- विवेक सत्य मित्रम्
".....लेकिन जाति जैसे जटिल विषय को छू रहे कुछ लोग आत्मविश्वास से भरपूर और ताल ठोककर इस विषय पर अंतिम निर्णायक आलेख लिखते नजर आ रहे हैं, विस्मयकारी है। सचमुच, ज्ञान आपको झुकने की तमीज सिखाता है और अज्ञान आपमें आत्मविश्वास भर देता है। कोई रिफरेंस नहीं, कोई शोध नहीं, किसी अनुभव का जिक्र नहीं। बस दिल में आया जो, रच दिया। फिर तकलीफ ये कि कोई गंभीरता से नहीं लेता...।" ये दिलीप मंडल जी के मोहल्ला पर छपे उस आखिरी लेख का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने इस मुद्दे से विदाई ली है। इससे पहले 'दुबे जी बीच वाला लैट्रिन साफ कर दीजिए ' वाले लेख पर मैंने और अनिल दुबे ने ही मुखर तौर पर अपनी बात रखी थी। लिहाजा इसमें जो कुछ भी लिखा गया है, मैं मानकर चल रहा हूं हम जैसे लोगों के लिए ही कहा गया है। और मुझे ये मानने में कतई कोई हिचक नहीं है कि जातिवाद को लेकर मैंने कभी कोई रिसर्च नहीं की है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अगर इस मुद्दे पर मेरी अपनी कोई राय हो तो उसे रखना गुनाह है। अगर किसी को चोट लग जाए तो उसे कैसा महसूस होगा, ये जानने के लिए फ्रायड की थ्योरी पढ़ने की जरुरत नहीं पड़ती। ये लेख सिर्फ ये बताने के लिए कि ये दुनिया कम पढ़े -लिखे लोगों की भी उतनी ही है जितनी कि बुद्धिजीवियों की।
मोहल्ले पर जातिवाद को लेकर गरमा-गरम बहस हुई। जितने डेमोक्रेटिक तरीके से इसे बढ़ावा दिया गया, उतने ही एरिस्टोक्रेटिक तरीके से इसका पटाक्षेप कर दिया गया। कहा गया कि बिना होमवर्क के लोग जुबान लड़ाने लगते हैं। दबी जुबान में खिल्ली भी उड़ाई गई। साफ शब्दों में कहा गया कि अगर आपने जातिवाद पर कुछ संजीदा किताबें नहीं पढ़ी हैं। अगर आपने इस पर कोई रिसर्च नहीं किया है। अगर आप देश के अलग अलग हिस्सों में इस व्यवस्था के अलग-अलग रुपों से मुखातिब नहीं हुए हैं। अगर आप एक अरसे से इस मुद्दे पर लिख-पढ़ नहीं रहे हैं। अगर आप इस गंभीर मुद्दे पर अपडेटेड नहीं हैं। अगर आप की नजर उन सर्वे और रिपोर्टों पर नहीं पड़ती जहां इसकी बात होती है। और अगर आपकी सोहबत जाने-माने साहित्यकार, लेखक या समाजशास्त्रियों से नहीं है तो प्लीज... प्लीज..प्लीज.. इतने बड़े मुद्दे पर अपनी रायशुमारी करके इसे हल्का मत बनाइए। सारांश ये कि अगर आप इनके मानकों पर खुद को बुद्धिजीवी साबित नहीं कर सकते तो बेकार में अपनी फजीहत कराने का खतरा क्यों मोल लेते हैं।
बात करते हैं, जातिवाद के अलग-अलग आयामों की पड़ताल करने वाले इस बहस की। अगर किसी न्यूज चैनल का ये टॉक शो होता तो टीआरपी तो छप्पर फाड़ के आती। इस पूरी बहस में ताली पीटने से लेकर गाली-गलौज तक का पूरा मसाला था। लॉजिकल अप्रोच से लेकर सेंटीमेंटल रिएक्शन तक। आखिर क्या नहीं था इसमें..? एमएनसी के सनसनीखेज सर्वे से लेकर शादी डाट काम की प्रोग्रेसिव रिपोर्ट तक। शास्त्रों के संदर्भों से लेकर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के खामियाजे तक।
अब कुछ बुनियादी सवाल। आखिर हम क्या साबित करना चाहते थे। आखिर हम क्या साबित कर पाए...? अगर थोड़ा गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि दरअसल पूरे वाद–विवाद में ‘विवाद’ का तो पक्ष ही मौजूद नहीं था। हर आदमी घुमा फिराकर वही बात कर रहा था। लेकिन जबरन दो पक्ष बना दिए गए। ये एक तरह की टेक्निकल मजबूरी थी। इसे आप ‘रोलप्लेइंग’ के तौर पर भी देख सकते हैं। ऐसा नहीं होता तो आखिर तीखे बहस की जमीन कैसे तैयार होती। और बहस तीखी न हो तो मजा नहीं आता। न तो कोई ताली पीटता और न ही गरियाता। फिर लगता है जैसे बहस करने का कोई फायदा ही नहीं हुआ। लिहाजा बहस को गरम करने के लिए वादी–प्रतिवादी का होना जरुरी था।
खैर, दो पक्ष बना दिए गए लेकिन मजेदार बात ये थी कि दूसरे पक्ष ने कभी पहले पक्ष की बातों का विरोध नहीं किया। उस लहजे, उस भावना या उस उद्देश्य की मुखालफत कर संशोधन की बात रखी जिसकी बुनियाद पर मुद्दे ने जन्म लिया था। देखा जाए तो दूसरा पक्ष भी पहले पक्ष की बातों को संशोधित करके बोल रहा था। उसे तो दूसरा पक्ष महज इसलिए बना दिया गया क्योंकि मुद्दे का ‘नेचर’ ही कुछ ऐसा था जिसमें वो अपनी जाति विशेष के कारण ‘सूटेबल अपोनेंट’ नजर आता था। ये बात अलग है कि ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘जातिवादी’ ठहराए गए इस शख्स ने कभी इन तमाम वादों के पक्ष में कुछ भी नहीं कहा। बल्कि जब भी मौका मिला इसकी बेहद ऊंचे स्वर में मुखालफत की। इसके बाद भी उस पर यकीन नहीं किया गया तो गिड़गिड़ाया...”इसमें हमारी क्या गलती है कि मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुए।“ लेकिन दलितों और पिछड़ों की बात करने का ‘वीटो पावर’ रखने वालों को ये सब कुछ महज ‘एक्टिंग’ नजर आया। उसकी इस बेबसी में भी तथाकथित ‘जातिगत अहंकार’ ही नजर आया।
अगर कोई पूछे ऐसा क्यों हुआ। आखिर वजह क्या थी...? शायद, कुछ भी नहीं..। बस इतनी कि अगर ‘बट आब्वियस दूसरा पक्ष’ भी ‘पहले पक्ष’ में तब्दील हो जाएगा तो फिर मुद्दे (जातिवाद) का क्या होगा। आखिर उस वक्त की कीमत कैसे वसूली जाती जो इस मुद्दे को जिंदा रखने और मुखर बनाने की कवायद में जाया हुए। सैकड़ो किताबों, पचासों शहरों, कई सारे समाजों, तमाम सेमिनारों और एक से एक बड़े विद्वानों की सोहबत से मिला ज्ञान आखिर किस तरह इस्तेमाल में लाया जाता। खैर, इंटेशन जो कुछ भी रहा हो। लेकिन आखिर में जिस तरह के निष्कर्ष निकाले गए, उनमें चीजें निहायत ही एकतरफा दिखीं।
बेशक, मुद्दा उठाने वाले लोग काबिल लोग हैं। उनकी हां में हां मिलाने वाले लोग और भी काबिल हैं....। लेकिन, हमें ये समझना होगा कि भारत की ३५ फीसदी आबादी जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है...उसके लिए उसकी तकलीफें और उसके अपने अनुभव ही किताब हैं, सेमिनार हैं और उन्हीं की सोहबत में उसने सब कुछ सीखा है जो एक अच्छा इंसान होने के लिए जरुरी है। वो आप जैसे विद्वान नहीं हैं, ये देखकर आप उन्हें बोलने और आवाज उठाने के लिए नाकाबिल नहीं ठहरा सकते। बेशक, आपने डेमोक्रेसी पर कई सारी किताबें पढ़ी होंगी...लेकिन मतलब वो भी समझते हैं जिन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिलता।
आखिर में एक और बात। ताली बजाने वालों और शाबाशी देने वालों को अपना अक्श समझने की भूल मत करिएगा..। इनमें से बहुत से लोग हैं, जिन्होंने आपके लेख पर तारीफों के पुल बांधे और मुझे फोन करके कहा...मजा आ गया गुरु...! दरअसल समाज को किसी भी वाद से ज्यादा खतरा इस दोमुंहेपन से है। और ये दोमुंहापन किसी खास जाति के लोगों में नहीं पाया जाता...। बेशक, मुद्दे उठाइए...बहस करिए। सब कुछ ठीक है....लेकिन आपसे अलग राय रखने वाले भी बोल सकें.....ये गुंजाइश तो बरकरार रखिए....असल में यही डेमोक्रेसी है।
बात करते हैं, जातिवाद के अलग-अलग आयामों की पड़ताल करने वाले इस बहस की। अगर किसी न्यूज चैनल का ये टॉक शो होता तो टीआरपी तो छप्पर फाड़ के आती। इस पूरी बहस में ताली पीटने से लेकर गाली-गलौज तक का पूरा मसाला था। लॉजिकल अप्रोच से लेकर सेंटीमेंटल रिएक्शन तक। आखिर क्या नहीं था इसमें..? एमएनसी के सनसनीखेज सर्वे से लेकर शादी डाट काम की प्रोग्रेसिव रिपोर्ट तक। शास्त्रों के संदर्भों से लेकर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के खामियाजे तक।
अब कुछ बुनियादी सवाल। आखिर हम क्या साबित करना चाहते थे। आखिर हम क्या साबित कर पाए...? अगर थोड़ा गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि दरअसल पूरे वाद–विवाद में ‘विवाद’ का तो पक्ष ही मौजूद नहीं था। हर आदमी घुमा फिराकर वही बात कर रहा था। लेकिन जबरन दो पक्ष बना दिए गए। ये एक तरह की टेक्निकल मजबूरी थी। इसे आप ‘रोलप्लेइंग’ के तौर पर भी देख सकते हैं। ऐसा नहीं होता तो आखिर तीखे बहस की जमीन कैसे तैयार होती। और बहस तीखी न हो तो मजा नहीं आता। न तो कोई ताली पीटता और न ही गरियाता। फिर लगता है जैसे बहस करने का कोई फायदा ही नहीं हुआ। लिहाजा बहस को गरम करने के लिए वादी–प्रतिवादी का होना जरुरी था।
खैर, दो पक्ष बना दिए गए लेकिन मजेदार बात ये थी कि दूसरे पक्ष ने कभी पहले पक्ष की बातों का विरोध नहीं किया। उस लहजे, उस भावना या उस उद्देश्य की मुखालफत कर संशोधन की बात रखी जिसकी बुनियाद पर मुद्दे ने जन्म लिया था। देखा जाए तो दूसरा पक्ष भी पहले पक्ष की बातों को संशोधित करके बोल रहा था। उसे तो दूसरा पक्ष महज इसलिए बना दिया गया क्योंकि मुद्दे का ‘नेचर’ ही कुछ ऐसा था जिसमें वो अपनी जाति विशेष के कारण ‘सूटेबल अपोनेंट’ नजर आता था। ये बात अलग है कि ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘जातिवादी’ ठहराए गए इस शख्स ने कभी इन तमाम वादों के पक्ष में कुछ भी नहीं कहा। बल्कि जब भी मौका मिला इसकी बेहद ऊंचे स्वर में मुखालफत की। इसके बाद भी उस पर यकीन नहीं किया गया तो गिड़गिड़ाया...”इसमें हमारी क्या गलती है कि मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुए।“ लेकिन दलितों और पिछड़ों की बात करने का ‘वीटो पावर’ रखने वालों को ये सब कुछ महज ‘एक्टिंग’ नजर आया। उसकी इस बेबसी में भी तथाकथित ‘जातिगत अहंकार’ ही नजर आया।
अगर कोई पूछे ऐसा क्यों हुआ। आखिर वजह क्या थी...? शायद, कुछ भी नहीं..। बस इतनी कि अगर ‘बट आब्वियस दूसरा पक्ष’ भी ‘पहले पक्ष’ में तब्दील हो जाएगा तो फिर मुद्दे (जातिवाद) का क्या होगा। आखिर उस वक्त की कीमत कैसे वसूली जाती जो इस मुद्दे को जिंदा रखने और मुखर बनाने की कवायद में जाया हुए। सैकड़ो किताबों, पचासों शहरों, कई सारे समाजों, तमाम सेमिनारों और एक से एक बड़े विद्वानों की सोहबत से मिला ज्ञान आखिर किस तरह इस्तेमाल में लाया जाता। खैर, इंटेशन जो कुछ भी रहा हो। लेकिन आखिर में जिस तरह के निष्कर्ष निकाले गए, उनमें चीजें निहायत ही एकतरफा दिखीं।
बेशक, मुद्दा उठाने वाले लोग काबिल लोग हैं। उनकी हां में हां मिलाने वाले लोग और भी काबिल हैं....। लेकिन, हमें ये समझना होगा कि भारत की ३५ फीसदी आबादी जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है...उसके लिए उसकी तकलीफें और उसके अपने अनुभव ही किताब हैं, सेमिनार हैं और उन्हीं की सोहबत में उसने सब कुछ सीखा है जो एक अच्छा इंसान होने के लिए जरुरी है। वो आप जैसे विद्वान नहीं हैं, ये देखकर आप उन्हें बोलने और आवाज उठाने के लिए नाकाबिल नहीं ठहरा सकते। बेशक, आपने डेमोक्रेसी पर कई सारी किताबें पढ़ी होंगी...लेकिन मतलब वो भी समझते हैं जिन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिलता।
आखिर में एक और बात। ताली बजाने वालों और शाबाशी देने वालों को अपना अक्श समझने की भूल मत करिएगा..। इनमें से बहुत से लोग हैं, जिन्होंने आपके लेख पर तारीफों के पुल बांधे और मुझे फोन करके कहा...मजा आ गया गुरु...! दरअसल समाज को किसी भी वाद से ज्यादा खतरा इस दोमुंहेपन से है। और ये दोमुंहापन किसी खास जाति के लोगों में नहीं पाया जाता...। बेशक, मुद्दे उठाइए...बहस करिए। सब कुछ ठीक है....लेकिन आपसे अलग राय रखने वाले भी बोल सकें.....ये गुंजाइश तो बरकरार रखिए....असल में यही डेमोक्रेसी है।
4 comments:
विवेक भाई, मेरे लिखने में आपका संदर्भ नहीं था। आपके लेख को मैंने आपके ब्लॉग में कमेंट के तौर पर और मोहल्ला में अपने एक लेख के परिचय के तौर पर उपयोगी बताया था। कृपया देख लें। नेट तो पीछे-पीछे सबूत छोड़ता जाता है। वैसे मुझे उस बारे में कुछ साबित नहीं करना है।
नीयत को अक्सर नीति से ज्यादा महत्वपूर्ण बताया जाता है। और जाति पर लिखते समय मेरी नजर में एक समतामूलक, न्यायपूर्ण समाज के अलावा कुछ नहीं होता। वैसे इस बात को भी मैं साबित कैसे कर पाऊंगा।
इस मुद्दे पर जब नेट पर लिखना शुरू किया था तो एक मकसद ये भी था कि जाति पर चर्चा का प्रतिपक्ष सामने आए। एकांगी तरीके से सोचने के खतरे से बचना चाहता हूं। लेकिन जाति व्यवस्था को डिफेंड करने कोई सलीके से तो क्या बिना सलीके से भी नहीं आया। इतना सा अफसोस है। जाति ने एक खास कालखंड में कोई सकारात्मक भूमिका निभाई है, ये बोलने वाले भी नहीं मिले।
अगर मैंने आपको कोई कड़वाहट दी है तो वो आप मुझे लौटा दें।
दिलीप जी,मैंने कतई ये लेख गुस्से में नहीं लिखा है। जिन बातों से मैं सहमत नहीं था, महज उस पर अपना विरोध दर्ज कराया है। अगर आपने देखा हो तो कई बार जेन्युइन बातों को लोग अपनी सामाजिक कद- काठी और पहचान से दबा जाते हैं। पिछले छह सालों से दिल्ली में हूं। कभी वक्त मिला तो आपको बताउंगा कि खुद को इंटलेक्चुअल समझने वाले तमाम बड़े नामों को मैंने कितना नीचे गिरते हुए देखा है। उनका असली चेहरा मेरे लिए एक झटका था। जाति का ब्राह्मण हूं लेकिन जब दिल्ली में नौकरी मांगने चला तो ये बात मेरे खिलाफ गई। बेहद सामान्य परिवार से हूं। इसलिए नौकरी पाने और इसे बचाए रखने के चक्कर में बहुत दिनों तक सब कुछ बर्दाश्त करता रहा। लेकिन जब मुझे लगने लगा कि मेरा ये डर मुझे मार डालेगा तो बोलना शुरु किया है। मुझे अच्छी तरह पता है कि लोग अपनी बात रखने की सहज प्रतिक्रिया को भी जुबान लड़ाना समझते हैं। और अपनी बात कहने के चक्कर में बहुत कम समय में मैंने जाने अनजाने कई विरोधी तैयार कर लिए हैं। पर क्या करुं, इस बात ने बेहद आहत किया है कि हमेशा सच और ईमानदारी की बात करने वाले मेरे बाबूजी भी कांप्रोमाइजेज की बात करने लगे हैं। उन्हें डर लगने लगा है कि उन्होंने जो सच्चाई और ईमानदारी वाले संस्कार मुझे दिए वो मेरी जिंदगी में रोड़ा बनकर न खड़े हो जाएं। एक अंग्रेजीदां बॉस हमें गाली देकर बात करता है। उसके आगे पीछे घूमने वाले लोग जिन्हें न तो पत्रकारिता की कोई तमीज है और न ही वो अच्छे इंसान हैं आउट आफ द वे प्रमोशंस पाते हैं। और अगर आपको ये सब कुछ करने नहीं आता तो आपके लिए अपनी नौकरी बचाना भी एक बड़ा चैलेंज है। ये बेहद निजी अनुभव हैं। और आप भी जानते हैं कि माहौल कितना गंदा है। मेरे पास एक आदमी ऐसा नहीं है जो नौकरी चली जाए तो मुझे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का ही मौका दिला सके कि मैं अपनी काबिलियत से नौकरी हासिल कर सकूं। जातिवाद और अवसरवाद मेरे लिए बेहद कड़वे अनुभव हैं इसलिए जब कोई मुझे महज इसलिए जातिवादी घोषित कर देता है कि मैं ब्राह्मण हूं तो बहुत बुरा लगता है। और पता नहीं क्यों अब डर डर के जीने का मन नहीं करता। मेरा लहजा बहुत ही कड़ा हो सकता है, लेकिन मेरा मकसद सिर्फ ये है कि लोगों की तकलीफें समझी जाएं....चीजों को गलत तरीके से इंटरप्रेट करना, हम जैसे लोगों के साथ नाइंसाफी है। अगर मेरे शब्दों से आप आहत हुए हों तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं, क्योंकि मेरा विरोध किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है.. उस विचारधारा के खिलाफ है जिससे डरते हुए लोगों की अच्छाईयां दम तोड़ रही हैं।
Bhai vivek Maan gaye ! kitni safaai se apani baaten rakhi. Dirghaayu ho ! Ek badhiya tarika hai apne suvichar apane blog par hi rakhen jaaye aur ye tamam budhijivi ke shakl me ghoom rahe madaari jo har insan ko bandar se jyada nahi samajhata. enke blog par comments maarna band kar diya jaay to line me aa jayenge. Dipti jee, Deepa Pathak,Anil Dubey, koi Pandey jee hai en logon ne sur me sur milaaye rakha bahut hi taklif deh isthiti bana deta hai murkhon ka muhalla.
tyag dijiye ham bharat wasi muhalle me kyon jaaye.hame bharat sambhalana hai. kyonki ham brahmin hain. savarn hain.
Bolti band jabab se hui hogi par comment na aane ka bhi kam sam yogdaan nahi raha. Bina comments ke blog jyada din jivit thode na rahta hai.zahar ugalne wala blog band hi ho to jyada sundar .
jisako neta banna ho , Gaali sunana ho wo jaaye wahan. kam se kam swarno ko to jana nahi chahiye.
विवेक जी,
आपने बातें जिस सरलता से रखी है, आपका जबाब नहीं.
आज जाती का अर्थ भी बदला है - अब जाति ब्रह्मण, ठाकुर, चमार, सुनार नही होके - अंग्रेज़ी बोलने वाले, बिहारी, पुरवैया, बंगाली हो चले हैं. चीज़ें बदल रही है - थोड़ा समय और आप जैसे लोग मांगती है.... थोड़ा थोड़ा देंगे तो कल नया होगा.... आज से.
Post a Comment