Wednesday, December 5, 2007

भूल क्यों नहीं जाते हम 6 दिसंबर को ?

विवेक सत्य मित्रम्

कल 6 दिसंबर है। कुछ लोग इसे शौर्य दिवस के तौर पर मनाएंगे। कुछ इसे कलंक दिवस की तरह याद करेंगे, काली पट्टी बांधकर घूमेंगे और नारेबाजी करेंगे। तो कुछ जरुरत से ज्यादा संवेदनशील लोगों की प्रजाति (बुद्धिजीवी) के लोग इंडिया गेट पर बाबरी मस्जिद की याद में कैंडेल लाइट प्रोटेस्ट करेंगे। बहरहाल, ये तमाम लोग जो करें मैंने तो तय किया है कि मैं 6 दिसंबर को ‘मूर्ख दिवस’ के रुप में मनाऊंगा।
वैसे भी एक अप्रैल कब आता है, और निकल जाता है। कुछ पता ही नहीं चलता। गर्मियों का मौसम जो होता है। लोग अपने अपने घरों में बंद रहते हैं। और हर साल मूर्ख बनने और बनाने की साध पूरी ही नहीं हो पाती। अब ‘मूर्ख दिवस’ कोई हैप्पी बर्थडे तो है नहीं कि बाद में ‘बिलेटेड अप्रैल फूल’ मना लें।
लिहाजा अब से हर साल मैं इस दिन को ‘मूर्ख दिवस’ के तौर पर मनाऊंगा। क्योंकि यही वो दिन है जब भारत में किसी को मूर्ख बनाने की जरुरत नहीं पड़ती। आम जनता, राजनेता, संस्कृतिकर्मी, समाजसेवी , पत्रकार और बुद्धिजीवी हर कोई बाइ डिफाल्ट इस दिन मूर्ख बन जाता है। उसे महसूस भी नहीं हो पाता है कि शातिर नेताओं ने इस तारीख को आम जनता और तमाम दूसरे लोगों को मूर्ख बनाने का हथियार बना लिया है।
कुछ सियासी दल और नेता इस तारीख को अपनी उपलब्धि बताकर मूर्ख बनाते हैं तो कुछ इसे बुनियाद बनाकर खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करते हैं। लेकिन दोनों का ही मकसद होता है लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उन्हें बेवकूफ बनाना। और उनकी इस मुहिम में आम जनता क्या हम सभी पढ़े लिखे लोग गाजे बाजे के साथ शरीक होते हैं, और हमें अहसास ही नहीं होता कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा है। इस तरह मूर्ख दिवस मनाने के लिए इससे बेहतर तारीख खोज पाना बेहद मुश्किल काम है।
चूंकि ये 6 दिसंबर है तो इसे भूलने का तो कोई मतलब ही नहीं है। अगर मैं भूल भी गया, तो सुबह-सुबह अखबार मुझे याद दिला देगा कि आजाद भारत की सबसे अहम तारीख आज है। ये कोई सुभाष चंद्र बोस, अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल या भगत सिंह की जयंती तो है नहीं कि मीडिया की सर्कुलेशन और टीआरपी पर कोई असर न पड़े। अखबार, टीवी चैनल पर मातमपुर्सी तो होनी ही है...लिहाजा ‘मूर्ख दिवस’ मनाने से चूकने का कोई मौका नहीं है।
मान लीजिए...किसी वजह से टीवी या अखबार नहीं भी देख पाऊं तो घर से बाहर तो निकलना ही है। अगर मैं दिल्ली की बजाए किसी और छोटे या मझोले शहर में भी रहता तो घर से बाहर निकलते ही छह दिसंबर याद आ जाता। क्योंकि यही वो महान दिन है जब हिंदुओं और मुसलमानों को अपने मजहब के प्रति अपनी वफादारी साबित करने का मौका मिलता है।
ये शानदार मौका, बिना जूलूस निकाले भला कैसे जा सकता है। भले ही शहर में ट्रैफिक जाम लग जाए लेकिन जूलूस तो निकालना ही है। कुछ लोग ट्रकों, बसों और दूसरी गाड़ियों में लदे माथे पर केसरिया पट्टी बांधे ‘जय श्रीराम’ के गगनभेदी नारे लगाते हुए नजर आएंगे। ऐसा लगेगा जैसे विश्व विजय करके निकले हों। तो कुछ लोग काली पट्टी बांधे, छाती पीटते हुए विलाप करते नजर आएंगे मानो बाबरी मस्जिद गिरने के बाद वो अनाथ हो गए हों।
अठ्ठाहास करने और आंसू बहाने वाले इन तमाम आम लोगों के अलावा एक और भी तबका है जो छह दिसंबर को काफी सक्रिय हो उठता है। ये उन दिमागदार लोगों का हूजूम है जिन्हें हम इज्जत के साथ ‘बुद्धिजीवी’ कहते हैं। ये लोग जाति, धर्म और जुबान की आम परिभाषाओं से बाहर होते हैं। खुद को इन घटिया दायरों में रखना इनकी शान के खिलाफ है क्योंकि इनकी नस्ल, हमारे आपके जीन्स में म्यूटेशन से तैयार होती है। इस नस्ल के लोग हर छोटे बड़े शहर में पाए जाते हैं, लेकिन दिल्ली में इनकी आबादी कुछ ज्यादा ही है। लेकिन ऐसा नहीं कि इनका अपना कोई संप्रदाय भी न हो। ये खुद को धर्मनिरपेक्ष संप्रदाय का मानते हैं।
दरअसल यही वो लोग हैं, जिन्होंने मुझे छह दिसंबर को मूर्ख दिवस के रुप में मनाने की सच्ची प्रेरणा दी। आम जनता को मूर्ख बनाना तो वैसे भी कोई मुश्किल काम नहीं है। अमूमन हर साल, किसी न किसी स्तर के चुनाव में देश के आदमखोर नेता इन्हें मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। ऐसे में मंदिर मस्जिद और मजहब के मसलों पर इनकी मूर्खता का ऊफान पर आना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन छह दिसंबर की महिमा के क्या कहने। खुद को उन्नत नस्ल का प्राणी समझने वाले बुद्धिजीवी लोग भी इस दिन मूर्ख बन जाते हैं।
आम तौर पर साहित्यकार, कलाकार, लेखक, सोशल वर्कर और पत्रकार बिरादरी के लोग इस तबके की आबादी में शामिल होते हैं। इनमें से ज्यादातर धर्म निरपेक्ष संप्रदाय के होते हैं लिहाजा ये लोग छह दिसंबर को भारत के मुंह पर कालिख के तौर पर देखते हैं। और इस कालिख को छुड़ाने के लिए इस दिन ये उन पार्टियों और उनके नेताओं को बल भर गरियाते हैं जिनकी वजह से मुगलकाल की सांस्कृतिक विरासत तबाह हो गई, और ये लोग दुनिया के सामने मुंह दिखाने के काबिल नहीं बचे।
अगर आप इनसे मिलना चाहते हैं तो वक्त बिल्कुल सटीक है। आप कल थोड़ा वक्त निकालकर कनाट प्लेस के पास फिक्की आडिटोरियम, श्रीराम सेंटर, एनएसडी, एलटीजी या कमानी आडिटोरियम में तशरीफ ले जाइए। आपकी मुलाकात इन लोगों से जरुर हो जाएगी। साथ ही आपको उम्दा किस्म के भाषणों की सौगात भी नसीब होगी, सो अलग।
ऐसा नहीं है कि इन लोगों को पता नहीं है कि दरअसल वो भी शातिर नेताओं के हाथों में खेल रहे हैं। ये हमसे बेहतर जानते हैं कि जिस दिन लोग छह दिसंबर को भूल जाएंगे, बीजेपी, कांग्रेस, सपा और उन तमाम पार्टियों के लिए कोई मुद्दा नहीं बचेगा जो खुद को एक खास समुदाय का हितैषी बताकर वोट बैंक बढ़ाने की सियासत करता है।
यही वो मुद्दा है जिससे हर साल इन दो समुदायों के बीच दंगा कराने की जमीन तैयार की जाती है। कुछ लोग मजहबी बदले के नाम पर तो कुछ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आम आदमी को हिंदू – मुसलमान में बांटकर रखने की साजिश करते हैं ताकि चुनाव में लोग असल मुद्दों पर बात न करने लगें। लोग ये न पूछने लगें कि महंगाई क्यों बढ़ी, सड़कें क्यों नहीं बनीं, नल में साफ पानी क्यों नहीं आता, दिनभर बिजली क्यों गुल रहती है, और हम महफूज क्यों नहीं हैं..?
अफसोस की बात ये है कि इस खतरनाक साजिश में ये बुद्धिजीवी किस्म के लोग इन आदमखोर राजनेताओं का भरपूर साथ देते हैं। उन्हें लगता है कि वो 6 दिसंबर की मातमपुर्सी करके एक महान काम कर रहे हैं..? इससे लोगों में ये संदेश जाएगा कि कट्टरवाद बुरी चीज है...लेकिन साहब...भाषणबाजी करके, नुक्कड़ नाटक करके या इस मुद्दे पर सेमिनार करके आप जो करते हैं, उसके लिए आपको कतई माफ नहीं किया जाना चाहिए।
कायदे से आपको आम जनता को ये बताना चाहिए कि अतीत में हुए हादसों को भूलकर आगे कैसे बढ़ा जाए...? आपको उन्हें इस बात के लिए सावधान करना चाहिए कि वो इन हिंदूवादी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बहकावे में न आएं। उन्हें समझाने की कोशिश करनी चाहिए कि इस दिन हाय तौबा मचाने से कुछ भी नहीं मिलेगा। हम ताउम्र हिंदू और मुसलमान बने रह जाएंगे, और हमारी इस नफरत का फायदा वो भेड़िये उठाते रहेंगे जिनके लिए मंदिर और मस्जिद कुर्सी हासिल करने का जरिया से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
बेचारी आम जनता तो आम है, वो भला इतने दांव पेंच कहां से समझेगी। उसे तो बस इतना पता है कि फलानी पार्टी अगर मंदिर बनवाना चाहती है तो वो हिंदुओं के हिंतों की रक्षा बेहतर करेगी। या उसे ये गफलत है कि फलानी पार्टी की सरकार हज यात्रा के लिए ज्यादा सब्सिडी दे रही है तो वो मुसलमानों की पेरौकार है। इन्हीं छलावों की वजह से वो हर साल ६ दिसंबर को जान हथेली पर रखकर जूलूस निकालती है। बिना इस बात की परवाह किए कि अगर किसी ने इस मौके का इस्तेमाल दंगे भड़काने के लिए कर लिया तो उन मांओं का क्या होगा जिनके बच्चे बेमौत मारे जाएंगे। उन मासूमों की परवरिश कौन करेगा जिनके सिर से बाप का साया उठ जाएगा।
वैसे भी 6 दिसंबर को याद रखने से हमें क्या मिला। दुनिया भर में मजहबी दंगे। दंगों में मारे गए हजारों लोगों की लाशें। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती दूरियां। मस्जिद गिराने के नाम पर मुसलमान युवकों को बरगलाकर आतंकवादी बनाने की घटनाएं। इसमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो किसी भी समाज को विकास की ओर ले जाता हो। मुंबई में साल 93 में हुए बम धमाके हों या गोधरा कांड...सिवाए इंसानियत के शर्मसार होने के इस तारीख ने हमें कुछ भी नहीं दिया है।
अब वक्त आ चुका है कि हम समझें कि मंदिर मस्जिद में कुछ भी नहीं रखा है। मेरा तो मानना है कि उस ढ़ांचे को गिराकर वहां कोई बड़ा अस्पताल या कालेज बना देना चाहिए। क्योंकि आज अयोध्या की बात हो रही है कल मथुरा और बनारस की बात होगी। आखिर ये सिलसिला कहां थमेगा। हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़काकर सियासी लोग हमें बांटकर अपनी रोटियां सेंकते रहेंगे। हमारी असली विरासत दरअसल वो संस्कृति जिसमें तमाम अलग अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों के लोग एक साथ रहते हैं।
जरुरत इस बात कि है कि तमाम जागरुक किस्म के लोग इसके लिए ईमानदार कोशिश करें। आस्था एक अलग चीज है। हम हिंदू और मुसलमान होते हुए भी इंसान बने रह सकते हैं। इसके लिए धर्मनिरपेक्ष होना कतई जरुरी नहीं है। मेरा मानना है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की थोथी मुहिम के चलते ही हम जाने-अनजाने ऐसे मुद्दों को खत्म नहीं होने देते।
चूंकि मीडिया और संचार के दूसरी व्यवस्थाओं पर हमारा कब्जा है लिहाजा हमारी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है कि 6 दिसंबर जैसे दिन को भुलाकर आम आदमी को उसके तमाम दूसरे अधिकारों के प्रति सजग करें...ताकि धर्म के नाम पर सियासत करने वाले लोगों के खतरनाक मंसूबे कामयाब न हो सकें। ताकि कोई पार्टी ये न प्रोपोगेंडा कर सके कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी हिंदुओं के वजूद के लिए खतरा है।
आखिर में कहना चाहूंगा कि जिस दिन हमारे देश के इन जागरुक बुद्धिजीवी लोगों का तबका इस दिशा में कोशिश करना शुरु करेगा मैं भी ६ दिसंबर को मूर्ख दिवस के तौर पर मनाना बंद कर दूंगा और मुझे इस बात का कतई अफसोस नहीं होगा..। लेकिन निकट भविष्य मुझे ऐसा होता नहीं दिख रहा लिहाजा कम से कम कल तो मैं पूरे हर्षोल्लास से ‘मूर्ख दिवस’ मनाऊंगा...और मौका मिला तो मंडी हाउस भी जाऊंगा.. उन मूर्खों के दर्शन करने जो जोश खरोश के साथ लगे होंगे....मेरे इस आइडिया को एक मजबूत तर्क देने में....खैर, आप सभी को ‘मूर्ख दिवस’ की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं...!

3 comments:

अनिल रघुराज said...

वैसे, मुंबई में तो कल यानी 6 दिसंबर को महापरिनिर्वाण दिवस की ज्यादा तैयारी है। यहां की चैतन्य भूमि और शिवाजी पार्क में बाबा साहब अंबेडकर की 51वीं पुण्यतिथि मनाने के लिए 15 लाख लोगों के जुटने की उम्मीद है।

खुश said...

इस पोस्ट पर टिप्पणी के तौर पर मैं अपने ब्लाग पर प्रकाशित धूमिल की कविता के अंश यहां पेस्ट कर रहा हूं-
हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है

आप तय करिए आप कहां खड़े हैं? कंप्यूटर और नेट इस्तेमाल करते हैं, इसलिए गरीब तो होने से रहे!

Sagar Chand Nahar said...

बहुत बढ़िया लगा आपका लिखा पढ़ कर.. एक बात से असहमत हूँ कि मस्जिद के ढाँचे को गिरा कर कॉलेज आ अस्पताल बना देना चाहिये, मेरा मानना है कि देश के हरेक मंदिर- मस्जिद- गिरिजाघर को ढ़हा कर अस्पताल- स्कूल या कॉलेज बना देना चाहिये।
इन धर्म स्थलों ने आज तक किसी का भला नहीं किया।
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल