Sunday, December 30, 2007
Tuesday, December 25, 2007
वो वीरान बगीचे, बेरंग तितलियाँ।।
न जाने आज फिर क्यों याद आए।
वो खाली रस्ते, वो सूनी गलियाँ।।"
गाँव में दादी रहती है जो अब काफ़ी बूढ़ी हो गई है। लगभग सत्तर पार। बाबा के गुज़र जाने के बाद उस हवेलीनुमा घर में पता नहीं अकेले कैसे अपना समय गुज़ार रही है। कहने को तो बुढिया को ईश्वर ने दो बेटे, तीन बेटियाँ और लगभग दर्जन भर नाती-पोते दिए है। लेकिन फिर भी वो उस चाँद के मानिंद ही तनहा है। माँ कहती है कि दादी का पटना में मन नहीं लगता है। उसे गांव ही रास आता है। साल में एक-दो बार पेंशन लेने पटना आती है और पैसा मिलते ही फिर उसे कुल देवता याद आने लगते हैं। कहती है नौकर-चाकर के भरोसे देवता को नहीं छोड़ा जा सकता है। पता नहीं साँझ भी दिखाते होंगे कि नहीं! दरवाजे पर लालटेन भी जलाते होंगे कि नहीं! पता नहीं कैसे हमारी दादियाँ-नानियाँ अकेले गाँवों में अपना जीवन बिता रही हैं।
मेरे गाँव में अब जवान नहीं रहते। गाँव तो बूढ़े-बूढ़ियों के लिए है। खाली आँखें, विरान दिल और थके बदन वाले बूढ़े। समय के सापेक्ष गाँव के कई बूढ़े मर गए, कई जवान बूढ़े हो गए। लेकिन पता नहीं गाँव का कोई बच्चा वहाँ जवान क्यों नहीं हुआ। पढ़े लिखे जवान दिल्ली-मुंबई आ गए है और जिन्हें पढ़ने का मौका नहीं मिला वो पंजाब-हरियाणा या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में अपना पसीना बहा रहे हैं। शायद आठ-दस साल बाद मेरा गाँव सुनसान हो जाए। अब बूढ़े ही बूढ़ों को कंधा भी देने लगे हैं। पहले गाँव के जवान बच्चे होली, दशहरा या फिर आम के मौसम में गाँव जाते थे। अब शहरों में ही लोहड़ी, वेलेंटाईन डे या न्यू ईयर मना कर खुश हो लेते हैं। गाँव के आम-लीची भी अब लंबी सफ़र तय कर अमरीका-यूरोप जाने लगे हैं। आम अब खाने में अच्छा भी नहीं लगता है। चॉकलेट, पेस्ट्री, पिज़्जा दिल को रास आ गया है। बचपन की क़िताबों में गाँव में बसने वाला भारत अब इंडिया बन शहरों में रहने लगा है। वहीं जन्म लेता है, जवान होता है और फिर वहीं मर भी जाता है। यह कहानी सिर्फ़ मेरे गाँव की नहीं है। कमोबेश यही हालत राही मासूम रज़ा के गंगौली, नागार्जुन के तरौनी या फिर श्रीलाल शुक्ल के शिवपालगंज की भी है।
Sunday, December 23, 2007
क्या हम वाकई कुकुरमुत्ता जेनरेशन हैं ?
बहुत दिनों बाद अपने गाँव गया था। ज़मानिया तहसील पर महफिल जमी थी। बाबूजी के एक करीबी मित्र ने एक बार फिर वही राग अलापा जो वो पिछले कई सालों से अलापते आ रहे हैं। बेहद जोरदार तरीके से कहा कि आज कि जेनरेशन ' कुकुरमुत्ता जेनरेशन ' है। इसके बाद करीब दस मिनट तक युवा पीढ़ी को गरियाने का कार्यक्रम चला। लेकिन जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गयी। मुझे लगने लगा कि दरअसल ये सीधे तौर पर मुझे गली दी जा रही है तो मैंने अपने तेवर में कहा कि महाशय ये जेनरेशन आपकी जेनरेशन से कहीं ज्यादा प्रोग्रेसिव, लिबरल, ट्रांस्परेंट और काबिल है। ये आपकी जेनरेशन से कम से कम सौ गुना बेहतर है। बात आयी गयी हो गयी, लेकिन कुकुरमुत्ता शब्द रह रह कर जेहन में आ जाता है और मैं सोच में पद जाता हूँ कि कहीं मैंने महज जवाब देने के लिए तो भरी भरकम बातें नहीं कर दीं..क्या मेरी जेनरेशन वाकई कुकुरमुत्ते कि तरह कमज़ोर है..कुछ भी ठोस ढंग से कहना मुश्किल लग रह है....खैर, ये बात इसलिए लिख दी कि समझ नहीं पा रहा हूँ कि आख़िर एक पीढ़ी जिसके कन्धों ने हमारा बोझ उठाया है..उसे हमें कुकुरमुत्ता कहने में कोई तकलीफ क्यों नहीं होती....? सवाल गंभीर है।
Saturday, December 22, 2007
मदद की गुहार करती महाकाली गुफा
शहर के उपनगर अँधेरी पूर्व से करीब दो किलोमीटर दूर है महाकाली वही गुफा है जिसने संघर्ष के दिनों में विश्व विख्यात लेखक और गीतकार जावेद अख्तर को जगह दी थी। कई रात अख्तर साहब ने यहीं बिताई है। लेकिन अब स्थिति थोड़ी बदल गई है। यह गुफा इन दिनों स्थानीय वाशिंदों से परेशान है । गुफा के छत पर स्थानीय लोग धूप सेंकते मिल जाएं या पतंग उड़ाते तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। गुफा के अंदर लोग बीड़ी सिगरेट के साथ दारु पीते दिख सकते हैं। यहां पर सुरक्षा के नाम पर कुछ भी इंतजाम नहीं है।
महाकाली गुफा के इतिहास की बात करें तो करीब यह दो हजार साल पुरानी बौद्व गुफा है। महाकाली गुफा के बीचोबीच एक शिव मन्दिर है। यहाँ एक विशाल शिवलिंग हैं। लम्बाई करीब आठ फीट। लोगों का कहना है कि शिवलिंग पर सिक्का चिपकाने से मनोकामना पूरी हो जाती है। मन्दिर के परिसर की दीवार पर कुछ देवी देवता के चित्र बने हुए हैं। मन्दिर के दोनों और कई कमरे हैं, शायद रहने के लिए कोई धर्मशाला होगी। गुफा के नीचे पानी का भंडार है लेकिन लाख कोशिश के बाद भी पानी का स्त्रोत नहीं मिल पाया हमें। मन्दिर के बाहर एक दीवार पर एक नाग का बड़ा सा चित्र गुफा की दीवार पर है।
यह खबर यहां भी पढ़ी जा सकती है
Monday, December 17, 2007
चमचागिरी के स्कूल का शिलान्यास !
पहले अध्याय में आपने पढ़ा था कि मैंने रिटायरमेंट के बाद स्कूल खोलने का फैसला किया है। ये स्कूल चमचागिरी का पहला स्कूल होगा। ये विचार मेरे जेहन में क्यों आया इस पर पहले अध्याय में बात हो चुकी है। अब हम बात करेंगे दूसरे पहलुओं पर। लेकिन शुरु करेंगे उस सवाल से...ऐसा शख्स भला चमचागिरी कैसे सिखा पाएगा जो खुद इसमें कोई कमाल न दिखा पाया हो..-
...तो सवाल ये है कि भला वो आदमी चमचागिरी क्या सिखाएगा जो खुद ये काबिलियत डेवलप नहीं कर पाया? लेकिन इस सवाल के खिलाफ मेरे पास तमाम तर्क हैं। पर मेरे तर्कों के बाद आप दुबारा सवाल न करें तभी कहानी आगे बढ़ पाएगी। तो प्रभु, आप इलाहाबाद या दिल्ली में से किसी एक जगह से तो परिचित होंगे ही ( ऐसा मैं मानकर चल रहा हूं)..। आपने देखा ही होगा, किस तरह गैर आईएएस, गैर इंजीनियर और गैर डाक्टर इन तमाम पेशों में जगह बनाने के गुर सिखाते हैं। और लोग कामयाब न होते हों ऐसा भी नहीं है। तो सरकार, अगर ये तमाम लोग बिना आईएएस बने आईएएस, बिना इंजीनियर बने इंजीनियर और बिना डाक्टर बने डाक्टर बनने के नुस्खे दे सकते हैं तो भला मैं चमचागिरी का कोर्स क्यों नहीं चला सकता। वैसे भी मुझे इस खास प्रजाति की तरह तरह किस्मों के करीब रहने का नायाब अनुभव तो होगा ही। साथ ही मैं किसी न किसी ऐसे इंसान की इस खूबी के साइड इफेक्ट्स का शिकार तो कभी न कभी बना ही होउंगा। हकीकत तो ये है कि महज पांच सालों में ही इस तरह के तमाम साइड इफेक्ट्स से रुबरु हो चुका हूं। बहरहाल, इस बात से थोड़ा आगे बढ़ते हैं। तो अब ये तय हुआ कि रिटायरमेंट के बाद मैं चमचागिरी का स्कूल खोलूंगा। ज्यों ही मैं इस फैसले पर पहुंचता हूं मुझे इस स्कूल के लिए जरुरी पूंजी का खयाल बेचैन कर देता है। लेकिन तभी मुझे याद आता है कि मैं आज से २५ साल बाद के लिए सब कुछ प्लान कर रहा हूं। उस वक्त तक तो लोगों को इस तरह की तालीम देना, समाजसेवा जैसा हो चुका होगा। इस तरह, स्कूल की फंडिंग की परेशानी खत्म हो गई। मुझे तो उम्मीद है कि तब तक चमचागिरी शिक्षा के लिए कुछ एनजीओ भी बन चुके होंगे और इसके लिए विदेशों से भी ठीक ठाक डोनेशन मिलेगा जैसे प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर दर्जनों एनजीओ करोड़ों रुपए बना चुके हैं। वैसे भी ये एक किस्म का वोकेशनल कोर्स होगा...जिसके लिए सरकार से भी फंड मिल जाएगा। इस तरह स्कूल का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की चिंता खत्म। अब दूसरी चिंता, आखिर स्कूल का नाम क्या होगा? लेकिन ये मुश्किल काम नहीं है। देश में पहली बार खुलने वाले संस्थानों के लिए तो कोई दिक्कत ही नहीं है। और आम तौर पर इस तरह के पहले संस्थानों के नाम के आगे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ....तो लगा ही होता है। तो ये तय हुआ कि मेरा स्कूल चूंकि चमचागिरी सिखाने वाला पहला इंस्टीट्यूट होगा..सो इसका नाम होगा...इंडियन इंस्टीट्यूट आफ चमचागिरी ( आईआईसी )। जहां जहां भी इंस्टीट्यूट का नाम लिखा जाएगा..वहां एक लोगो भी होगा। और ये लोगो गिरगिट का होगा। मेरे खयाल से गिरगिट से अच्छा कोई लोगो हो ही नहीं सकता...इसे देखकर स्कूल के छात्रों के लिए ये याद रखना आसान हो जाएगा कि रंग बदलने की खूबी, कामयाब चापलूस बनने की पहली शर्त होती है।
स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर, नाम और लोगो के बाद इसकी फैकल्टी पर विचार करना होगा। यहां पर सवाल ये बनता है कि फैकल्टी परमानेंट हो या गेस्ट्स से काम चलाया जाए। चूंकि ये स्कूल मेरे रिटायरमेंट रिहैबिलिटेशन प्लान का परिणाम होगा...लिहाजा मैं कतई किसी और को इसमें हिस्सेदार नहीं बनाऊंगा। साथ ही इसका एक फायदा ये होगा कि समय के साथ चापलूसी में आ रहे बदलावों की भी हमें जानकारी मिलती रहेगी। एक वक्त के बाद चापलूसी के तौर तरीकों में भी बदलाव आएगा। सो उस समय के धुरंधरों को ही बुलाना छात्रों के हित में होगा। फैकल्टी का चुनाव करते हुए बकायदा उनसे एक फार्म भरवाया जाएगा। इस फार्म में कुछ ऐसे कालम होंगे जिनसे ये पता चल सके कि इनमें चापलूसी की टैलेंट कितनी मात्रा में है। फार्म से मिली जानकारियों के आधार पर एक लिस्ट तैयार की जाएगी। इस लिस्ट में उन लोगों को प्रिविलेज दिया जाएगा जो किसी खास समुदाय, जाति, धर्म या विचारधारा वाले आर्गनाइजेशन में कम से कम समय में कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा हो जिनसे उसका दूर दूर तक कोई वास्ता न हो। उन लोगों को भी तरजीह दी जाएगी जो एक संस्थान को छोड़ने के बाद तीसरी या चौथी बार उसमें नौकरी हासिल करने में कामयाब रहे हों।
चमचागिरी के इस स्कूल के कुछ और मजेदार पहलू बाकी हैं। इनका खुलासा अगली कड़ी में किया जाएगा....
Sunday, December 16, 2007
जल्द खुलेगा... भारत का पहला चमचागिरी स्कूल
प्राइवेट जाब वालों को रिटायरमेंट की चिंता सताती है। मुझे भी सताने लगी है। पांच सालों से जर्नलिज्म में हूं, अभी तक तो कोई तीर मार नहीं पाया। स्यूडो अपर मिडिल क्लास होने की फिराक में सिर पे हजारों का कर्जा हो गया है सो अलग। यही नहीं, ईश्वर ने मेरे शरीर के किसी हिस्से में सुर्खाब के वो पर भी नहीं लगाए जिनकी मदद से मेरे कई सारे बैचमेट और जूनियर्स कामयाबी की नई बुलंदियां हासिल कर रहे हैं। और लगता नहीं कि निकट भविष्य में साइंटिस्ट सुर्खाब के पर डेवलप कर पाएंगे। मान लीजिए, कर भी लिया तो इस बात की क्या गारंटी है कि उनके लिए जरुरी जीनोम संरचना मेरे शरीर में मौजूद हो। कुल मिलाकर बायोलाजिकली मैं इसके लिए फिट साबित हो जाऊं, इस बात की भी गारंटी नहीं है। खैर, जर्नलिज्म से उठाकर फेंक दिए जाने के बाद कौन सा धंधा कर पाउंगा...बहुत सोचा। माथापच्ची की। मेरे एक मित्र ने बताया कि वो वेस्ट मैनेजमेंट में कुछ करने की सोच रहा है। एक ने कहा कि वो किसी जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट में फैकल्टी हो जाएगा। किसी ने कहा कि वो गांव जाकर खेती बाड़ी संभालेगा। मैंने भी इन तमाम धंधों के बारे में सोचा। वेस्ट मैनेजमेंट करना इसलिए मुश्किल लगा क्योंकि इसके लिए जरुरी साफ्टवेयर मेरे भीतर नहीं है। अगर कबाड़ से जुगाड़ करने की काबिलियत रखते हों तो ये फील्ड ठीक है, अगर नहीं तो आप खुद ही कबाड़ हो जाएंगे। और यही वो डर है जो इस फील्ड के लिए जरुरी साफ्टवेयर मेरे भीतर इंस्टाल नहीं होने देगा। लिहाजा इस आप्शन को मैं टेक्निकली सपोर्ट नहीं करता। जहां तक बात पत्रकारिता पढ़ाने की है, तो भईया..वो आदमी भला क्या पत्रकारिता पढ़ाएगा जो खुद इस फील्ड में इतनी कमाई नहीं कर पाया कि उसे रिटायरमेंट के बाद के लिए कुछ सोचना न पड़े। मुझे तो लगता है अगर मैं फ्री में भी पढ़ाने को तैयार हो जाऊं तो कोई लड़का पढ़ने को तैयार नहीं होगा। आफ्टर आल इट्स आल अबाउट मेकिंग मनी। इस तरह उस धंधे से भी कमाई नहीं कर पाऊंगा जिसके लिए पूरी जिंदगी लगा दी। ले देकर अब अपनी खेती बाड़ी देखनी होगी। उसमें भी सोचने वाली बात ये है कि तब तक मेरे नाम में एक धूर भी जमीन हो..तब तो ये आप्शन मेरे सामने बचा रहे। लेकिन मेरे खानदान में जिस तरह से जमीन जायदाद घटती चली गई उसे देखकर तो इसकी उम्मीद रखना खुद को गफलत में रखने में जैसा है। मसलन आज से ४० साल पहले मेरे परिवार के पास कुल ३०० बीघे जमीन जायदाद हुआ करती थी। लेकिन आज की तारीख में हम दो भाइयों के हिस्से बमुश्किल १० बीघे जमीन है। अब तो आप खुद ही भविष्य का अंदाजा लगा सकते हैं। इस तरह, ये भी कोई ठोस आप्शन नहीं है। इतनी पूंजी होगी नहीं कि नून तेल लकड़ी की ही दुकान खोल दूं। इसलिए आज मैं इस कंप्यूटर को साक्षी मानकर कहता हूं कि मैं रिटायरमेंट के बाद एक ऐसा स्कूल खोलूंगा जिसमें कामयाब चापलूस बनने की तालीम दी जाएगी। और इस स्कूल का नाम होगा..इंडियन इंस्टीट्यूट आफ चमचागिरी...। लेकिन इसके साथ ही एक सवाल खुद खड़ा होगा कि जिसे चमचागिरी करने नहीं आई वो भला इस तरह का स्कूल क्या खाक चलाएगा...?
( ये इस श्रृंखला का पहला लेख था। दरअसल लिखते - लिखते बहुत ज्यादा हो गया। इसलिए ब्लाग जैसे माध्यम की बाध्यताओं के मद्देनजर मुझे लगा कि इसे कई कड़ियों में पेश करना ठीक रहेगा। लिहाजा चमचागिरी स्कूल खोलने से जुड़े दूसरे पहलुओं पर अगले अंकों में बात होगी..)
Friday, December 14, 2007
मखंचू की संगीत साधना..
पिछले साल गर्मियों में गांव गया था। मेरा गांव यू.पी में गाजीपुर जिले की एक तहसील ज़मानियां से एक कोस की दूरी पर है। मूलभूत सुविधाओं के नाम पर एक प्राईमरी स्कूल है जिसमे मुश्किल से 30 बच्चे होंगे। आधे दलितों के तो आधे ब्राह्मणों के। गांव का भूगोल ऐसा है कि ब्राह्मणों और दलितों का अनुपात लगभग बराबर है। इन दो जातियों के अलावा कुछ परिवार लोहार, नाई और कानू के हैं।
सौंदर्य का अर्थशास्त्र
हम भारतीय भी अजीब इनफिरियरिटी कांप्लेक्स से ग्रसित होते है। हमारे यहाँ लड़कियाँ चाहे कितना भी पढ़-लिख लें, गोरा होने की चाहत सबमें कूट-कूट कर भरी होती है। वर्ण श्याम हो तो सांवला होने की चाहत, सांवला हो तो गोरे होने का। और अगर गोरा हैं तो और भी गोरे होने का। महिलाओं के इस मनोदशा ने न जाने कितने पतियों, बापों और ब्यॉय फ्रेंडों को कंगाली के मुहाने तक पहुंचा दिया है। अभी हाल में पटना जा रहा था। मेरे साथ एक परिवार भी अपनी बेटी की शादी के लिए जा रहा था। परिवार के सभी लोग सेकेन्ड क्लास स्लिपर में बैठे थे लेकिन जिस लड़की का विवाह होना था वो एसी में। वो इसलिए क्योंकि उन्हें डर था कि पटना पहुंचते-पहुंचते लड़की का कॉम्प्लेक्शन न बिगड़ जाए। महिलाओं की इस मनोदशा का लाभ सौंदर्य प्रसाधन कंपनियाँ भी जम कर उठा रही हैं। लोरियल, पांड्स, इमामी, हिंदुस्तान लीवर आदि सरीके कंपनियां रोज़-रोज़ सेल के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। सर्वेक्षण ऐजेंसी ऐ सी निलसन के एक आंकड़े पर यकीन करे तो पता चलता है कि साल 2005 में भारत में सौंदर्य प्रसाधन का धंधा सालाना साढ़े 16 हज़ार करोड़ का था। यह आंकड़ा हर वर्ष 6-7 फ़ीसदी की दर से बढ़ भी रहा है। इस 16 हज़ार करोड़ में भी सिर्फ़ कॉम्प्लेक्शन सुधारने वाली प्रसाधनों का बिज़नेस 7 हज़ार करोड़ का है। है न कमाल की बात!
पर्सनल केयर मार्केट में सबसे बड़ा हिस्सा हिंदुस्तान लीवर का है। ज़र्मन यूनिलीवर की यह भारतीय सब्सियडरी, देश के प्रसाधन व्यापार के 30 प्रतिशत हिस्से को नियंत्रित करता है। हिंदुस्तान लीवर के प्रमुख उत्पादों में लक्स, लाईफबॉय, पीयर्स, रेक्सोना, फेयर एंड लवली, पॉड्स, सनसिल्क, क्लिनिक हेयर एन्ड केयर, पेप्सोडेंट, क्लोज अप और एक्स है। इसके अलावा हिंदुस्तान लीवर ने हाल में ही 1947 में स्थापित भारतीय कंपनी लेक्मे का भी अधिग्रहण कर लिया है। साथ ही लीवर देश भर ब्युटी सैलून का एक नेटवर्क भी संचालित करता है।
भारतीय बाज़ार में दूसरे नंबर पर प्रॉक्टर एंड गैंबल है। इस अमरिकी मल्टीनेशनल का यूएसपी है हेयर केयर। पेंटीन, रिज़्वायस और हेड एंड सोल्जर इसी के उत्पाद है। इसके बाद कोल्गेट पामोलीव का स्थान है। इसके बुके में टूथ पेस्ट, सेविंग क्रीम के अलावा कुछ बाथरूम प्रोडक्ट भी है। कोल्गेट ने वर्ष 2000 में कोल्ड क्रीम चार्मिस भी बाज़ार में उतारा।
प्रसाधन कंपनी लोरिएल का भी देशी बाज़ार में महत्वपूर्ण हिस्सा है। हलांकि इस कंपनी के उत्पाद मुख्य रूप से शहरी उपभोक्ता को लक्ष्य में रख कर बनाए गए हैं। फिर भी बाज़ार में कंपनी का हिस्सा 7 प्रतिशत के आसपास स्थिर है। लोरिएल का मुख्य उत्पाद गार्नियर के नाम से बाज़ार में बेचा जा रहा है। कंपनी के बुके में मुख्य रूप से हेयर केयर, स्किन केयर और बालों को रंगीन बनाने वाले उत्पाद हैं। लोरिएल के बाद भारत में हैंकल का स्थान है। फा, मार्गो और नीम साबुन इसके उत्पादों में प्रमुख हैं।
इसके अलावा एमवे, एवन और ओरिफ्लेम जैसी कंपनियां भी भारतीयों को सुंदर बनाने में व्यस्त हैं। इन कंपनियों का व्यापार करने का फंडा दूसरों से कुछ अलग है। ये अपने प्रोडक्ट को किराना दुकानों या रिटेल चैन के बजाय स्वयं अपने निजि नेटवर्क से बेचने में विश्वास करती हैं। इस मार्केटिंग के अभिनव प्रयोग के बदौलत ही मंहगे होने के बावज़ूद भी एमवे के उत्पाद गांव-गांव तक पहुंच गए हैं।
हलांकि कॉस्मेटिक बाज़ार पर मल्टीनेशनल कंपनियों की ही बादशाहत है, लेकिन कुछ भारतीय कंपनियां भी इस क्षेत्र में अपनी जगह पर टिके हुए है। इनमें गोदरेज और डाबर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। गोदरेज के प्रोडक्ट्स में सिंथाल, फेयर एंड ग्लो और डाबर अपने वाटिका, अनमोल आदि उत्पादों से खूबसूरती बढ़ाने के धंधे में व्यस्त है।
ऐसा नहीं है कि इन कंपनियों का टार्गेट कंज़्युमर महिलाएं ही होती हैं। पुरुषों में भी सुन्दर दिखने की प्रबल इच्छा होती है। और इसी इच्छा का सम्मान करते हुए इमामी ने 2005 में फेयर एंड हैंडसम को बाज़ार में लांच किया। इस क्रीम के माध्यम से कंपनी ने एक झटके में ही सौंदर्य से उपेक्षित आधी जंसंख्या यानि पुरूषों को भी अपनी लपेट में ले लिया। अपने लांच के पहले वर्ष में ही इस क्रीम ने बाज़ार से 36 करोड़ बटोरा जो 2006 में 70 करोड़ तक पहूंच गया। लगभग 100 फ़ीसदी का विकास दर।
इन आंकड़ो में ग्रे मार्केट का कोई स्थान नहीं है। सीआईआई के आंकड़े बताते हैं कि देश में कास्मेटिक ग्रे मार्केट लगभग व्हाईट मार्केट से दुगनी है। सस्ते होने के कारण ग्रे प्रोडक्ट प्राय: कस्बाई या फिर देहाती मार्केट में धड़ल्ले से बिक जाते हैं। देखने में बिल्कुल आरिजनल सा लगने वाले इन उत्पादों के नामों की एक बानगी देखिए - लेक्मे - लाईक मी, फेयर एंड लवली - फेयर एंड लोनली, हेवेन्स गार्डेन - हैंगिंग गार्डेन, सनसिल्क - समसिल्क आदि।
अपने सामान को बेचने के लिए कंपनियाँ तरह-तरह के प्रचार का सहारा लेती हैं। गौर से इन विज्ञापनों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उपभोक्ता को ब्लैक मेल किया जा रहा है। इन विज्ञापनों की वजह से इन मल्टीनेशनल का माल आज देश के गाँव-गाँव तक पहूंच गया है। एचएलएल इंवेस्टर मीट 2006 के आंकड़ों के मुताबिक आज देश के कुल आबादी का 2.1 फ़ीसदी डियोडरेन्ट इस्तेमाल करता है। वहीं 22 फ़ीसदी लोग फेयरनेस क्रीम यूज़ करते हैं।
ऐसे पता नहीं गोरा दिखने का फितूर लोगों में होता क्यों है। हमारे यहाँ भोजपूरी में एक कहावत है "जो बात बा सँवर में उ गोर में कहाँ"। कहने का मतलब कि और नैन-नक़्श तीखे हों तो दमकता सांवला रूप सुबह की चमक को भी फ़ीका कर सकता है। और अपनी रेखा, काजोल और बिपासा भी तो सांवली ही हैं न। और कुछ बात तो जरूर है इन तीनों में। आप भी इत्तेफ़ाक रखेंगे।
अभी हाल में लोरियल ने एक क्रीम लांच किया है जिसका केमिकल कंपोजीशन लेक्टोकेलामाईन है। कहते है फाउंडेशन के साथ इस क्रीम को इस्तेमाल करने से आप झट से गोरे हो जाएंगे। अमावास्या में चाँद निकल आएगा। अल्प समय का यह क्रिमी फेनोमेनन आपको सांवले या काले होने के कांप्लेक्स से थोड़ी देर के लिए ही सही राहत तो दे ही देगा। बस क्रीम लगाओ और मंदाकिनी या फिर जुगल हंसराज की तरह चमचमा जाओ। हफ्ता एक, हफ्ता दो, हफ्ता तीन वाले झंझट से भी मुक्त। रिस्क सिर्फ़ एक है कि ग़लती से बारिश न हो जाए। अगर बारिश हो गई तो फिर......।
डिसक्लेमर: सौदर्य शास्त्र का मेरा ज्ञान बिल्कुल ही अधूरा है। अगर ग़लती से कुछ ग़लती लिख दिया हो तो क्षमा चाहूंगा।
न्यायपालिका बनाम न्यायपालिका
Thursday, December 13, 2007
बीसीसीआई के दामाद वीरु...!
क्या टीम इंडिया में प्रवेश पाने के लिए प्रदर्शन कोई मायने रखता है ?? जवाब तो हमेशा हाँ होना चाहिए। वैसे ये सवाल कुछ अज़ीब भी है। कुछ लोग तो ये भी कह सकते हैं की "अबे इडियट हो क्या??? ये क्या बेवकूफों वाले सवाल करते रहते हो।" हाँ, ये सवाल तो वाकई मूर्खों वाला होता अगर टीम इंडिया में सेंधमारी की कोई गुंजाइश नहीं रहती तो। एक बात और ये कि चयन करते वक़्त चयनकर्ताओं का ध्यान किस बात पर होना चाहिए? हालिया प्रदर्शन पर या भूतकाल में लगाये गये किसी दोहरे या तिहरे शतक की ओर ?? अगर प्रदर्शन का वाकई कोई मतलब होता तो शायद विरेन्दर सेहवाग का अभी टीम में आना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी था। वैसे वीरु के सिलसिले में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब लगातार खराब पर्फार्मेंस के बावजूद उन्हें टीम में शामिल किया गया हो।
वीरु को टीम में घुसेड़ने के पीछे दलील ये दी गई कि गौतम गम्भीर को चोट लगने की वजह से वीरू को मौका मिल गया। वाह भाई वाह!! इससे तो यही लगता है कि जिस काम के लिये गम्भीर को टीम में लिया गया होता, वह केवल और केवल वीरू को ही पता है। भाई ये तो पता ही है कि वीरू दिल्ली के कप्तान हैं और चूंकि गम्भीर भी दिल्ली की ही नुमाइन्दगी करते हैं इसलिए कुछ खुफिया बातें या कुछ खास नुस्खे वीरू ने गम्भीर को बताए होंगे। हमारे चयनकर्ताओं ने शायद यही बात सोची होगी... क्यों वेंगसरकर साहब!! सही कहा न मैंने!!
लेकिन आप लोगों ने आकाश चोपड़ा का नाम तो सुना ही होगा.. अरे वो भी दिल्ली का ही है और इस सीजन में तो उसने जमकर रन भी बटोरे हैं। हो सकता है याद न आया हो। आखिर कितने ढ़ेर सारे काम रहते हैं आप लोगों के जिम्मे। कॉलम लिखने से लेकर ना जाने क्या-क्या!! है कि नहीं? पर इतना तो याद रखना ही चहिये कि आकाश भी दिल्ली के ही हैं। और ओपनिंग भी करते हैं... रन भी कुछ कम नहीं बनाए हैं उन्होंने... आंकड़े गिनाने का क्या फायदा!! बस्स! इतनी जानकारी काफी है कि हाल में खेले गए जिन घरेलू मैचों में वीरु फ्लाप हो गये थे जबकि साथ खेलते हुए आकाश ने एक शतक और एक दोहरा शतक था।
आकाश भी माथा पीट रहे होंगे कि काश उन्होंने भी अगर चार-पांच साल पहले कोई जोरदार पारी खेली होती तो आज उनको ये दिन नहीं देखना पड़ता। अब भई वीरू की पारिया हैं ही इतनी लाजवाब कि तुरंत याद आ जाती हैं। भले ही अभी उनका बल्ला एक अर्धशतक का भी मोहताज हो.... और तो और उनका 309 का पहाड़ "दीवार" के शशि कपूर की "मां" से किसी भी मामले मे कमतर थोड़े ही है। तभी तो 24 सम्भावितों कि सूची में नाम ना होने के बावजूद सीधे टीम में अचानक पैदाइश हो गई। हो सकता है सहवाग का नाम सम्भावितों की सूची में इसलिए नहीं दिया गया हो कि लोग सेलेक्शन कमेटी के खिलाफ आग ना उगलने लगे... आखिर पर्फार्मेंस के दम पर तो उनकी जगह तो सम्भावितों की लिस्ट में भी नहीं होनी चहिए थी। वीरू का बल्ला तो ऐसा खामोश है कि बोलने का नाम ही नहीं ले रहा है। वैसे भी फिक्र करने की क्या बात है जब ऐसे ही...।
देश मे कई ऐसे जाबांज है जिनका बल्ला लगातार गरज रहा है, लेकिन वे लगातार नज़रअन्दाज़ कर दिए जाते हैं... क्योंकि उनके पास न तो "309" ही है, न ही "309" जैसी पहुंच वाले लोग. है तो बस अकूत काबिलियत जिसका बहुत मोल नहीं है। उनको कभी यह कहकर टीम में नहीं लिया जाता है कि टीम में गुंजाइश नहीं थी, तो कभी टीम काम्बीनेशन का रोना रोया जाता है। कभी-कभी तो जानदार प्रदर्शन के बावजूद ओछा बयान आता है कि" अमुक नामों पर विचार नहीं किया गया......." आकाश चोपडा, पार्थीव पटेल, एस बद्रीनाथ, सुरेश रैना ऐसे ही कुछ होनहार प्लेयर्स में से हैं जो पिछ्ले कुछ महीनों से लगातार टीम इंडिया के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं. लेकिन समय बीतने पर उनके अच्छे प्रदर्शनों को वैसे ही कूड़ेदान में डाल दिया जाता है जैसे कि अच्छी सिंकी रोटियों को भी बासी होने के बाद फेंक देते हैं।
वैसे इस बात में कोई शक नहीं है कि वीरू में किसी भी बालिंग अटैक की बधिया उधेड़ने का माद्दा है लेकिन टीम के गठन के वक़्त बीसीसीआई के आकाओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव का एकमात्र पैमाना प्रदर्शन है। इस प्रकार के दोहरे मानदंडों से नुकसान तो क्रिकेट का ही होगा। कई सालों के बाद जब वसीम जाफर को टीम में लिया गया था तो इस बात की कानाफूसी हुई थी कि जाफर को टीम में जगह इस वजह से मिली क्योंकि जाफर के पिता शरद पवार की गाड़ी चलाते थे.. लेकिन जाफर ने अपने दमखम से अपने आलोचकों का मुंह बन्द कर दिया था। कुल मिलाकर कहना यही चाहता हूं कि वीरु को टीम में लेने के पीछे आखिर कौन है, अब ये सोचना जरुरी हो गया है।
This Is Biology: The Science of the Living World:
This Is Biology: The Science of the Living World: by Ernst Mayr
चन्द्रभूषण जी ने पहलू मे चेतना और पदार्थ पर एक रोचक बहस छेड़ी है। हम सभी कंही न कंही आत्मा की अवधारणा, या फिर चेतना का आधार क्या है ? जैसे सवालों से जरूर उलझे होंगे। और सिर्फ हम ही नही हमसे पहले भी कई peedhiyaa और हमारे बाद आने वाली कई peediyon को अभी इस सवाल से उलझना होगा।
Ernst Mayr की यह किताब इन्ही एतिहासिक सवालों से उलझती है और कुछ हद तक इन सवालों के उत्तर की दिशा भी तय करती है। हालांकि इन उत्तरों की पकड़ के लिए आधुनिक biology और खासतौर पर genomics की समझ की भी दरकार है। इस किताब का लिंक आपको गूगल पर ले जायेगा, जहाँ पर आप मूल लेख इस विषय पर पढ़ सकते है। मेरा ख्याल है, कि वों अपनेआप मे एक अनूठा अनुभव है। यहाँ पर मैं सिर्फ अपने नजरिये और इस किताब की बात करूंगी।
वैज्ञानिक मंडलियों मे अभी तक गडित और भौतिकी का ही वर्चस्व रहा है, और करीब दो सदियों तलक, जीव विज्ञान एक दूसरी श्रेणी का विज्ञान माना जाता रहा है। अधिकतर descriptive, कुछ हद तक तर्कहीन। दर्शन और विज्ञान को लेकर सारी की सारी बहस का केंद्र बिन्दु भौतिकी ही है। यही कारन रहा है कि बहुत से प्रकृती के रहस्यों को या नियमों का समाधान इस धारा के अन्दर हुया है, सिवाय जीवन को छोड़कर, चेतना को छोड़कर। यही पर भौतिकी मात खा जाती है।
जीवन और चेतना की खोह तक जानेवाली दो धारानाये दर्शिनिको के बीच मतभेद का कारण रही है। पहली धारणा भौतिकी से प्रभावित mechanistic दार्शनिकों की रही है, जिन्होंने जीव शरीर को एक मशीन माना, और दूसरी "vitality" की जिन्होंने जीव को और चेतना को सिर्फ मशीन मानने से इनकार किया। दोनो धाराओं से जीव विज्ञान को फायदा हुआ है, वहाँ तक पहूँचाने मे, जहाँ ये आज खडा है। और सिदांत और दर्शन के तौर पर ये दोनो धाराये आज सिर्फ एतिहासिक महात्व की राह गयी है।
१९५० के आसपास जब ये साबित हो गया कि माता-पिता से संतति मे सारे लक्षण DNA के द्वारा पहुंचते है, फिर हर लक्षण को निर्धारण करने वाले कारक "genes" की खोज हुयी, और अभी तक बादस्तूर जारी है। जिस तरह atom की खोज के बाद ये पाया गया कि किसी भी पदार्थ के गुण जानने के लिए , वों जिन atoms से बना है, उनके गुण जानना पर्याप्त है। कुछ इसी तरह के सिद्दांत पिचले ५-६ दसकों मे जीव विज्ञान पर भी लागू करने की कोशिश की गयी। ये माना गया कि जिस दिन सारे genes की पहचान हो जायेगी, वों क्या करते है ये पता चल जायेगा, उस दिन जीवन के आधार का भी पता चल जाएगा।
पिचले १० सालों मे जीव वैज्ञानिकों मे ये सहमती बनती दिख रही है के टुकडे-टुकडे मे जीवन की समझ नही बसती, बल्की समग्र जीव को उसके, पर्यावरण के परिपेक्ष्य मे जब देखा जाएगा तभी जीवन की समझ भी मिलेगी। जीव विज्ञान भौतिकी और रसायन पर आधारित होते हुए भी इनके नियमों मे नही बंधा है, और कुछ नए स्वतंत्र नियम भी बनाता है। इसे हम लोग "principle of Emergence" कहते है। यही पर बहुत क्लिस्ट रुप मे चेतना के आस्तित्व की भी व्याख्या की जा सकती है। इस पर फिर कभी .......
फिलहाल गुणीजन इस किताब का स्वाद ले...........
Wednesday, December 12, 2007
पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई दोस्त !
".....लेकिन जाति जैसे जटिल विषय को छू रहे कुछ लोग आत्मविश्वास से भरपूर और ताल ठोककर इस विषय पर अंतिम निर्णायक आलेख लिखते नजर आ रहे हैं, विस्मयकारी है। सचमुच, ज्ञान आपको झुकने की तमीज सिखाता है और अज्ञान आपमें आत्मविश्वास भर देता है। कोई रिफरेंस नहीं, कोई शोध नहीं, किसी अनुभव का जिक्र नहीं। बस दिल में आया जो, रच दिया। फिर तकलीफ ये कि कोई गंभीरता से नहीं लेता...।" ये दिलीप मंडल जी के मोहल्ला पर छपे उस आखिरी लेख का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने इस मुद्दे से विदाई ली है। इससे पहले 'दुबे जी बीच वाला लैट्रिन साफ कर दीजिए ' वाले लेख पर मैंने और अनिल दुबे ने ही मुखर तौर पर अपनी बात रखी थी। लिहाजा इसमें जो कुछ भी लिखा गया है, मैं मानकर चल रहा हूं हम जैसे लोगों के लिए ही कहा गया है। और मुझे ये मानने में कतई कोई हिचक नहीं है कि जातिवाद को लेकर मैंने कभी कोई रिसर्च नहीं की है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अगर इस मुद्दे पर मेरी अपनी कोई राय हो तो उसे रखना गुनाह है। अगर किसी को चोट लग जाए तो उसे कैसा महसूस होगा, ये जानने के लिए फ्रायड की थ्योरी पढ़ने की जरुरत नहीं पड़ती। ये लेख सिर्फ ये बताने के लिए कि ये दुनिया कम पढ़े -लिखे लोगों की भी उतनी ही है जितनी कि बुद्धिजीवियों की।
बात करते हैं, जातिवाद के अलग-अलग आयामों की पड़ताल करने वाले इस बहस की। अगर किसी न्यूज चैनल का ये टॉक शो होता तो टीआरपी तो छप्पर फाड़ के आती। इस पूरी बहस में ताली पीटने से लेकर गाली-गलौज तक का पूरा मसाला था। लॉजिकल अप्रोच से लेकर सेंटीमेंटल रिएक्शन तक। आखिर क्या नहीं था इसमें..? एमएनसी के सनसनीखेज सर्वे से लेकर शादी डाट काम की प्रोग्रेसिव रिपोर्ट तक। शास्त्रों के संदर्भों से लेकर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के खामियाजे तक।
अब कुछ बुनियादी सवाल। आखिर हम क्या साबित करना चाहते थे। आखिर हम क्या साबित कर पाए...? अगर थोड़ा गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि दरअसल पूरे वाद–विवाद में ‘विवाद’ का तो पक्ष ही मौजूद नहीं था। हर आदमी घुमा फिराकर वही बात कर रहा था। लेकिन जबरन दो पक्ष बना दिए गए। ये एक तरह की टेक्निकल मजबूरी थी। इसे आप ‘रोलप्लेइंग’ के तौर पर भी देख सकते हैं। ऐसा नहीं होता तो आखिर तीखे बहस की जमीन कैसे तैयार होती। और बहस तीखी न हो तो मजा नहीं आता। न तो कोई ताली पीटता और न ही गरियाता। फिर लगता है जैसे बहस करने का कोई फायदा ही नहीं हुआ। लिहाजा बहस को गरम करने के लिए वादी–प्रतिवादी का होना जरुरी था।
खैर, दो पक्ष बना दिए गए लेकिन मजेदार बात ये थी कि दूसरे पक्ष ने कभी पहले पक्ष की बातों का विरोध नहीं किया। उस लहजे, उस भावना या उस उद्देश्य की मुखालफत कर संशोधन की बात रखी जिसकी बुनियाद पर मुद्दे ने जन्म लिया था। देखा जाए तो दूसरा पक्ष भी पहले पक्ष की बातों को संशोधित करके बोल रहा था। उसे तो दूसरा पक्ष महज इसलिए बना दिया गया क्योंकि मुद्दे का ‘नेचर’ ही कुछ ऐसा था जिसमें वो अपनी जाति विशेष के कारण ‘सूटेबल अपोनेंट’ नजर आता था। ये बात अलग है कि ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘जातिवादी’ ठहराए गए इस शख्स ने कभी इन तमाम वादों के पक्ष में कुछ भी नहीं कहा। बल्कि जब भी मौका मिला इसकी बेहद ऊंचे स्वर में मुखालफत की। इसके बाद भी उस पर यकीन नहीं किया गया तो गिड़गिड़ाया...”इसमें हमारी क्या गलती है कि मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुए।“ लेकिन दलितों और पिछड़ों की बात करने का ‘वीटो पावर’ रखने वालों को ये सब कुछ महज ‘एक्टिंग’ नजर आया। उसकी इस बेबसी में भी तथाकथित ‘जातिगत अहंकार’ ही नजर आया।
अगर कोई पूछे ऐसा क्यों हुआ। आखिर वजह क्या थी...? शायद, कुछ भी नहीं..। बस इतनी कि अगर ‘बट आब्वियस दूसरा पक्ष’ भी ‘पहले पक्ष’ में तब्दील हो जाएगा तो फिर मुद्दे (जातिवाद) का क्या होगा। आखिर उस वक्त की कीमत कैसे वसूली जाती जो इस मुद्दे को जिंदा रखने और मुखर बनाने की कवायद में जाया हुए। सैकड़ो किताबों, पचासों शहरों, कई सारे समाजों, तमाम सेमिनारों और एक से एक बड़े विद्वानों की सोहबत से मिला ज्ञान आखिर किस तरह इस्तेमाल में लाया जाता। खैर, इंटेशन जो कुछ भी रहा हो। लेकिन आखिर में जिस तरह के निष्कर्ष निकाले गए, उनमें चीजें निहायत ही एकतरफा दिखीं।
बेशक, मुद्दा उठाने वाले लोग काबिल लोग हैं। उनकी हां में हां मिलाने वाले लोग और भी काबिल हैं....। लेकिन, हमें ये समझना होगा कि भारत की ३५ फीसदी आबादी जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है...उसके लिए उसकी तकलीफें और उसके अपने अनुभव ही किताब हैं, सेमिनार हैं और उन्हीं की सोहबत में उसने सब कुछ सीखा है जो एक अच्छा इंसान होने के लिए जरुरी है। वो आप जैसे विद्वान नहीं हैं, ये देखकर आप उन्हें बोलने और आवाज उठाने के लिए नाकाबिल नहीं ठहरा सकते। बेशक, आपने डेमोक्रेसी पर कई सारी किताबें पढ़ी होंगी...लेकिन मतलब वो भी समझते हैं जिन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिलता।
आखिर में एक और बात। ताली बजाने वालों और शाबाशी देने वालों को अपना अक्श समझने की भूल मत करिएगा..। इनमें से बहुत से लोग हैं, जिन्होंने आपके लेख पर तारीफों के पुल बांधे और मुझे फोन करके कहा...मजा आ गया गुरु...! दरअसल समाज को किसी भी वाद से ज्यादा खतरा इस दोमुंहेपन से है। और ये दोमुंहापन किसी खास जाति के लोगों में नहीं पाया जाता...। बेशक, मुद्दे उठाइए...बहस करिए। सब कुछ ठीक है....लेकिन आपसे अलग राय रखने वाले भी बोल सकें.....ये गुंजाइश तो बरकरार रखिए....असल में यही डेमोक्रेसी है।
Tuesday, December 11, 2007
घर भी छूटे और घाट भी !
मोहल्ले में जाति के उपर चल रही बहस के बीच में मैने भी कुछ कहा था एक पत्र के माध्यम से. इसके बाद दिलीप भाई ने उस पत्र क जवाब भी दिया.उस पर मुझे कुछ कहना था. मैं उसी बात को आपके सामने रख रहा हूं जो मैं वहां कहना चाहता था.
बात उस समय कि है जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फ़र्स्ट इयर का स्टुडेंट था. सब कुछ नया था मेरे लिये.नये लोग, नयी बातें और वहां के छात्र राजनीति को करीब से देखना.सब कुछ नया था. एक गांव से निकल कर आया था मैं. घर में राजनीति की बातें होती रहती थी इसलिये नेताओं के नाम और उनके कामों के बारे में सुन रखा था. इसलिये राजनीतिक बातों में रुची थी.लिहाज़ा मैंने यह निर्णय लिया था कि हर जलसों में जाउंगा.वहां उनके नेताओं को सुनुंगा.
दो तीन माह हुए थे वहां गये हुए.पता चला कि सीताराम येचुरी आने वाले हैं. मैं भी वहां गया.खुब बातें हुई. जाति,धर्म,वर्ग और समाज से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी जम कर बहस हुई. सच में पहली बार मैंने एक ऐसे वक्ता को सुना था जिसने मुझे प्रभावित किया था.मेरी सोच को भी. तभी बहस वर्ग और जाति पर केंद्रित हुई.येचुरीजी कह रहे थे...हमें जाति और वर्ग को मिला देना होगा. जब तक हम जाति और वर्ग को मिला कर नहीं लडेंगे तब तक वर्ग को नहीं खत्म किया जा सकता...बारी आयी सवाल जवाब की.मेरा सवाल था," यह काम हम कैसे करेंगे? मैं जाति से ब्राहण हूं .इस वर्ण व्यवस्था में सबसे उपर हूं.और मैं गरीब हूं . इतना कि दो जून की रोटी मैं बडी मुश्किल से जुटाता हूं.मेरा दोस्त है गांव में मेरे ही जैसा पैसा कमाने वाला एक दलित.हम साथ में खेतों में काम करते हैं. दोपहर में साथ में बैठकर रोटी खाते हैं.यदि आप लडाई को वर्ग से हटाकर वर्ण पर लायेंगे तो आखिर मैं अपने ही जाति के एक आदमी को कैसे मार सकता हूं.( मैं बात को एकदम इक्स्ट्रीम पर ले गया था).क्योंकि कोई मेरा चाचा है कोई भैया है कोई दादा है. आर्थीक हैसियत भले ही मेरी वैसी नहीं है लेकिन समारोहों में उन घरों में उतनी ही इज़्जत मिलती है. हां अगर बात सिर्फ़ वर्ग की हो तो मैं अगली पंक्ती में खडा मिलुंगा लडने के लिये. क्योंकि मेरे अंदर भी गुस्सा है. येचुरीजी ने सिर्फ़ एक लाईन में जवाब दिया, "हमें यही करना होगा और अपनी मानसिकता बदलनी होगी."
मैं दुबारा सवाल करना चाह्ता था लेकिन, समय की कमी थी. एक बात जो मैं वहां पुछना चाह्ता था वो यह था," आप क्या चाहते हैं कि हम ना घर के रहें ना घाट के. हम अपने चाचा, दादा और भैया के खिलाफ़ लडें वर्ग के नाम पर.और अचानक एक दिन पता चले की रणवीर सेना और एम सी सी की मारकाट में गांव के सारे सवर्णों के घर में आग लगा दिया गया.और मेरा परिवार उस आग की भेंट चढ गया.( यह सब होगा जाति के नाम पर)...
दिलीप भाई हम तो प्रतिरोध के स्वर के साथ अपना स्वर मिलाने के लिये तैयार हैं.लेकिन उसकी कीमत क्या होगी? कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा. कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि तब बात सिर्फ़ योग्यता के ही आधार पर की जायेगी.
दिलीप भाई मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि उत्पादन संबध में परिवर्तन हुआ है.बाज़ार और वैश्वीकरण ने जाति के ज़हर के प्रभाव को धीमा किया है.लेकिन हमें तो जो प्रतिरोध के स्वर सुनाई देते हैं वहां तो बाज़ार विरोधी बातें कानों में पडती हैं.आखिर इस तरह के अंतर्विरोधों का हम क्या करें. हम उन ताकतों से कैसे निपटें जो खडे तो होते हैं वर्ग आधारित समाज की रचना करने को लेकिन उनकी सारी ताकत अपना स्वार्थ साधने में खर्च हो जाती है. हो सकता है कि यह बहुत छोटी बातें हैं.लेकिन मैने यह देखा है कि किस तरह से दो ठाकुर परिवारों में झगडा होता है और एक परिवार का बडा लडका एम सी सी को फ़ंड करता है क्योंकि दुसरे परिवार का रणवीर सेना से अच्छे ताल्लुकात होते हैं. हमें क्यॊंकर भरोसा हो ऐसे प्रतिरोध पर.
दिलीप भाई जातीय दंभ और अभिमान की बातें तो बेमानी है.सच्चाई यह है कि हम अगर जाति को खत्म करने की बात करते हैं तब भी एकबार सामने वाला सोचता है कि क्या ये सच बोल रहा है? तब हमें अपनी बात बहुत ही जोरदार तरीके से रखनी होती है.उससे भी ज्यादा जोरदार तरीके से जो इस व्यवस्था का शिकार रहा है. हमें हर बार अपनी आवाज़ उंची करनी पडती है. कुछ ठीक उसी तरह जैसे इस देश के मुसलमानों को हर बार देशभक्त होना साबीत करना पडता है.यानि जब आप पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हों तो उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो और ज़ोर से वही नारा दुहराये.आवाज़ कमज़ोर पडी नहीं कि उन्हें शक की निगाह से देखा जाता है.
तो लीजिये ...मैं अपनी आवाज़ उंची करते हुए और बहुत ही जोरदार तरीके से यह कहना चाहता हूं कि मैं जाति व्यवस्था का घोर विरोधी हूं.मैं हर काम का कद्र करता हूं.मेरी निगाह में कोई काम बडा नहीं कोई काम छोटा नहीं. मैं उस व्यवस्था पर थूकता हूं जो दो इन्सानों में फ़र्क करती है.
गाली देने नही आता. और ...इससे ज़्यादा जोरदार तरीके से मैं अपनी बात रख सकूं इतनी मजबूत नहीं है मेरी लेखनी. और कोई तरीका हो तो आप बतायें ...जिससे मैं साबीत कर सकूं कि मुझे अपनी जाति को लेकर रत्ती मात्र भी अभिमान नहीं है.आप निकालिये जाति की शव यात्रा. हम सबसे आगे आगे नाचते मिलेंगे.
Monday, December 10, 2007
थूक कर चाटने का वामपंथी स्टाइल !
Sunday, December 9, 2007
ज़माने से आगे ज़मानियां - द्वितीय अध्याय
चुनावी रंग में कहां कुछ याद रहा हमें
गुजरात के चुनावी रंग पूरे देश में छिटक गए हैं। हर तरफ चरचा है। कुरसी की। ऊंट किस करवट बैठेगा। सब इसी में मशगूल हैं। इस बीच कुछ महत्वपूणॆ मुद्दों पर पेंट पुत गया है। चुनावी पेंट। नंदीग्राम और तसलीमा आउट आफ फोकस हो चुके हैं। बाजार का यही अथॆशास्त्र। हम बाजार युग में जी रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है। लेकिन मैं इस मुद्दे को उठा रहा हूं। न्याय करने की दृष्टि से। तसलीमा बड़ा मुद्दा था। नंदीग्राम से भी। तेजी से उभरा। जनआंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया। राजनीति उबलने लगी। लोग सिर के ऊपर आसमान उठाने लगे। शांत हुआ तो कहीं खो गया। इतना चुपके से। पता भी न चला। तसलीमा कहां हैं यह मीडिया के लिए भी आउट आफ कांटेक्स्ट की बात है। तसलीमा से झगड़ा लोगों का उनकी किताब की चंद पंक्तियों को लेकर था। तथाकथित ईश निंदा का। किताब की चंद पंक्तियों ने नंदीग्राम की अमानवीयता को मात दे दी। आंदोलन के स्तर पर। हजारों बेघर लोगों का मुद्दा चंद पंक्तियों से छोटा दिखने लगा। हत्या, लूट, बलात्कार से भी बड़ी थीं ये पंक्तियां। नंदीग्राम भी मुद्दा बना लेकिन जनआंदोलन नहीं। तसलीमा की तरह। सियासी मुद्दा भी बना। लेकिन लाभदायक नहीं रहा। नेताओं का भी मोहभंग हो गया। बहुत जल्द। जैसे तसलीमा चढ़ीं और उतरीं। क्या हम नंदीग्राम को तसलीमा की तरह ही बड़ा मुद्दा नहीं बना सकते थे। तसलीमा सियासी मुद्दा थी। नंदीग्राम राजनीतिक जंग। जंग में हर चीज जायज होती है। पर हर चीज जायज भी नहीं होती। नंदीग्राम को प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।
दिल्ली के छिछोरे
अरे मेरी जान कभी इधर भी देख लिया करो। अरे ओ मैडम जरा मुड़कर तो देख लो। अरे भाई यो तो देख ही ना री। अरे देखेगी थोड़ा सब्र रख। पलट। नहीं पलटी। कोई बात नहीं ले दूसरी आ गई। ले-ले जितने मजे ले सकता है। दिल्ली में काफी कुछ बदला। सड़कें बदली, मकान बदले, रहने का तौर-तरीका बदला। लेकिन नहीं बदला तो वो यहां के छिछोरे लड़कों का अंदाज। जिस अंदाज में बरसों पहले लड़कियां छेड़ते थे। आज भी वैसे ही छेड़ते हैं। ना कोई शमॆ ना कोई हया। लेकिन कोई अपनी बहन को छेड़ दे, तो कमीनो के बदन में आग लग जाती है। खैर मैं दिल्ली के सभी लड़कों को दोषी नहीं ठहरा रहा हूं। लेकिन दिल्ली की सड़कों, बस स्टैंडों और हर पबि्लक प्लेस पर आपको ऐसे लड़कों की तादाद ज्यादा मिलेगी। बसें तो जैसे इन लड़कों के लिए वरदान हो। ये अपनी सभी कारगुजारियां बसों में ही अंजाम देते हैं। बसें भरी हुईं हो, तो कहने ही क्या। बसों में जहां लड़कियां देखीं, पहुंच गए वहीं। इसके बाद धक्ममुक्का चालू। इसके बाद तो आप लोग समझते ही हैं, क्या होता है। बताने की जरूरत नहीं है। इन छिछोरे लडकों की हरकतें ऐसी है कि गुंडे-मवालियों के भी पसीने छूट जाए। कुछ दिनों पहले दिल्ली और बाहरी जगहों से लड़कें दिल्ली में दिल्ली पुलिस के कांस्टेबल का इिम्तहान देने आए। इन भावी कांस्टेबलों ने सिविल लाइन में जो हरकतें दिखाई। वो पूरी तरह से अनसिविल थीं। इन्होंने दिल्ली यूनिवसिॆटी में खूब लड़कियों को छेड़ा। लड़कियों का जीना हराम कर दिया। उपर जो जुमले लिखे हैं, वो तो बस नमूने भर है। इससें भी खतरनाक जुमले इन लोगों ने उस समय इस्तेमाल किए होंगे। ये पहली बार नहीं है जब भावी कास्टेबलों ने इस तरह की हरकतें दिखाई हैं। पिछले साल मेरठ में भी इसी तरह की घटना हुई थी। वहां पुलिस की भतीॆ में शामिल होने आए लड़कों ने एक लड़की के कपड़े फाड़ दिए थे। इस तरह के लोग अगर दिल्ली पुलिस में शामिल होंगे। तो आप अंदाजा लगा सकते हैं, कि ये लोग किस हद तक महिलाओं की हिफाजत करेंगे। इन कास्टेबलों में अधिकतर की तादाद ऐसे लोगों की है, जो अपने जमाने में महान लड़की छेडू रह चुके होते हैं। खैर लड़कियों की हिफाजत उपर वाला ही करें। इन लड़कों के उपर एक कविता लिख रहा हूं।
दिल्ली के छिछोरे लड़कों की यहीं कहानी
चाहिए इन्हें लड़कियां और थोड़ा माल-पानी।
करते हैं खूब ये अपनी मनमानी
कर डाला इन्होंने समाज को पानी-पानी।
ज़माने से आगे ज़मानियां...!
( 'मेरा गांव - मेरा देश' श्रृंखला की कड़ी में ये पहला लेख है। गाजीपुर जिले के जमानियां का रहने वाला हूं। लिहाजा जमानियां को जिस रुप में मैंने देखा है, उस पर अपनी समझ दर्ज करा रहा हूं। आप में से बहुत से लोग शायद नहीं जानते होंगे कि जमानियां भगवान परशुराम की जन्मभूमि है। मुझे इस बात का गर्व तो है कि मैं भी उसी मिट्टी में पैदा हुआ, लेकिन इसे कुछ नहीं दे पाने का कहीं न कहीं मलाल भी है जो भीतर ही भीतर सालता रहता है। खैर, उम्मीद है आप लोग भी इस लेख श्रृंखला को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। )
गाजीपुर की एक तहसील जमानियां। जी हां, वही गाजीपुर जिसे कभी कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके डा. मुख्तार अंसारी के नाम से लोग जानते थे। और आजकल, माफिया डान मुख्तार अंसारी के नाम से जानते हैं। खैर, गाजीपुर मेरा जिला है, और जमानियां मेरी तहसील। यहां के बाशिंदों की जुबान पर एक जुमला अक्सर आकर ठहर जाता है। ‘जमाने से आगे जमानियां….’। लेकिन मैं आज तक समझ नहीं पाया कि लोग ऐसा कहते क्यों हैं...खैर, मिलते हैं जमानियां से।
ज्योग्राफी के लिहाज से जमानियां दो हिस्सों में बंटा है...जमानियां स्टेशन और जमानियां कस्बा। जिस जमानियां को मैंने जिया है, वो जमानियां कस्बा है..जहां तहसील, थाना, अस्पताल, मिडिल स्कूल, गर्ल्स स्कूल और हेड पोस्ट आफिस है। यानि कि मोटे तौर पर आप जमानियां कस्बे को डेवलपिंग और जमानियां स्टेशन को अंडर डेवेलप्ड कह सकते हैं।
जमानियां मेरे गांव किशुनीपुर से तीन किलोमीटर पश्चिम में है। इस हिंदू बहुल कस्बे में मुसलमानों की आबादी भी ठीक ठाक है। दो अलग अलग-मजहबों के लोग यहां एक दूसरे की जिंदगी में इस तरह रच बस गए हैं कि आपके लिए बातचीत के लहजे और बाकी चीजों से उन्हें पहचानना थोड़ा मुश्किल होगा। दशहरा और दुर्गा पूजा जैसे मौकों पर मजहबी भाईचारे की जबरदस्त मिसाल आपको यहां देखने को मिल सकती है।
नाम की बात करें तो जमानियां नाम मुगलकाल की पैदाइश है। नहीं तो, कभी इस कस्बे को जमदग्नियां तो कभी मदन बनारस के नाम से जाना जाता था। हो सकता है आप में से बहुतों ने इस कस्बे का नाम न सुना हो लेकिन हकीकत ये है कि ये कस्बा ऐतिहासिक तौर पर बेहद समृद्ध रहा है। और इसका पौराणिक महत्व तो इसे किसी भी बड़े शहर से ज्यादा बड़ा बना देता है।
विष्णु के अवतारों भगवान राम और कृष्ण की जन्मभूमि को कौन नहीं जानता। लेकिन ये जमानियां का दुर्भाग्य ही है कि इतनी उर्वरा धरती के बारे में गिने चुने लोगों को ही जानकारी है। दरअसल विष्णु के ही एक और अवतार भगवान परशुराम का जन्म जमानियां में हुआ था। आपने गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाते हुए राजा भगीरथ के ऱथ का पहिया फंसने की कहानी भी सुनी होगी। ये वाकया भी इसी जमीन पर पेश आया था। आजकल उस जगह को चक्काबाँध कहा जाता है।
आपको ये सब कुछ जानकर हैरानी हुई होगी। पौऱाणिक तौर पर समृद्ध कस्बे को कोई नहीं जानता। और आपकी ये हैरानी ही असल में मेरे जैसे तमाम लोगों के लिए एक सजा है जो खुद को इस मिट्टी से जोड़कर देखते हैं। लेकिन औरों की बात क्या करुं मैं खुद इस माटी का गुनहगार हूं। पिछले पांच सालों से दिल्ली में हूं लेकिन इस बारे में कुछ भी कहने सुनने की जहमत पहली बार उठा रहा हूं।
जमानियां में रहने वाले लोग अपनी विरासत को लेकर कितने सचेत हैं इसका नमूना है यहां का परशुराम मंदिर। आप सोच रहे होंगे कि ये मंदिर बहुत ही भव्य होगा तो जनाब ये आपकी गलतफहमी है। हालांकि इस मंदिर को किसी राजा ने बनवाया था लेकिन इसे देखकर गांव गिरांव में बने शिवालों की ही याद ताजा हो पाएगी। उपेक्षा का आलम ये है कि इसकी रंगाई पुताई भी समय से नहीं हो पाती है और कुछ लोग तो इसके पीछे पेशाब करने से भी नहीं हिचकते।
कुछ सालों पहले बाबूजी ने परशुराम जयंती मनाने की पहल की थी। कुछ वक्त तक बहुत ही जोशो खरोश के साथ ये कार्यक्रम चला। लेकिन खाने कमाने में लगे यहां के बाशिंदों का रुझान इसे जारी रखने में एक बड़ी बाधा साबित हुआ। दो चार सालों में जयंती मनाने का उत्साह ठंडा पड़ गया। और ले देकर फिर वही...ढांक के तीन पात।
अब बात कर लेते हैं इस कस्बे की सियासत की। राम मंदिर आंदोलन के दौरान जमानियां विधानसभा सीट से बीजेपी जीती भी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद इस तहसील का माहौल बदल गया। तहसील पर बैठने वाले नेताओं की डील डौल, बोल-चाल और चाल-ढ़ाल देखने से ही पता चल जाता था कि लखनऊ की गद्दी पर किसी यादव का कब्जा हो चुका है। खैर, इस क्षेत्र में यादवों का वर्चस्व है, सो ये तो होना ही था।
जमानियां विधानसभा सीट से सपा का उम्मीदवार लगातार दो बार चुनाव जीता लेकिन जमानियां कस्बे को विकास के नाम पर कुछ भी नहीं मिला। हालांकि सड़क, गंगाजी के घाटों का पक्का निर्माण, बिजली की व्यवस्था जैसे कई बुनियादी सवाल कायम रहे, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। इस बार के चुनावों में दलित ब्राह्मण गठजोड़ ने यहां भी रंग दिखाया है लेकिन क्या कुछ बदलेगा ये तो वक्त बताएगा।
जमानियां के गंगाजी के घाटों, पीपे के पुल, और यहां के मशहूर जय हलवाई के समोसों का जिक्र आए बिना इस कस्बे की मुकम्मल तस्वीर बनाना बहुत मुश्किल है। आपको चलते – चलते ये जरुर बताना चाहूंगा कि बाकी मामलों में जमानियां की हालत चाहे जैसी हो। मोबाइल धारकों की तादाद यहां गजब है। बड़े शहरों में रहने वाले लोगों के पास शायद वो मोबाइल फोन न हों...जो यहां के निम्न मध्यम वर्ग के हाथों में दिख जाएंगे। चलते-चलते एक और रोचक जानकारी। बालीवुड के जाने माने फिल्म अदाकार आमिर खान का ननिहाल इसी कस्बे के पठानटोली मुहल्ले में है।
अगर ये सब जानकर आपको समझ में आ गया हो कि जमानियां जमाने से आगे क्यों है...? तो बताइएगा जरुर....।
Saturday, December 8, 2007
२० साल की यमुना
Friday, December 7, 2007
'ऑफ द रिकॉर्ड' का पचासा पूरा
Thursday, December 6, 2007
व्हाट एन आइडिया सर जी..
Wednesday, December 5, 2007
भूल क्यों नहीं जाते हम 6 दिसंबर को ?
कल 6 दिसंबर है। कुछ लोग इसे शौर्य दिवस के तौर पर मनाएंगे। कुछ इसे कलंक दिवस की तरह याद करेंगे, काली पट्टी बांधकर घूमेंगे और नारेबाजी करेंगे। तो कुछ जरुरत से ज्यादा संवेदनशील लोगों की प्रजाति (बुद्धिजीवी) के लोग इंडिया गेट पर बाबरी मस्जिद की याद में कैंडेल लाइट प्रोटेस्ट करेंगे। बहरहाल, ये तमाम लोग जो करें मैंने तो तय किया है कि मैं 6 दिसंबर को ‘मूर्ख दिवस’ के रुप में मनाऊंगा।
वैसे भी एक अप्रैल कब आता है, और निकल जाता है। कुछ पता ही नहीं चलता। गर्मियों का मौसम जो होता है। लोग अपने अपने घरों में बंद रहते हैं। और हर साल मूर्ख बनने और बनाने की साध पूरी ही नहीं हो पाती। अब ‘मूर्ख दिवस’ कोई हैप्पी बर्थडे तो है नहीं कि बाद में ‘बिलेटेड अप्रैल फूल’ मना लें।
लिहाजा अब से हर साल मैं इस दिन को ‘मूर्ख दिवस’ के तौर पर मनाऊंगा। क्योंकि यही वो दिन है जब भारत में किसी को मूर्ख बनाने की जरुरत नहीं पड़ती। आम जनता, राजनेता, संस्कृतिकर्मी, समाजसेवी , पत्रकार और बुद्धिजीवी हर कोई बाइ डिफाल्ट इस दिन मूर्ख बन जाता है। उसे महसूस भी नहीं हो पाता है कि शातिर नेताओं ने इस तारीख को आम जनता और तमाम दूसरे लोगों को मूर्ख बनाने का हथियार बना लिया है।
कुछ सियासी दल और नेता इस तारीख को अपनी उपलब्धि बताकर मूर्ख बनाते हैं तो कुछ इसे बुनियाद बनाकर खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करते हैं। लेकिन दोनों का ही मकसद होता है लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उन्हें बेवकूफ बनाना। और उनकी इस मुहिम में आम जनता क्या हम सभी पढ़े लिखे लोग गाजे बाजे के साथ शरीक होते हैं, और हमें अहसास ही नहीं होता कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा है। इस तरह मूर्ख दिवस मनाने के लिए इससे बेहतर तारीख खोज पाना बेहद मुश्किल काम है।
चूंकि ये 6 दिसंबर है तो इसे भूलने का तो कोई मतलब ही नहीं है। अगर मैं भूल भी गया, तो सुबह-सुबह अखबार मुझे याद दिला देगा कि आजाद भारत की सबसे अहम तारीख आज है। ये कोई सुभाष चंद्र बोस, अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल या भगत सिंह की जयंती तो है नहीं कि मीडिया की सर्कुलेशन और टीआरपी पर कोई असर न पड़े। अखबार, टीवी चैनल पर मातमपुर्सी तो होनी ही है...लिहाजा ‘मूर्ख दिवस’ मनाने से चूकने का कोई मौका नहीं है।
मान लीजिए...किसी वजह से टीवी या अखबार नहीं भी देख पाऊं तो घर से बाहर तो निकलना ही है। अगर मैं दिल्ली की बजाए किसी और छोटे या मझोले शहर में भी रहता तो घर से बाहर निकलते ही छह दिसंबर याद आ जाता। क्योंकि यही वो महान दिन है जब हिंदुओं और मुसलमानों को अपने मजहब के प्रति अपनी वफादारी साबित करने का मौका मिलता है।
ये शानदार मौका, बिना जूलूस निकाले भला कैसे जा सकता है। भले ही शहर में ट्रैफिक जाम लग जाए लेकिन जूलूस तो निकालना ही है। कुछ लोग ट्रकों, बसों और दूसरी गाड़ियों में लदे माथे पर केसरिया पट्टी बांधे ‘जय श्रीराम’ के गगनभेदी नारे लगाते हुए नजर आएंगे। ऐसा लगेगा जैसे विश्व विजय करके निकले हों। तो कुछ लोग काली पट्टी बांधे, छाती पीटते हुए विलाप करते नजर आएंगे मानो बाबरी मस्जिद गिरने के बाद वो अनाथ हो गए हों।
अठ्ठाहास करने और आंसू बहाने वाले इन तमाम आम लोगों के अलावा एक और भी तबका है जो छह दिसंबर को काफी सक्रिय हो उठता है। ये उन दिमागदार लोगों का हूजूम है जिन्हें हम इज्जत के साथ ‘बुद्धिजीवी’ कहते हैं। ये लोग जाति, धर्म और जुबान की आम परिभाषाओं से बाहर होते हैं। खुद को इन घटिया दायरों में रखना इनकी शान के खिलाफ है क्योंकि इनकी नस्ल, हमारे आपके जीन्स में म्यूटेशन से तैयार होती है। इस नस्ल के लोग हर छोटे बड़े शहर में पाए जाते हैं, लेकिन दिल्ली में इनकी आबादी कुछ ज्यादा ही है। लेकिन ऐसा नहीं कि इनका अपना कोई संप्रदाय भी न हो। ये खुद को धर्मनिरपेक्ष संप्रदाय का मानते हैं।
दरअसल यही वो लोग हैं, जिन्होंने मुझे छह दिसंबर को मूर्ख दिवस के रुप में मनाने की सच्ची प्रेरणा दी। आम जनता को मूर्ख बनाना तो वैसे भी कोई मुश्किल काम नहीं है। अमूमन हर साल, किसी न किसी स्तर के चुनाव में देश के आदमखोर नेता इन्हें मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। ऐसे में मंदिर मस्जिद और मजहब के मसलों पर इनकी मूर्खता का ऊफान पर आना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन छह दिसंबर की महिमा के क्या कहने। खुद को उन्नत नस्ल का प्राणी समझने वाले बुद्धिजीवी लोग भी इस दिन मूर्ख बन जाते हैं।
आम तौर पर साहित्यकार, कलाकार, लेखक, सोशल वर्कर और पत्रकार बिरादरी के लोग इस तबके की आबादी में शामिल होते हैं। इनमें से ज्यादातर धर्म निरपेक्ष संप्रदाय के होते हैं लिहाजा ये लोग छह दिसंबर को भारत के मुंह पर कालिख के तौर पर देखते हैं। और इस कालिख को छुड़ाने के लिए इस दिन ये उन पार्टियों और उनके नेताओं को बल भर गरियाते हैं जिनकी वजह से मुगलकाल की सांस्कृतिक विरासत तबाह हो गई, और ये लोग दुनिया के सामने मुंह दिखाने के काबिल नहीं बचे।
अगर आप इनसे मिलना चाहते हैं तो वक्त बिल्कुल सटीक है। आप कल थोड़ा वक्त निकालकर कनाट प्लेस के पास फिक्की आडिटोरियम, श्रीराम सेंटर, एनएसडी, एलटीजी या कमानी आडिटोरियम में तशरीफ ले जाइए। आपकी मुलाकात इन लोगों से जरुर हो जाएगी। साथ ही आपको उम्दा किस्म के भाषणों की सौगात भी नसीब होगी, सो अलग।
ऐसा नहीं है कि इन लोगों को पता नहीं है कि दरअसल वो भी शातिर नेताओं के हाथों में खेल रहे हैं। ये हमसे बेहतर जानते हैं कि जिस दिन लोग छह दिसंबर को भूल जाएंगे, बीजेपी, कांग्रेस, सपा और उन तमाम पार्टियों के लिए कोई मुद्दा नहीं बचेगा जो खुद को एक खास समुदाय का हितैषी बताकर वोट बैंक बढ़ाने की सियासत करता है।
यही वो मुद्दा है जिससे हर साल इन दो समुदायों के बीच दंगा कराने की जमीन तैयार की जाती है। कुछ लोग मजहबी बदले के नाम पर तो कुछ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आम आदमी को हिंदू – मुसलमान में बांटकर रखने की साजिश करते हैं ताकि चुनाव में लोग असल मुद्दों पर बात न करने लगें। लोग ये न पूछने लगें कि महंगाई क्यों बढ़ी, सड़कें क्यों नहीं बनीं, नल में साफ पानी क्यों नहीं आता, दिनभर बिजली क्यों गुल रहती है, और हम महफूज क्यों नहीं हैं..?
अफसोस की बात ये है कि इस खतरनाक साजिश में ये बुद्धिजीवी किस्म के लोग इन आदमखोर राजनेताओं का भरपूर साथ देते हैं। उन्हें लगता है कि वो 6 दिसंबर की मातमपुर्सी करके एक महान काम कर रहे हैं..? इससे लोगों में ये संदेश जाएगा कि कट्टरवाद बुरी चीज है...लेकिन साहब...भाषणबाजी करके, नुक्कड़ नाटक करके या इस मुद्दे पर सेमिनार करके आप जो करते हैं, उसके लिए आपको कतई माफ नहीं किया जाना चाहिए।
कायदे से आपको आम जनता को ये बताना चाहिए कि अतीत में हुए हादसों को भूलकर आगे कैसे बढ़ा जाए...? आपको उन्हें इस बात के लिए सावधान करना चाहिए कि वो इन हिंदूवादी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बहकावे में न आएं। उन्हें समझाने की कोशिश करनी चाहिए कि इस दिन हाय तौबा मचाने से कुछ भी नहीं मिलेगा। हम ताउम्र हिंदू और मुसलमान बने रह जाएंगे, और हमारी इस नफरत का फायदा वो भेड़िये उठाते रहेंगे जिनके लिए मंदिर और मस्जिद कुर्सी हासिल करने का जरिया से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
बेचारी आम जनता तो आम है, वो भला इतने दांव पेंच कहां से समझेगी। उसे तो बस इतना पता है कि फलानी पार्टी अगर मंदिर बनवाना चाहती है तो वो हिंदुओं के हिंतों की रक्षा बेहतर करेगी। या उसे ये गफलत है कि फलानी पार्टी की सरकार हज यात्रा के लिए ज्यादा सब्सिडी दे रही है तो वो मुसलमानों की पेरौकार है। इन्हीं छलावों की वजह से वो हर साल ६ दिसंबर को जान हथेली पर रखकर जूलूस निकालती है। बिना इस बात की परवाह किए कि अगर किसी ने इस मौके का इस्तेमाल दंगे भड़काने के लिए कर लिया तो उन मांओं का क्या होगा जिनके बच्चे बेमौत मारे जाएंगे। उन मासूमों की परवरिश कौन करेगा जिनके सिर से बाप का साया उठ जाएगा।
वैसे भी 6 दिसंबर को याद रखने से हमें क्या मिला। दुनिया भर में मजहबी दंगे। दंगों में मारे गए हजारों लोगों की लाशें। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती दूरियां। मस्जिद गिराने के नाम पर मुसलमान युवकों को बरगलाकर आतंकवादी बनाने की घटनाएं। इसमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो किसी भी समाज को विकास की ओर ले जाता हो। मुंबई में साल 93 में हुए बम धमाके हों या गोधरा कांड...सिवाए इंसानियत के शर्मसार होने के इस तारीख ने हमें कुछ भी नहीं दिया है।
अब वक्त आ चुका है कि हम समझें कि मंदिर मस्जिद में कुछ भी नहीं रखा है। मेरा तो मानना है कि उस ढ़ांचे को गिराकर वहां कोई बड़ा अस्पताल या कालेज बना देना चाहिए। क्योंकि आज अयोध्या की बात हो रही है कल मथुरा और बनारस की बात होगी। आखिर ये सिलसिला कहां थमेगा। हमारी धार्मिक भावनाओं को भड़काकर सियासी लोग हमें बांटकर अपनी रोटियां सेंकते रहेंगे। हमारी असली विरासत दरअसल वो संस्कृति जिसमें तमाम अलग अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों के लोग एक साथ रहते हैं।
जरुरत इस बात कि है कि तमाम जागरुक किस्म के लोग इसके लिए ईमानदार कोशिश करें। आस्था एक अलग चीज है। हम हिंदू और मुसलमान होते हुए भी इंसान बने रह सकते हैं। इसके लिए धर्मनिरपेक्ष होना कतई जरुरी नहीं है। मेरा मानना है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की थोथी मुहिम के चलते ही हम जाने-अनजाने ऐसे मुद्दों को खत्म नहीं होने देते।
चूंकि मीडिया और संचार के दूसरी व्यवस्थाओं पर हमारा कब्जा है लिहाजा हमारी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है कि 6 दिसंबर जैसे दिन को भुलाकर आम आदमी को उसके तमाम दूसरे अधिकारों के प्रति सजग करें...ताकि धर्म के नाम पर सियासत करने वाले लोगों के खतरनाक मंसूबे कामयाब न हो सकें। ताकि कोई पार्टी ये न प्रोपोगेंडा कर सके कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी हिंदुओं के वजूद के लिए खतरा है।
आखिर में कहना चाहूंगा कि जिस दिन हमारे देश के इन जागरुक बुद्धिजीवी लोगों का तबका इस दिशा में कोशिश करना शुरु करेगा मैं भी ६ दिसंबर को मूर्ख दिवस के तौर पर मनाना बंद कर दूंगा और मुझे इस बात का कतई अफसोस नहीं होगा..। लेकिन निकट भविष्य मुझे ऐसा होता नहीं दिख रहा लिहाजा कम से कम कल तो मैं पूरे हर्षोल्लास से ‘मूर्ख दिवस’ मनाऊंगा...और मौका मिला तो मंडी हाउस भी जाऊंगा.. उन मूर्खों के दर्शन करने जो जोश खरोश के साथ लगे होंगे....मेरे इस आइडिया को एक मजबूत तर्क देने में....खैर, आप सभी को ‘मूर्ख दिवस’ की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं...!
आपके चश्मे का नम्बर क्या है???
अशोक बन गए हैं बुद्धदेव
Monday, December 3, 2007
आखिर सवर्णों को गरियाने से क्या मिलेगा?
(मोहल्ला www.mohalla.blogspot.com पर दिलीप मंडल जी का लेख पढ़ने के बाद मन में जो कुछ आया वो इस पन्ने पर उतर गया। मुझे भी समाज में आ रहे बदलाव अच्छे लगते हैं। ये भी अच्छा लगता है कि जाति के आधार पर कर्म के बंटवारे की अमानवीय रुढ़ियां टूट रही हैं। लेकिन इस बदलाव को हाइलाइट करने के पीछे विद्वेष की भावना मुझे अच्छी नहीं लगती। ये जानते समझते हुए भी मैं अपनी बात कह रहा हूं कि ये लेख मेरे लिए बेहद खतरनाक भी साबित हो सकता है। कुछ लोग मुझे ब्राह्मणवादी भी घोषित कर सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सिक्के के दोनों पहलू सामने आने चाहिए। अगर आप मेरे बारे में पूर्वाग्रह बनाते हैं तो मेरे साथ अन्याय होगा। दरअसल ये उन लोगों की बात है जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते।)
तिलक, तराजू और तलवार...इनको मारो जूते चार। वक्त बदला, सियासी समीकरण बदले और फिर देखते ही देखते नारे भी बदल गए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि जूते मारने की ये परंपरा नहीं बदली। बस हाथ बदल गए हैं, लंबे समय तक ब्राह्मणों ने इस शानदार काम को जिम्मेदार ढ़ंग से अंजाम दिया और अब दलित और पिछड़े वर्ग के कुछ झंडाबरदार कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनके सामने दो जून की रोटी और सामाजिक पहचान का अब कोई संकट नहीं बचा।
दलित और पिछड़े तबके के अधिकारों की वकालत करने वाले इन बुद्धिजीवियों को समाज में आए बदलाव इसलिए उत्साहित नहीं करते क्योंकि उससे सोसाइटी में इंसानियत की जड़ें मजबूत होती दिखाई पड़ती हैं। बल्कि उन्हें इस बात से कहीं न कहीं मजा आता है कि देखो सालों ! ( ब्राह्मणों ) की क्या हालत हो गई है। अपने पुरखों के अपमान से छलनी मन अनजाने में ही सही लेकिन मंत्र मुग्ध हो उठता है और अपनी ही अंतरात्मा से एक प्रतिध्वनि आती है, “ अब इन्हें पता चलेगा कि किसी और की लैटरिंग साफ करने में कितना आनंद आता है। ”
यूपी इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि आम आदमी अब अच्छी जिंदगी चाहता है। सुशासन चाहता है। उसे इस बात की परवाह नहीं है कि उसका नेता एक दलित है या ब्राह्मण। जाति और धर्म की विभाजक रेखाएं धुंधली पड़ती जा रही हैं। हो सकता है कि सियासत की बिसात पर ये वजहें बेहद तात्कालिक नजर आएं लेकिन ये सब कुछ कहीं न कहीं बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है। ऐसे में देश, दुनिया और समाज में मानवीय बदलावों के पैरोकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, चाहे वो किसी भी जाति, धर्म या समुदाय विशेष के क्यों न हों।
हमारे मुल्क में किसी जमाने में अंग्रेजों की हूकूमत थी। उन्होंने हमें सालों गुलाम बनाकर रखा। हम पर बहुत अत्याचार किया। लेकिन आज हम आजाद हैं। हम अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीते हैं। लेकिन जो कुछ भी उन्होंने हमारे साथ किया, क्या उसे याद रखते हुए हम आज के अंग्रेजों से अपने रिश्ते तय करेंगे। क्या हम उनकी पीढ़ियों को इस बात के लिए कोसते रहेंगे कि उनके पुरखों ने हमारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया? आज की तारीख में अगर अंग्रेजों पर भी ठीक उसी तरह का जुल्म हो तो क्या ऐसा हो सकता है कि हम उसका विश्लेषण कुछ इस तरह से करेंगे जिससे हमारे नजरिए से बदले की भावना की दुर्गंध आए..?
लैटरिंग साफ करना ठीक उसी तरह एक काम है जैसे कि कपड़े साफ करना। हकीकत ये है कि एक निश्चित देश काल परिस्थिति में ब्राह्मणों ने एक खास जाति को नीचा दिखाने की साजिश की तहत लगातार ये काम (मैला साफ करने) करने को मजबूर किया। तत्कालीन हालात में वो खास जाति कमजोर थी। उसकी आर्थिक या सामाजिक स्थितियां ठीक नहीं थीं। कानूनी तौर पर उसे कोई अधिकार नहीं मिला था। शायद यही सारी वजहें रहीं कि वो खास जाति इस अन्याय का विरोध नहीं कर पाई और इस काम को उसकी पहचान का हिस्सा बना दिया गया। इस तरह से एक घटिया किस्म की विचारधारा (ब्राह्मणवाद) ने समाज में एक अमानवीय व्यवस्था को जन्म दिया। और ब्राह्मण वर्ग के तमाम पढ़े लिखे और खुले दिमाग के लोग इसे स्वीकार करने से पीछे नहीं हटते।
आज भी कोई भी शख्स चाहे वो पांडे जी, मिश्रा जी, तिवारी जी या यादव जी हो.. तब तक किसी और की लैटरिंग साफ नहीं करेगा जब तक कि उसके सामने निवाले का संकट न खड़ा हो गया हो। खास कर उस तबके के लोग तो कतई नहीं करेंगे जिनको बचपन से ही समाज में श्रेष्ठ होने का बेहूदा बोध कराया जाता रहा हो। ऐसे उदाहरण हमारे आस-पास सामने आते हैं तो ये सामाजिक बदलाव का महज एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू ये है कि समाज में तमाम पिछड़ी और दलित जातियों के आक्रोश की शिकार ब्राह्मण जाति में भी एक बड़ी आबादी के सामने भूखे मरने तक की नौबत आ चुकी है। ये वो जाति है जिसने अपनी झूठी शान बचाए रखने के लिए कभी खेत खलिहान में मेहनत नहीं की। और आबादी बढ़ने के साथ साथ होने वाले बंटवारों ने इस जाति के एक बड़े तबके को उस हालत में पहुंचा दिया है जहां वे पिछड़ी और दलित जाति की एक आबादी से भी बुरी हालत में पहुंच चुका है। इनकी तकलीफों को महसूस करने के बजाए सामाजिक बदलाव के विश्लेषण के नाम पर इनका मजाक उड़ाना कहां की इंसानियत है?
अगर आप थोड़ी जहमत उठाकर कुछ और सर्वेक्षण करेंगे तो आपको पता चलेगा कि अपार्टमेंट और आफिस के गेट पर खड़े गार्ड्स, ठेले पर सब्जी बेचने वाले और कारखानों में मजदूरी करने वालों या रिक्शा खींचने वालों में भी बड़ी आबादी ब्राह्मणों या सवर्णों की है। लेकिन हूजूर, अगर हमारे- आपके भीतर थोड़ी भी इंसानियत बाकी है तो हमें बदलते समाज की तस्वीर को अलग-अलग चश्मों से देखना होगा।
किसी पिछड़े या दलित परिवार में पैदा होने के साथ ही ब्राह्मण को देखने वाला नफरत का जो चश्मा हमारी आंखों पर लग गया था,उसे उतारकर एक उदार चश्मा लगाने की जरुरत है। नहीं तो हम भी वही करेंगे, जो घटिया मानसिकता के शिकार ब्राह्मणों ने लंबे समय तक किया। अगर ठीक से पड़ताल की जाए तो आप पाएंगे कि ब्राह्मण अब कोई जाति नहीं रही, ये तो एक विचारधारा बन गई है।
ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा जिसे हम आप जाने अनजाने पुष्पित पल्लवित करते रहते हैं। चीजों को हवा-हवाई ढ़ंग से कहने की बजाए जमीनी स्तर पर देखना ज्यादा जरुरी है। आपको परेशानी इसी बात से है न कि ब्राह्मणों या सवर्णों ने छद्म श्रेष्ठता के बल पर समाज को बांटकर रख दिया और तमाम दूसरी जातियों को नीचा दिखाया। लेकिन ये काम तो आज सभी जाति के लोग कर रहे हैं। और तो और दलितों में भी कई जातियां हैं जो ये कहते हुए किसी खास जाति में विवाह करने से इनकार कर देती है कि वो उनसे निकृष्ट हैं। एक खास जाति के लोग अपनी ही जाति के दूसरे तबके के लोगों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते। मैं दलित और पिछड़े तबके के बहुत से आला अफसरों को जानता हूं जो दौलत और शोहरत मिलने के बाद अपनी ही जाति के लोगों के साथ कायदे से पेश नहीं आते। ऐसे में ब्राह्मण को नीचा दिखाने की दलित इच्छा को पूरा करने से अच्छा है कि हम समाज में बुनियादी बदलावों के लिए कोशिश करें।
सभी जानते हैं कि सियासत ने भारतीय समाज को कई छोटे-छोटे हिस्सों में बांट रखा है। हर पार्टी जातिगत आधारों पर अपने उम्मीदवारों का चुनाव करती है। जाति के आधार पर ही सरकार में सीटों की हिस्सेदारी तय होती है। इस तरह देश को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाले सियासी लोगों ने डिवाइड एंड रुल की पालिसी के तहत जनता को पहले से ही बुरी तरह बांट रखा है। ऐसी हालत में अगर हम और आप जैसे तमाम लोग (जिन्होंने सामाजिक बदलाव का ठेका लिया है) अपने पूर्वाग्रहों और तकलीफों को भुलाकर समाज को जोड़ने के लिए काम नहीं करेंगे तो आखिर कौन करेगा? अगर हम दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिलाने की मुहिम में साथ हो सकते हैं तो गरीब सवर्णों को आरक्षण और तमाम दूसरी सहूलियतें देने के मुद्दे पर अलग-अलग क्यों रहें?
वक्त बदल रहा है। समाज बदल रहा है। एक एक कर रुढ़ियां टूट रही हैं। गलत परंपराओं की बलि चढ़ाई जा रही है। समाज विकास की ओर बढ़ना चाहता है। हम पहले से भी कहीं बेहतर इंसान बनने में लगे हैं। ऐसे में बार- बार जाति, धर्म या समाज विशेष में आए बदलावों को बड़े फलक पर देखने की बजाए चटकारे लेकर विश्लेषण करने से हाशिए पर जीने वालों को कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि ये तो आप भी जानते हैं कि ब्राह्मण तो एक धूर्त जाति है, वो तो अपने वजूद के लिए कुछ भी कर सकती है। वैसे भी आप देख ही रहे हैं कि जब सवाल पेट का उठा तो दुबे जी और पांडे जी को लैटरिंग की तंदूर पर सिकीं रोटियों से भी कोई परहेज नहीं है....।
कुछ टूटा है, जिसका दूर तक असर है
कुछ टूटता है तो उसका असर होना लाजमी है। वक्त के साथ टूटता है तो ददॆ के साथ दाग भी छोड़ जाती हैं। पिछले दिनों नंदीग्राम ने बहुत कुछ टूटा। ददॆ के साथ। दूर तक असर भी छोड़ गया। वक्त पर कुछ निशान छोड़ गया। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी नंदीग्राम के दौरे पर गए। वहां उनकी चप्पल टूट गई। उनकी चप्पल का मरम्मत करता मोची और बगल में बैठ कर अपनी चप्पल ठीक करवाते गांधी की तस्वीर देश के लगभग सभी अखबारों में छपी। पूरे देश ने उसे देखा। नहीं देखा तो उसके पीछे का ददॆ। जो बहुत पहले ही अपने निशान उस तस्वीर के पीछे छोड़ गया था। उस ददॆ की गूंज बहुत लंबे समय तक सुनाई देगी। चप्पलें तो फिर भी ठीक हो सकती हैं। मरम्मत हो सकती हैं। पर उस ददॆ का क्या। जो उनके ऊपर एक निशान छोड़ गया है। क्या उसके लिए भी कोई मोची मिलेगा। क्या धागों और सुईयों से उस जख्म को भरा जा सकता है। फिर उस मरहम को हम कहां से लाएंगे। जो वक्त को ददॆ को भर दे। उस निशान को हमेशा के लिए मिटा दे। और कह दे जो हुआ वह महज एक हादसा था। और हम उसे भुला दें।
Complete only with Yin and Yang...
[This is an old article, and some of you might
have read it, but yet thought to share it with you all here again, as I found
some new faces off the record here...]
To deny the feminine aspect of self is to deny a complete life. The completeness of God is owing to this melding of both the female and the male aspects. Sacred feminine therefore is a pursuit of those looking to achieve God-like completeness...A FRIEND ASKED me once about my thoughts on being a devotee of sacred feminine. I did would like to share with you what I conveyed to him. As far as my concept of divinity is concerned, I believe God is beyond number, count and gender. God is one and more than one. God is both male and female and beyond the male-female dichotomy. We may worship the divine in any form we choose and God responds in kind. Lord Krishna says: “In whatever form people relate to Me, I respond in the same form.”Several relationships with the Divine are described: the Divine as father, as mother, as friend, as husband or wife and as child. In our country, the Divine is worshiped in all these forms, and by true nature I accept all the people as they are (but it does not mean I follow them...). And, I am, from my basic nature, Matri-shakti Upasak. So, you can call me a devotee of sacred feminine.Not just in India, but there is a resurgence of interest in the sacred feminine, especially in the West. Recently, the whole world was discussing about the Da Vinci Code and an analysis given by Dan Brown, which is as follows.Early Christianity entailed "the cult of the Great Mother". Mary Magdalene represented the feminine cult and the Holy Grail of traditional loreShe was also Jesus’ wife and the mother of his childrenMagdalene’s womb, carrying Jesus offspring, was the legendary Holy Grail (as seen in Da Vinci’s encoded painting, The Last Supper)Jesus was not seen as divine (God) by his followers until Emperor Constantine declared him so for his own purposesThe "truth" about Christ and Mary Magdalene has been kept alive by a secret society named the Priory of Sion that was lead by great minds like Leonardo Da Vinci and Isaac Newton.I would say that we could be truly human only through our connection to the sacred feminine. She is part of us and we are part of Her. If we deny our feminine aspect, we lead incomplete lives. She helps us to integrate our body, mind and soul. It is the integration of our masculine and feminine aspects that makes us whole and holy. We can be gentle and strong, intuitive and intellectual, inward and outward, reflective and active. We can love one another and care for each as brothers and sisters, as husbands and wives. We need the Goddess in our lives to repair, to nurture and to heal.I don’t expect anyone to agree with all these, but just put what I have been thinking about our Feminine Aspects of Nature... and I am sorry to say that I havn’t read much of philosophy. But I think the phenomena that everybody is talking about, has already been there in the roots of our country… it is not like whatever the screnario (unluckily a bitter truth of male dominance) is there, is there from the start, it is all man-made, and nowhere mentioned in any of our Veda/Upnishad/Aranyak or Sanhita, and I am sure that everyone who has written the Bhashya (which is nothing but individual’s understanding of Veda) or tried to explain the concept of Sacred Feminie, has just accumulated the ideas from those roots. Sometimes I wonder so much is said and too little is followed. If you will go through our creation story (as it is mentioned in Brihad-Aranyaka Upanishad or the Book of Forest Teaching), you will find that in the beginning was the Self in the form of Purusha, or the Great Being. He looked around and found none else but himself. And, the Great Being said Aham in Sanskrit, or I am. That is how the Self came to be known as I am. He was afraid. But then he said to himself, "Of what am I afraid? There is none other than myself. Once he realized this, the fear was gone. But he had no delight, for one who is all alone, does not rejoice. The Great Being desired a second. He caused himself to grow as big as a man and woman closely embracing. He then caused himself to fall into two parts, and from this, a husband and wife were born.Sage Yagna-valkya says: “One is like a half fragment, and this incompleteness is filled by a woman. The Great Being united with her, and thus the human race was born. But the woman reflected, how can he unite with me after producing me from himself? For shame, I will conceal myself. Thus followed the game of hide and seek between him and her. She hid herself becoming the cow. He became the bull and united with her; the bovine creation followed. She concealed herself as the mare; he became the stallion and the horse race ensued. She became a female-goat, and he a billy-goat, and from their union all goats were born. Thus followed several orders of creation, down even to the ants.” Says the scripture, “The Great Being then created the five elements: fire, wind, earth, water and space. He then created speech and names and forms to distinguish one from the other. God also created the fourfold order of society. Finally, he created Dharma, the Law that holds together the whole Creation.Once the creation was in place, He saw that He Himself was the creation for indeed He had released it from Himself. The creation is He Himself. And he who realizes this truth of creation becomes himself a Creator for he is identified with the creative process and the Creator. To know is to become. So, in this creation story, the whole existence is One, for it originates from the One. It is the One Self that has entered into every object and into these bodies, down to the very tips of the fingernails. God therefore is not aloof from His/Her creation.The creation is a manifestation of the powers and potentialities that reside within the Divine. Creation is not an illusion, or Maya. If God is real, then this creation is real since it originates from God. So, the Divine assumes a double form at the very moment of creation. The Great Being becomes two: male and female. God’s dual form represents two sides of One Reality — positive and negative, yin and yang, him and her.If you will observe then you will find that the act of creation is joyful and fun-filled. So, I will conclude it on the note: "To know is to become."
Sunday, December 2, 2007
कहाँ जाये तसलीमा ?
Saturday, December 1, 2007
Baatein Kuchh ankahee see..
By Anil Dubey