विवेक सत्य मित्रम्
( ये पोस्ट यशवंत जी की ओर से उठाए गए तमाम सवालों का जवाब है। ये सवाल टिप्पणी की शक्ल में आए थे। और इनकी बुनियाद मेरे पिछले पोस्ट ‘कार्ल मार्क्स के नाम एक कामरेड का खत’ को बनाया गया था। एक बात जरुर कहना चाहूंगा कि मैं किसी भी बात को लेकर कन्फ्यूज नहीं हूं। जो भी करता हूं, जो भी सोचता हूं..अपने पूरे होशोहवास में होता हूं। और हां, मैं आपको आश्वस्त जरुर करना चाहूंगा कि ये ब्लाग किसी भी खास समुदाय के विरोधियों का अड्डा कभी नहीं बनेगा। लेकिन लोग हमें ऐसे किसी खास तमगे से नवाज देंगे, इस डर से अपनी बात कहने की ये परंपरा भी खत्म नहीं होगी। )
अगर किसी इंसान ने मार्क्स – लेनिन – चेग्वेरा या बोल्शेविक क्रांति के बारे में न पढ़ा हो तो उसके लिए लेफ्ट का मतलब क्या होगा...? चीन, क्यूबा, वियतनाम, नार्थ कोरिया या पश्चिम बंगाल। सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लाक, आइसा या एसएफआई। आखिर इनमें से वो कौन सा देश है जहां की सियासी व्यवस्था को, या कौन सा संगठन है जिसकी नीतियों को वो कम पढ़ा - लिखा इंसान असली ‘लेफ्ट’ मानकर चले? ये सवाल हर उस शख्स से है, जिसे लेफ्ट के खिलाफ कुछ भी लिखने और बोलने से मिर्ची लगती है। अगर आप नंदीग्राम और न्यूक्लियर डील के मसले पर सीपीएम और सीपीआई की नीतियों को कोसते हैं तो ये वामपंथी आपसे भी ऊंचे स्वर में उन्हें गरियाते हैं। अगर आप छात्र राजनीति में आई गिरावट को लेकर आइसा या एसएफआई को भला बुरा कहते हैं तो भी इन्हें दिक्कत नहीं होती। लेकिन ज्यों ही आप थोड़ा ‘जनरलाइज’ कर इन सभी (सीपीएम, सीपीआई, फारवर्ड ब्लाक, आइसा या एसएफआई) को ‘लेफ्ट’ कह दें तो मार्क्स और लेनिन के इन अराधकों को जैसे आग लग जाती है। कोई इनसे पूछे कि भैया आपकी तो पूरी सियासत ही इस ‘सामान्यीकरण’ के बूते चल रही है। विहिप, बजरंग दल, बीजेपी या आरएसएस को तो आप बड़े ताव से सांप्रदायिक कह देते हो, क्या ये ‘सामान्यीकरण’ नहीं है। आपसी मतभेद ही तो आपके पास एक सशक्त तर्क है, जिसकी बुनियाद पर सीपीआई खुद को सीपीएम से और एसएफआई खुद को आइसा से अच्छा साबित करने का कोई मौका नहीं खोती। कुछ इसी तरह के तो मतभेद इन बिचारे हिंदूवादियों के बीच भी तो हैं फिर आप इन्हें ‘जनरलाइज’ कैसे कर देते हैं? थोड़े सामान्य शिष्टाचार की उम्मीद तो आपसे भी रखी जा सकती है।
इस बात को छोड़ दीजिए, बात उस जमात की करते हैं जिसका हाजमा मार्क्स और वामपंथ को गरियाने से ही ठीक रहता है (ऐसा आपका मानना है)। बेहद सपाट शब्दों में कहूं तो, जो कोई ‘एंटी लेफ्ट फीलिंग्स’ शो करता है, उस पर इस तरह के आरोप खुद ब खुद तय हो जाते हैं। आरोप लगाने वाला व्यक्ति केवल उस जमात की मौजूदगी को पुख्ता करता है जो मानसिक तौर पर लेफ्ट का झंडाबरदार होता है लेकिन लेफ्ट की करतूतों की वजह से हकीकत में उसे स्वीकार नहीं कर पाता।
यशवंत जी, आपको भी पता है कि जिस दौर में हम ये बहस कर रहे हैं शायद कोई भी विचारधारा अपने ओरिजनल फार्म में हमारे सामने नहीं हैं। ‘लेफ्ट’ हो या ‘राइट’, कोई भी ये दावा नहीं कर सकता कि वो पाक-साफ है। हर आदमी यहां गद्दी हथियाने की सियासत कर रहा है। बीजेपी, कांग्रेस, सपा, लेफ्ट...एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसने जनता को गुमराह नहीं किया हो। इन सभी पार्टियों की कमान मौकापरस्तों के हाथ में है, जो सत्ता हासिल करने के लिए अपने सिद्धांतों को गिरवी रखने से बाज नहीं आते। लेकिन ये सभी लोग कम से कम साफ-पाक होने का बेशर्म दावा तो नहीं करते। दूसरी ओर लेफ्ट पार्टियां खुद को ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ का खिताब देने के लिए लालायित रहती हैं। मैं तो महज उस बड़ी जमात का एक अदना सा प्रतिनिधि हूं जिसे लेफ्ट के दोगले रवैये पर घिन्न आने लगी है। और हालिया घटनाओं के बाद भी अगर कोई मजबूत तर्कों और सामने वाले की कम जानकारी की आड़ में लेफ्ट को पाक-साफ साबित करने पर तुला रहे तो उसकी सियासी समझ और सामाजिक जिम्मेदारी का असली चेहरा समझने में किसी को कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी।
थोड़ा और खुलकर बात करें तो हममें से बहुत से लोग अपनी सियासी रुझानों को सार्वजनिक इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें डर लगता है? ऐसी हालत में ये तमाम लोग उसके साथ होते हैं जिसके पास ताकत होती है। और ले देकर समाज में न तो दक्षिणपंथ, न मार्क्सवाद और न ही समाजवाद...ऐसी कोई भी विचारधारा अपनी जमीन नहीं बचा पाती। इन सभी को अवसरवाद निगल जाता है, सियासत की बात छोड़ दीजिए, हम आप भी कहीं न कहीं इस वाद के छलावे के शिकार हैं। हो सकता है, इस हकीकत को स्वीकार करने का माद्दा अभी हममें डेवलप न हो पाया हो। किसी भी 'वाद' या 'पंथ' से कहीं बढ़कर है इंसानियत। कायदे से हम अच्छा इंसान बन जाएं तो भी इस समाज पर बहुत बड़ा अहसान होगा।
जहां तक मेरी बात है, जिंदगी में सही और गलत का फर्क करना थोड़ा बहुत आ गया है। और जो कुछ भी गलत लगता है उसके खिलाफ आवाज बुलंद करना मेरी आदत में शुमार रहा है। जिंदगी में इस बात का बहुत खामियाजा भी उठाया है। हो सकता है आगे भी इससे बहुत कुछ झेलना पड़े लेकिन गलत को गलत कहने की आदत नहीं जाएगी....ये मेरा वायदा रहा। लेफ्ट के खिलाफ जो कुछ भी मैंने लिखा वो इसी आदत का नतीजा है। लेफ्ट और मार्क्स को गरियाने से मुझे निजी तौर पर कोई सुख नहीं मिलता, लेकिन इतना जरुर है कि अपनी बात भरपूर ढ़ंग से कह लेने के बाद जो सूकून आपको मिलता होगा...वैसा ही कुछ मुझे भी मिलता है।
आखिर में एक बात और कहना चाहूंगा कि किसी भी बात के पीछे कोई न कोई वजह जरुर होती है। हो सकता है कि आपको ये ब्लाग मेरे गुस्से या झल्लाहट का नतीजा लगता हो लेकिन ये शुरुआत है, अभी से इसे शक की निगाह से न देखा जाए तो उन लोगों पर बड़ी मेहरबानी होगी जिन्हें कुछ इसी तरह के दूसरे प्लेटफार्म्स पर बोलते हुए डर लगता है कि कहीं उसे नासमझ साबित न कर दिया जाए। कहीं लोग उसके बारे में कोई ऐसी राय न बना लें जो उसकी निजी जिंदगी में मुसीबत खड़ा करे। वैसे भी पढ़े लिखे बुद्धिजीवी किस्म के लोग तर्क के बल पर कुछ भी साबित कर सकते हैं....ये बात तो आप मुझसे बेहतर जानते हैं। लिहाजा इस ब्लाग के प्रति अगर कोई पूर्वाग्रह किसी के भी मन में पैदा हो रहा हो तो प्लीज उसे निकाल फेंकिए...। हमें जो कुछ गलत लगेगा, उसके खिलाफ आवाज बुलंद करने में हम कभी भी पीछे नहीं रहेंगे...। चाहे वो बुद्धदेव और लेफ्ट के ‘स्यूडो कम्यूनिज्म’ का मसला हो चाहे आरएसएस, विहिप, मोदी और तोगड़िया के ‘अतिवाद’ का... गरियाने वालों की कतार में हम आपको सबसे आगे नजर आएंगे...। और ये बात ‘आफ द रिकार्ड’ कतई नहीं है...!
( ये पोस्ट यशवंत जी की ओर से उठाए गए तमाम सवालों का जवाब है। ये सवाल टिप्पणी की शक्ल में आए थे। और इनकी बुनियाद मेरे पिछले पोस्ट ‘कार्ल मार्क्स के नाम एक कामरेड का खत’ को बनाया गया था। एक बात जरुर कहना चाहूंगा कि मैं किसी भी बात को लेकर कन्फ्यूज नहीं हूं। जो भी करता हूं, जो भी सोचता हूं..अपने पूरे होशोहवास में होता हूं। और हां, मैं आपको आश्वस्त जरुर करना चाहूंगा कि ये ब्लाग किसी भी खास समुदाय के विरोधियों का अड्डा कभी नहीं बनेगा। लेकिन लोग हमें ऐसे किसी खास तमगे से नवाज देंगे, इस डर से अपनी बात कहने की ये परंपरा भी खत्म नहीं होगी। )
अगर किसी इंसान ने मार्क्स – लेनिन – चेग्वेरा या बोल्शेविक क्रांति के बारे में न पढ़ा हो तो उसके लिए लेफ्ट का मतलब क्या होगा...? चीन, क्यूबा, वियतनाम, नार्थ कोरिया या पश्चिम बंगाल। सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लाक, आइसा या एसएफआई। आखिर इनमें से वो कौन सा देश है जहां की सियासी व्यवस्था को, या कौन सा संगठन है जिसकी नीतियों को वो कम पढ़ा - लिखा इंसान असली ‘लेफ्ट’ मानकर चले? ये सवाल हर उस शख्स से है, जिसे लेफ्ट के खिलाफ कुछ भी लिखने और बोलने से मिर्ची लगती है। अगर आप नंदीग्राम और न्यूक्लियर डील के मसले पर सीपीएम और सीपीआई की नीतियों को कोसते हैं तो ये वामपंथी आपसे भी ऊंचे स्वर में उन्हें गरियाते हैं। अगर आप छात्र राजनीति में आई गिरावट को लेकर आइसा या एसएफआई को भला बुरा कहते हैं तो भी इन्हें दिक्कत नहीं होती। लेकिन ज्यों ही आप थोड़ा ‘जनरलाइज’ कर इन सभी (सीपीएम, सीपीआई, फारवर्ड ब्लाक, आइसा या एसएफआई) को ‘लेफ्ट’ कह दें तो मार्क्स और लेनिन के इन अराधकों को जैसे आग लग जाती है। कोई इनसे पूछे कि भैया आपकी तो पूरी सियासत ही इस ‘सामान्यीकरण’ के बूते चल रही है। विहिप, बजरंग दल, बीजेपी या आरएसएस को तो आप बड़े ताव से सांप्रदायिक कह देते हो, क्या ये ‘सामान्यीकरण’ नहीं है। आपसी मतभेद ही तो आपके पास एक सशक्त तर्क है, जिसकी बुनियाद पर सीपीआई खुद को सीपीएम से और एसएफआई खुद को आइसा से अच्छा साबित करने का कोई मौका नहीं खोती। कुछ इसी तरह के तो मतभेद इन बिचारे हिंदूवादियों के बीच भी तो हैं फिर आप इन्हें ‘जनरलाइज’ कैसे कर देते हैं? थोड़े सामान्य शिष्टाचार की उम्मीद तो आपसे भी रखी जा सकती है।
इस बात को छोड़ दीजिए, बात उस जमात की करते हैं जिसका हाजमा मार्क्स और वामपंथ को गरियाने से ही ठीक रहता है (ऐसा आपका मानना है)। बेहद सपाट शब्दों में कहूं तो, जो कोई ‘एंटी लेफ्ट फीलिंग्स’ शो करता है, उस पर इस तरह के आरोप खुद ब खुद तय हो जाते हैं। आरोप लगाने वाला व्यक्ति केवल उस जमात की मौजूदगी को पुख्ता करता है जो मानसिक तौर पर लेफ्ट का झंडाबरदार होता है लेकिन लेफ्ट की करतूतों की वजह से हकीकत में उसे स्वीकार नहीं कर पाता।
यशवंत जी, आपको भी पता है कि जिस दौर में हम ये बहस कर रहे हैं शायद कोई भी विचारधारा अपने ओरिजनल फार्म में हमारे सामने नहीं हैं। ‘लेफ्ट’ हो या ‘राइट’, कोई भी ये दावा नहीं कर सकता कि वो पाक-साफ है। हर आदमी यहां गद्दी हथियाने की सियासत कर रहा है। बीजेपी, कांग्रेस, सपा, लेफ्ट...एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसने जनता को गुमराह नहीं किया हो। इन सभी पार्टियों की कमान मौकापरस्तों के हाथ में है, जो सत्ता हासिल करने के लिए अपने सिद्धांतों को गिरवी रखने से बाज नहीं आते। लेकिन ये सभी लोग कम से कम साफ-पाक होने का बेशर्म दावा तो नहीं करते। दूसरी ओर लेफ्ट पार्टियां खुद को ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ का खिताब देने के लिए लालायित रहती हैं। मैं तो महज उस बड़ी जमात का एक अदना सा प्रतिनिधि हूं जिसे लेफ्ट के दोगले रवैये पर घिन्न आने लगी है। और हालिया घटनाओं के बाद भी अगर कोई मजबूत तर्कों और सामने वाले की कम जानकारी की आड़ में लेफ्ट को पाक-साफ साबित करने पर तुला रहे तो उसकी सियासी समझ और सामाजिक जिम्मेदारी का असली चेहरा समझने में किसी को कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी।
थोड़ा और खुलकर बात करें तो हममें से बहुत से लोग अपनी सियासी रुझानों को सार्वजनिक इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें डर लगता है? ऐसी हालत में ये तमाम लोग उसके साथ होते हैं जिसके पास ताकत होती है। और ले देकर समाज में न तो दक्षिणपंथ, न मार्क्सवाद और न ही समाजवाद...ऐसी कोई भी विचारधारा अपनी जमीन नहीं बचा पाती। इन सभी को अवसरवाद निगल जाता है, सियासत की बात छोड़ दीजिए, हम आप भी कहीं न कहीं इस वाद के छलावे के शिकार हैं। हो सकता है, इस हकीकत को स्वीकार करने का माद्दा अभी हममें डेवलप न हो पाया हो। किसी भी 'वाद' या 'पंथ' से कहीं बढ़कर है इंसानियत। कायदे से हम अच्छा इंसान बन जाएं तो भी इस समाज पर बहुत बड़ा अहसान होगा।
जहां तक मेरी बात है, जिंदगी में सही और गलत का फर्क करना थोड़ा बहुत आ गया है। और जो कुछ भी गलत लगता है उसके खिलाफ आवाज बुलंद करना मेरी आदत में शुमार रहा है। जिंदगी में इस बात का बहुत खामियाजा भी उठाया है। हो सकता है आगे भी इससे बहुत कुछ झेलना पड़े लेकिन गलत को गलत कहने की आदत नहीं जाएगी....ये मेरा वायदा रहा। लेफ्ट के खिलाफ जो कुछ भी मैंने लिखा वो इसी आदत का नतीजा है। लेफ्ट और मार्क्स को गरियाने से मुझे निजी तौर पर कोई सुख नहीं मिलता, लेकिन इतना जरुर है कि अपनी बात भरपूर ढ़ंग से कह लेने के बाद जो सूकून आपको मिलता होगा...वैसा ही कुछ मुझे भी मिलता है।
आखिर में एक बात और कहना चाहूंगा कि किसी भी बात के पीछे कोई न कोई वजह जरुर होती है। हो सकता है कि आपको ये ब्लाग मेरे गुस्से या झल्लाहट का नतीजा लगता हो लेकिन ये शुरुआत है, अभी से इसे शक की निगाह से न देखा जाए तो उन लोगों पर बड़ी मेहरबानी होगी जिन्हें कुछ इसी तरह के दूसरे प्लेटफार्म्स पर बोलते हुए डर लगता है कि कहीं उसे नासमझ साबित न कर दिया जाए। कहीं लोग उसके बारे में कोई ऐसी राय न बना लें जो उसकी निजी जिंदगी में मुसीबत खड़ा करे। वैसे भी पढ़े लिखे बुद्धिजीवी किस्म के लोग तर्क के बल पर कुछ भी साबित कर सकते हैं....ये बात तो आप मुझसे बेहतर जानते हैं। लिहाजा इस ब्लाग के प्रति अगर कोई पूर्वाग्रह किसी के भी मन में पैदा हो रहा हो तो प्लीज उसे निकाल फेंकिए...। हमें जो कुछ गलत लगेगा, उसके खिलाफ आवाज बुलंद करने में हम कभी भी पीछे नहीं रहेंगे...। चाहे वो बुद्धदेव और लेफ्ट के ‘स्यूडो कम्यूनिज्म’ का मसला हो चाहे आरएसएस, विहिप, मोदी और तोगड़िया के ‘अतिवाद’ का... गरियाने वालों की कतार में हम आपको सबसे आगे नजर आएंगे...। और ये बात ‘आफ द रिकार्ड’ कतई नहीं है...!
9 comments:
bhai sahab apne to aise ki taise kar ke rakh di. achha raha
ye sabit ho gaya hai ke wampanthiyo ka loktantra se barosa ud gaya hai. apne aap ko garibo ka massiha kehne wale nandigraam me kudh garibo ke khun baha rahe hai. nandigram gujrat dango se bhi battar hai. wampanthiyo se to aacha modi hai. kam se kam modi se modi ne dango ko naithik to nahi tharaha tha. budhdev ne kaha ke nandigram jaise ghatnaye har jagah hoti rahti hai. vrinda karat har mude par to janandolan karti thi lekin ab pata nahi kaha muh chupaye bethi hai. aabhi haal hi me bbc me ek report chapi thi ke darjling me chai bagan ke majdoor bhukhe mar rahe the aur midnapur me log aam ke ghutali kha kar reh rahe hai. wah re communist. yehi teri kahani.
विवेक सत्य मित्रम् को हार्दिक बधाई। बहुत ही सारगर्भित विश्लेषण करते हुए आपने कम्युनिस्टों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है। पूरी दुनिया से साम्यवाद की विदाई हो रही है। भारत में भी इनकी असलियत उजागर हो गई है। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के 30 साल के शासन में लोगों को क्या मिला। वहां लालटेन युग है, भ्रष्टाचार चरम पर है, बेहतर सडक-स्वच्छ पेयजल का अभाव है, लोग भूखे मर रहे है, अपना हक मांगने पर किसानों के हाथ-पैर काट लिए जाते है। वास्तव में मार्क्सवाद की सडांध से भारत प्रदूषित हो रहा है।
लैफ्ट माने हत्या ,तोङफोङ,धमकी और थोथा आदर्शवाद
कामरेड संजीव भाई और कामरेड मिहिरभोज भाई,
इस गलतफहमी में न रहें बंधु कि साम्यवाद मर रहा है, या मर जाएगा। जब तक गरीब रहेगा, गरीबी रहेगी, साम्यवाद चलता रहेगा। यह पूंजीवादियों की मजबूरी है। यह अलग बात है कि सीपीआई-सीपीएम आदि की दूकान बंद हो जाए। कृपा करके कामरेड इस अर्थ में न लें कि आप सीपीआई सीपीएम वाले हैं। कामरेड का शाब्दिक अर्थ साथी होता है, यही मैंने जाना है।
भाईसाहब,
1. न तो दुनिया से लेफ्ट उठ रहा है और न इंसानियत की विचारधारा। वैसे दोनों एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। इंसानियत की अगर कोई विचारधारा है तो वह बुद्ध-गुरू गोविंद सिंह-मार्क्स-लेनिन-माओ के रास्ते ही निकली है। नेपोलियन-जार-हिटलर-मुसोलिनी-गुरू गोलवलकर-तोगड़िया-आडवाणी के रास्ते नहीं। सिर्फ लेफ्ट ही इंसान की बराबरी और उसके जीने की हक की बात करता है। बाकी तो अमीर बने रहने के लिए गरीबी बनाए रखने (इंसान के शोषण) की अनिवार्यता ही जताते हैं।
2. दुखद यह है कि अधकचरी समझ के चलते छल्लों-दुमछल्लों को लेफ्ट मानकर इस महान विचारधारा आकलन किया जा रहा है।
3. आप कहते हैं कि आप कनफ्यूज्ड नहीं हैं लेकिन हैं आप भयंकर रूप से कनफ्यूज्ड। भारत के लेफ्ट ग्रुप्स के बारे में भी आपकी जानकारी अधकचरी है। किसी की सही आलोचना आप तब तक नहीं कर सकते जब तक आप उसे पूरी तरह से जान लें। प्रकाश करात और दीपांकर भट्टाचार्य के अंतर को समझना ही पड़ेगा।
4. माफ करिएगा आपका यह ब्लाग बोगस वाम विरोधियों का अड्डा बनता नजर आ रहा है।
विवेक अच्छी समीक्षा की है।
Mr. khush,dont feel so disheartend.if u really think i m wrong...kindly anaylise the matter in reference to Indian politics. We dont need any OUTSIDER example to shape our society...Budhha and Mahaveer, GuruNanak were born in India only not in Russia. and its a public plateform. it cud be a co-incident that anti-left sentiments are dared to show, but leftists dont have word...so, lets discuss Letf properly, if u want. But now turn is yours. if you r so much optimistic about left just prove it. Keval Gal Bajane Se kaam Nahin Chalega....
विवेक व सत्य आपस मे इतने मित्र हैं जितना सूर्य और उसकी धुप लेकिन आपका मूल्यांकन उतना ही सत्य से कटा है जितना आपसे आपका दुश्मन {मित्र का उल्टा } कटा है..जारे मे अमीरों की मौज होती है और गरीबों की नींद हराम पर आपका मूल्यांकन उतना ही संवेदनहीन है .........,,,
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