- विवेक सत्य मित्रम्
(मोहल्ला www.mohalla.blogspot.com पर दिलीप मंडल जी का लेख पढ़ने के बाद मन में जो कुछ आया वो इस पन्ने पर उतर गया। मुझे भी समाज में आ रहे बदलाव अच्छे लगते हैं। ये भी अच्छा लगता है कि जाति के आधार पर कर्म के बंटवारे की अमानवीय रुढ़ियां टूट रही हैं। लेकिन इस बदलाव को हाइलाइट करने के पीछे विद्वेष की भावना मुझे अच्छी नहीं लगती। ये जानते समझते हुए भी मैं अपनी बात कह रहा हूं कि ये लेख मेरे लिए बेहद खतरनाक भी साबित हो सकता है। कुछ लोग मुझे ब्राह्मणवादी भी घोषित कर सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सिक्के के दोनों पहलू सामने आने चाहिए। अगर आप मेरे बारे में पूर्वाग्रह बनाते हैं तो मेरे साथ अन्याय होगा। दरअसल ये उन लोगों की बात है जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते।)
तिलक, तराजू और तलवार...इनको मारो जूते चार। वक्त बदला, सियासी समीकरण बदले और फिर देखते ही देखते नारे भी बदल गए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि जूते मारने की ये परंपरा नहीं बदली। बस हाथ बदल गए हैं, लंबे समय तक ब्राह्मणों ने इस शानदार काम को जिम्मेदार ढ़ंग से अंजाम दिया और अब दलित और पिछड़े वर्ग के कुछ झंडाबरदार कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनके सामने दो जून की रोटी और सामाजिक पहचान का अब कोई संकट नहीं बचा।
दलित और पिछड़े तबके के अधिकारों की वकालत करने वाले इन बुद्धिजीवियों को समाज में आए बदलाव इसलिए उत्साहित नहीं करते क्योंकि उससे सोसाइटी में इंसानियत की जड़ें मजबूत होती दिखाई पड़ती हैं। बल्कि उन्हें इस बात से कहीं न कहीं मजा आता है कि देखो सालों ! ( ब्राह्मणों ) की क्या हालत हो गई है। अपने पुरखों के अपमान से छलनी मन अनजाने में ही सही लेकिन मंत्र मुग्ध हो उठता है और अपनी ही अंतरात्मा से एक प्रतिध्वनि आती है, “ अब इन्हें पता चलेगा कि किसी और की लैटरिंग साफ करने में कितना आनंद आता है। ”
यूपी इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि आम आदमी अब अच्छी जिंदगी चाहता है। सुशासन चाहता है। उसे इस बात की परवाह नहीं है कि उसका नेता एक दलित है या ब्राह्मण। जाति और धर्म की विभाजक रेखाएं धुंधली पड़ती जा रही हैं। हो सकता है कि सियासत की बिसात पर ये वजहें बेहद तात्कालिक नजर आएं लेकिन ये सब कुछ कहीं न कहीं बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है। ऐसे में देश, दुनिया और समाज में मानवीय बदलावों के पैरोकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, चाहे वो किसी भी जाति, धर्म या समुदाय विशेष के क्यों न हों।
हमारे मुल्क में किसी जमाने में अंग्रेजों की हूकूमत थी। उन्होंने हमें सालों गुलाम बनाकर रखा। हम पर बहुत अत्याचार किया। लेकिन आज हम आजाद हैं। हम अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीते हैं। लेकिन जो कुछ भी उन्होंने हमारे साथ किया, क्या उसे याद रखते हुए हम आज के अंग्रेजों से अपने रिश्ते तय करेंगे। क्या हम उनकी पीढ़ियों को इस बात के लिए कोसते रहेंगे कि उनके पुरखों ने हमारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया? आज की तारीख में अगर अंग्रेजों पर भी ठीक उसी तरह का जुल्म हो तो क्या ऐसा हो सकता है कि हम उसका विश्लेषण कुछ इस तरह से करेंगे जिससे हमारे नजरिए से बदले की भावना की दुर्गंध आए..?
लैटरिंग साफ करना ठीक उसी तरह एक काम है जैसे कि कपड़े साफ करना। हकीकत ये है कि एक निश्चित देश काल परिस्थिति में ब्राह्मणों ने एक खास जाति को नीचा दिखाने की साजिश की तहत लगातार ये काम (मैला साफ करने) करने को मजबूर किया। तत्कालीन हालात में वो खास जाति कमजोर थी। उसकी आर्थिक या सामाजिक स्थितियां ठीक नहीं थीं। कानूनी तौर पर उसे कोई अधिकार नहीं मिला था। शायद यही सारी वजहें रहीं कि वो खास जाति इस अन्याय का विरोध नहीं कर पाई और इस काम को उसकी पहचान का हिस्सा बना दिया गया। इस तरह से एक घटिया किस्म की विचारधारा (ब्राह्मणवाद) ने समाज में एक अमानवीय व्यवस्था को जन्म दिया। और ब्राह्मण वर्ग के तमाम पढ़े लिखे और खुले दिमाग के लोग इसे स्वीकार करने से पीछे नहीं हटते।
आज भी कोई भी शख्स चाहे वो पांडे जी, मिश्रा जी, तिवारी जी या यादव जी हो.. तब तक किसी और की लैटरिंग साफ नहीं करेगा जब तक कि उसके सामने निवाले का संकट न खड़ा हो गया हो। खास कर उस तबके के लोग तो कतई नहीं करेंगे जिनको बचपन से ही समाज में श्रेष्ठ होने का बेहूदा बोध कराया जाता रहा हो। ऐसे उदाहरण हमारे आस-पास सामने आते हैं तो ये सामाजिक बदलाव का महज एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू ये है कि समाज में तमाम पिछड़ी और दलित जातियों के आक्रोश की शिकार ब्राह्मण जाति में भी एक बड़ी आबादी के सामने भूखे मरने तक की नौबत आ चुकी है। ये वो जाति है जिसने अपनी झूठी शान बचाए रखने के लिए कभी खेत खलिहान में मेहनत नहीं की। और आबादी बढ़ने के साथ साथ होने वाले बंटवारों ने इस जाति के एक बड़े तबके को उस हालत में पहुंचा दिया है जहां वे पिछड़ी और दलित जाति की एक आबादी से भी बुरी हालत में पहुंच चुका है। इनकी तकलीफों को महसूस करने के बजाए सामाजिक बदलाव के विश्लेषण के नाम पर इनका मजाक उड़ाना कहां की इंसानियत है?
अगर आप थोड़ी जहमत उठाकर कुछ और सर्वेक्षण करेंगे तो आपको पता चलेगा कि अपार्टमेंट और आफिस के गेट पर खड़े गार्ड्स, ठेले पर सब्जी बेचने वाले और कारखानों में मजदूरी करने वालों या रिक्शा खींचने वालों में भी बड़ी आबादी ब्राह्मणों या सवर्णों की है। लेकिन हूजूर, अगर हमारे- आपके भीतर थोड़ी भी इंसानियत बाकी है तो हमें बदलते समाज की तस्वीर को अलग-अलग चश्मों से देखना होगा।
किसी पिछड़े या दलित परिवार में पैदा होने के साथ ही ब्राह्मण को देखने वाला नफरत का जो चश्मा हमारी आंखों पर लग गया था,उसे उतारकर एक उदार चश्मा लगाने की जरुरत है। नहीं तो हम भी वही करेंगे, जो घटिया मानसिकता के शिकार ब्राह्मणों ने लंबे समय तक किया। अगर ठीक से पड़ताल की जाए तो आप पाएंगे कि ब्राह्मण अब कोई जाति नहीं रही, ये तो एक विचारधारा बन गई है।
ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा जिसे हम आप जाने अनजाने पुष्पित पल्लवित करते रहते हैं। चीजों को हवा-हवाई ढ़ंग से कहने की बजाए जमीनी स्तर पर देखना ज्यादा जरुरी है। आपको परेशानी इसी बात से है न कि ब्राह्मणों या सवर्णों ने छद्म श्रेष्ठता के बल पर समाज को बांटकर रख दिया और तमाम दूसरी जातियों को नीचा दिखाया। लेकिन ये काम तो आज सभी जाति के लोग कर रहे हैं। और तो और दलितों में भी कई जातियां हैं जो ये कहते हुए किसी खास जाति में विवाह करने से इनकार कर देती है कि वो उनसे निकृष्ट हैं। एक खास जाति के लोग अपनी ही जाति के दूसरे तबके के लोगों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते। मैं दलित और पिछड़े तबके के बहुत से आला अफसरों को जानता हूं जो दौलत और शोहरत मिलने के बाद अपनी ही जाति के लोगों के साथ कायदे से पेश नहीं आते। ऐसे में ब्राह्मण को नीचा दिखाने की दलित इच्छा को पूरा करने से अच्छा है कि हम समाज में बुनियादी बदलावों के लिए कोशिश करें।
सभी जानते हैं कि सियासत ने भारतीय समाज को कई छोटे-छोटे हिस्सों में बांट रखा है। हर पार्टी जातिगत आधारों पर अपने उम्मीदवारों का चुनाव करती है। जाति के आधार पर ही सरकार में सीटों की हिस्सेदारी तय होती है। इस तरह देश को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाले सियासी लोगों ने डिवाइड एंड रुल की पालिसी के तहत जनता को पहले से ही बुरी तरह बांट रखा है। ऐसी हालत में अगर हम और आप जैसे तमाम लोग (जिन्होंने सामाजिक बदलाव का ठेका लिया है) अपने पूर्वाग्रहों और तकलीफों को भुलाकर समाज को जोड़ने के लिए काम नहीं करेंगे तो आखिर कौन करेगा? अगर हम दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिलाने की मुहिम में साथ हो सकते हैं तो गरीब सवर्णों को आरक्षण और तमाम दूसरी सहूलियतें देने के मुद्दे पर अलग-अलग क्यों रहें?
वक्त बदल रहा है। समाज बदल रहा है। एक एक कर रुढ़ियां टूट रही हैं। गलत परंपराओं की बलि चढ़ाई जा रही है। समाज विकास की ओर बढ़ना चाहता है। हम पहले से भी कहीं बेहतर इंसान बनने में लगे हैं। ऐसे में बार- बार जाति, धर्म या समाज विशेष में आए बदलावों को बड़े फलक पर देखने की बजाए चटकारे लेकर विश्लेषण करने से हाशिए पर जीने वालों को कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि ये तो आप भी जानते हैं कि ब्राह्मण तो एक धूर्त जाति है, वो तो अपने वजूद के लिए कुछ भी कर सकती है। वैसे भी आप देख ही रहे हैं कि जब सवाल पेट का उठा तो दुबे जी और पांडे जी को लैटरिंग की तंदूर पर सिकीं रोटियों से भी कोई परहेज नहीं है....।
(मोहल्ला www.mohalla.blogspot.com पर दिलीप मंडल जी का लेख पढ़ने के बाद मन में जो कुछ आया वो इस पन्ने पर उतर गया। मुझे भी समाज में आ रहे बदलाव अच्छे लगते हैं। ये भी अच्छा लगता है कि जाति के आधार पर कर्म के बंटवारे की अमानवीय रुढ़ियां टूट रही हैं। लेकिन इस बदलाव को हाइलाइट करने के पीछे विद्वेष की भावना मुझे अच्छी नहीं लगती। ये जानते समझते हुए भी मैं अपनी बात कह रहा हूं कि ये लेख मेरे लिए बेहद खतरनाक भी साबित हो सकता है। कुछ लोग मुझे ब्राह्मणवादी भी घोषित कर सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सिक्के के दोनों पहलू सामने आने चाहिए। अगर आप मेरे बारे में पूर्वाग्रह बनाते हैं तो मेरे साथ अन्याय होगा। दरअसल ये उन लोगों की बात है जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते।)
तिलक, तराजू और तलवार...इनको मारो जूते चार। वक्त बदला, सियासी समीकरण बदले और फिर देखते ही देखते नारे भी बदल गए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि जूते मारने की ये परंपरा नहीं बदली। बस हाथ बदल गए हैं, लंबे समय तक ब्राह्मणों ने इस शानदार काम को जिम्मेदार ढ़ंग से अंजाम दिया और अब दलित और पिछड़े वर्ग के कुछ झंडाबरदार कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनके सामने दो जून की रोटी और सामाजिक पहचान का अब कोई संकट नहीं बचा।
दलित और पिछड़े तबके के अधिकारों की वकालत करने वाले इन बुद्धिजीवियों को समाज में आए बदलाव इसलिए उत्साहित नहीं करते क्योंकि उससे सोसाइटी में इंसानियत की जड़ें मजबूत होती दिखाई पड़ती हैं। बल्कि उन्हें इस बात से कहीं न कहीं मजा आता है कि देखो सालों ! ( ब्राह्मणों ) की क्या हालत हो गई है। अपने पुरखों के अपमान से छलनी मन अनजाने में ही सही लेकिन मंत्र मुग्ध हो उठता है और अपनी ही अंतरात्मा से एक प्रतिध्वनि आती है, “ अब इन्हें पता चलेगा कि किसी और की लैटरिंग साफ करने में कितना आनंद आता है। ”
यूपी इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि आम आदमी अब अच्छी जिंदगी चाहता है। सुशासन चाहता है। उसे इस बात की परवाह नहीं है कि उसका नेता एक दलित है या ब्राह्मण। जाति और धर्म की विभाजक रेखाएं धुंधली पड़ती जा रही हैं। हो सकता है कि सियासत की बिसात पर ये वजहें बेहद तात्कालिक नजर आएं लेकिन ये सब कुछ कहीं न कहीं बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है। ऐसे में देश, दुनिया और समाज में मानवीय बदलावों के पैरोकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, चाहे वो किसी भी जाति, धर्म या समुदाय विशेष के क्यों न हों।
हमारे मुल्क में किसी जमाने में अंग्रेजों की हूकूमत थी। उन्होंने हमें सालों गुलाम बनाकर रखा। हम पर बहुत अत्याचार किया। लेकिन आज हम आजाद हैं। हम अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीते हैं। लेकिन जो कुछ भी उन्होंने हमारे साथ किया, क्या उसे याद रखते हुए हम आज के अंग्रेजों से अपने रिश्ते तय करेंगे। क्या हम उनकी पीढ़ियों को इस बात के लिए कोसते रहेंगे कि उनके पुरखों ने हमारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया? आज की तारीख में अगर अंग्रेजों पर भी ठीक उसी तरह का जुल्म हो तो क्या ऐसा हो सकता है कि हम उसका विश्लेषण कुछ इस तरह से करेंगे जिससे हमारे नजरिए से बदले की भावना की दुर्गंध आए..?
लैटरिंग साफ करना ठीक उसी तरह एक काम है जैसे कि कपड़े साफ करना। हकीकत ये है कि एक निश्चित देश काल परिस्थिति में ब्राह्मणों ने एक खास जाति को नीचा दिखाने की साजिश की तहत लगातार ये काम (मैला साफ करने) करने को मजबूर किया। तत्कालीन हालात में वो खास जाति कमजोर थी। उसकी आर्थिक या सामाजिक स्थितियां ठीक नहीं थीं। कानूनी तौर पर उसे कोई अधिकार नहीं मिला था। शायद यही सारी वजहें रहीं कि वो खास जाति इस अन्याय का विरोध नहीं कर पाई और इस काम को उसकी पहचान का हिस्सा बना दिया गया। इस तरह से एक घटिया किस्म की विचारधारा (ब्राह्मणवाद) ने समाज में एक अमानवीय व्यवस्था को जन्म दिया। और ब्राह्मण वर्ग के तमाम पढ़े लिखे और खुले दिमाग के लोग इसे स्वीकार करने से पीछे नहीं हटते।
आज भी कोई भी शख्स चाहे वो पांडे जी, मिश्रा जी, तिवारी जी या यादव जी हो.. तब तक किसी और की लैटरिंग साफ नहीं करेगा जब तक कि उसके सामने निवाले का संकट न खड़ा हो गया हो। खास कर उस तबके के लोग तो कतई नहीं करेंगे जिनको बचपन से ही समाज में श्रेष्ठ होने का बेहूदा बोध कराया जाता रहा हो। ऐसे उदाहरण हमारे आस-पास सामने आते हैं तो ये सामाजिक बदलाव का महज एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू ये है कि समाज में तमाम पिछड़ी और दलित जातियों के आक्रोश की शिकार ब्राह्मण जाति में भी एक बड़ी आबादी के सामने भूखे मरने तक की नौबत आ चुकी है। ये वो जाति है जिसने अपनी झूठी शान बचाए रखने के लिए कभी खेत खलिहान में मेहनत नहीं की। और आबादी बढ़ने के साथ साथ होने वाले बंटवारों ने इस जाति के एक बड़े तबके को उस हालत में पहुंचा दिया है जहां वे पिछड़ी और दलित जाति की एक आबादी से भी बुरी हालत में पहुंच चुका है। इनकी तकलीफों को महसूस करने के बजाए सामाजिक बदलाव के विश्लेषण के नाम पर इनका मजाक उड़ाना कहां की इंसानियत है?
अगर आप थोड़ी जहमत उठाकर कुछ और सर्वेक्षण करेंगे तो आपको पता चलेगा कि अपार्टमेंट और आफिस के गेट पर खड़े गार्ड्स, ठेले पर सब्जी बेचने वाले और कारखानों में मजदूरी करने वालों या रिक्शा खींचने वालों में भी बड़ी आबादी ब्राह्मणों या सवर्णों की है। लेकिन हूजूर, अगर हमारे- आपके भीतर थोड़ी भी इंसानियत बाकी है तो हमें बदलते समाज की तस्वीर को अलग-अलग चश्मों से देखना होगा।
किसी पिछड़े या दलित परिवार में पैदा होने के साथ ही ब्राह्मण को देखने वाला नफरत का जो चश्मा हमारी आंखों पर लग गया था,उसे उतारकर एक उदार चश्मा लगाने की जरुरत है। नहीं तो हम भी वही करेंगे, जो घटिया मानसिकता के शिकार ब्राह्मणों ने लंबे समय तक किया। अगर ठीक से पड़ताल की जाए तो आप पाएंगे कि ब्राह्मण अब कोई जाति नहीं रही, ये तो एक विचारधारा बन गई है।
ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा जिसे हम आप जाने अनजाने पुष्पित पल्लवित करते रहते हैं। चीजों को हवा-हवाई ढ़ंग से कहने की बजाए जमीनी स्तर पर देखना ज्यादा जरुरी है। आपको परेशानी इसी बात से है न कि ब्राह्मणों या सवर्णों ने छद्म श्रेष्ठता के बल पर समाज को बांटकर रख दिया और तमाम दूसरी जातियों को नीचा दिखाया। लेकिन ये काम तो आज सभी जाति के लोग कर रहे हैं। और तो और दलितों में भी कई जातियां हैं जो ये कहते हुए किसी खास जाति में विवाह करने से इनकार कर देती है कि वो उनसे निकृष्ट हैं। एक खास जाति के लोग अपनी ही जाति के दूसरे तबके के लोगों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते। मैं दलित और पिछड़े तबके के बहुत से आला अफसरों को जानता हूं जो दौलत और शोहरत मिलने के बाद अपनी ही जाति के लोगों के साथ कायदे से पेश नहीं आते। ऐसे में ब्राह्मण को नीचा दिखाने की दलित इच्छा को पूरा करने से अच्छा है कि हम समाज में बुनियादी बदलावों के लिए कोशिश करें।
सभी जानते हैं कि सियासत ने भारतीय समाज को कई छोटे-छोटे हिस्सों में बांट रखा है। हर पार्टी जातिगत आधारों पर अपने उम्मीदवारों का चुनाव करती है। जाति के आधार पर ही सरकार में सीटों की हिस्सेदारी तय होती है। इस तरह देश को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाले सियासी लोगों ने डिवाइड एंड रुल की पालिसी के तहत जनता को पहले से ही बुरी तरह बांट रखा है। ऐसी हालत में अगर हम और आप जैसे तमाम लोग (जिन्होंने सामाजिक बदलाव का ठेका लिया है) अपने पूर्वाग्रहों और तकलीफों को भुलाकर समाज को जोड़ने के लिए काम नहीं करेंगे तो आखिर कौन करेगा? अगर हम दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिलाने की मुहिम में साथ हो सकते हैं तो गरीब सवर्णों को आरक्षण और तमाम दूसरी सहूलियतें देने के मुद्दे पर अलग-अलग क्यों रहें?
वक्त बदल रहा है। समाज बदल रहा है। एक एक कर रुढ़ियां टूट रही हैं। गलत परंपराओं की बलि चढ़ाई जा रही है। समाज विकास की ओर बढ़ना चाहता है। हम पहले से भी कहीं बेहतर इंसान बनने में लगे हैं। ऐसे में बार- बार जाति, धर्म या समाज विशेष में आए बदलावों को बड़े फलक पर देखने की बजाए चटकारे लेकर विश्लेषण करने से हाशिए पर जीने वालों को कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि ये तो आप भी जानते हैं कि ब्राह्मण तो एक धूर्त जाति है, वो तो अपने वजूद के लिए कुछ भी कर सकती है। वैसे भी आप देख ही रहे हैं कि जब सवाल पेट का उठा तो दुबे जी और पांडे जी को लैटरिंग की तंदूर पर सिकीं रोटियों से भी कोई परहेज नहीं है....।
5 comments:
आपके लेख ने मुझे सोचने का एक और नजरिया दिया है विवेक। धन्यवाद। कई बार हम कोलाज के एक हिस्से को पूरी तस्वीर मान लेते हैं। गलत करते हैं। और कोई बात कहने में जो खतरा होता है वो उठाने में कोई बुराई नहीं है। अभिव्यक्ति के खतरे न उठाए जाएं तो देश में सब तरफ चारण ही चारण नजर आएंगे। ऐसे में सत्य के मित्र विवेक को हम कहां ढूंढेंगे?
आपने जो कहा वह भी ठीक है । समय की आवश्यकता यह है कि सब भेदभाव भुला केवल मनुष्य बने रहें । जीवन वैसे ही बहुत कठिन है उसे और कठिन बनाने से कोई लाभ नहीं ।
घुघूती बासूती
अगर आप आम आदमी की तरफ से पूछें तो जातिवाद कब का विदा हो चुका है. वह सिर्फ शांति और सुशासन चाहता है. अभी जो भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अत्याचार और जाति-धर्म के नाम लकीरें बचीं हैं वह केवल कुछ दुष्ट राजनेताओं की साजिश का नतीजा है. समाज से ये चीजें लगभग बाहर हो चुकी हैं और सच तो यह है की ये कब की पूरी तरह बाहर हो चुकी होतीं अगर राजनेता इन्हें जब-तब हवा न देते रहते. ये हवा इन्हें सिर्फ इसलिए दे रहे हैं ताकि इनके अपने स्वार्थ साधते रहें और आम जनता सोई रहे.
चाहें तो इन परतों को खोलती यह पोस्ट देख सकते हैं:
http://iyatta.blogspot.com/2007/06/blog-post.html
जातिवाद को दरकिनार करते हुए मनुष्यता के नजरिए से समाज को देखा जाना बेहद जरूरी है। समाज में जो भी दबे कुचले लोग हैं, उनके आगे लाने के प्रयास किए जाने चाहिए। न कि ये देखकर कि पहले फलाने आदमी का वषोॆं से शोषण हुआ है। तो इसे आगे लाना चाहिए। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि जो भी आथिॆक रूप से कमजोर हो। उसे आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक, आथिॆक अौर राजनैतिक स्तर पर कदम उठाए जाने चाहिए। चाहे वो ब्राह्मण हो, राजपूत हो, दलित या वैश्य।
विवेक. बहुत जबरदस्त विश्लेषण किया है। लेकिन, ये वर्ड वेरीफिकेशन हटा दो तो, टिप्पणी करने वालों को सहूलियत होगी।
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