प्रदूषित करने के लिए स्वयं देहली के निवासी ज़िम्मेदार है . जब तक वहाँ के निवासी यमुना को प्रदूषण रहित करने हेतु स्वयं को मानसिक रूप से तैयार नही कर लेते है जब तक यह समस्या बनी रहेगी,यह विचारणीय मुद्दा है इस पर आपके विचार सराहनीय है. धन्यवाद