ओम कबीर
कुछ टूटता है तो उसका असर होना लाजमी है। वक्त के साथ टूटता है तो ददॆ के साथ दाग भी छोड़ जाती हैं। पिछले दिनों नंदीग्राम ने बहुत कुछ टूटा। ददॆ के साथ। दूर तक असर भी छोड़ गया। वक्त पर कुछ निशान छोड़ गया। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी नंदीग्राम के दौरे पर गए। वहां उनकी चप्पल टूट गई। उनकी चप्पल का मरम्मत करता मोची और बगल में बैठ कर अपनी चप्पल ठीक करवाते गांधी की तस्वीर देश के लगभग सभी अखबारों में छपी। पूरे देश ने उसे देखा। नहीं देखा तो उसके पीछे का ददॆ। जो बहुत पहले ही अपने निशान उस तस्वीर के पीछे छोड़ गया था। उस ददॆ की गूंज बहुत लंबे समय तक सुनाई देगी। चप्पलें तो फिर भी ठीक हो सकती हैं। मरम्मत हो सकती हैं। पर उस ददॆ का क्या। जो उनके ऊपर एक निशान छोड़ गया है। क्या उसके लिए भी कोई मोची मिलेगा। क्या धागों और सुईयों से उस जख्म को भरा जा सकता है। फिर उस मरहम को हम कहां से लाएंगे। जो वक्त को ददॆ को भर दे। उस निशान को हमेशा के लिए मिटा दे। और कह दे जो हुआ वह महज एक हादसा था। और हम उसे भुला दें।
1 comment:
नंदीग्राम का दर्द इतनी आसानी से नहीं भुलाया जा सकता है..
ashish
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