Saturday, May 24, 2008
एक बचपन ये भी...
उसका बचपन
अपने फटेहाल हाथों से
अधपके मन के बर्तन पर
उकेरता है वह
ग्राहकों-मालिकों की गालियों से
दुनियादारी के अक्षर,
उसने ककहरा नहीं सीखा
मगर सीख गया है बहुत कुछ-
मस्का लगाना, तफरी करना,
मां-बहन की गंदी गालियां...
और सबसे बढ़कर
नंबर दो का पैसा बनाना,
अखबारों के 'रंगीन चित्र'
ताजातरीन फिल्मों की तारिकाओं के
नख-शिख वर्णन होते हैं अक्सर उसकी चर्चाओं में,
प्लेटों-चम्मचों-गिलासों से ही
करता है वह सृजनशीलता की अभिव्यिक्त,
बचपन के बचपने को भूलकर वह
बर्तनों की खरखराहट में भी ढूंढता है
मां की लोरियां और
घिसता जाता है यूं ही अपने बचपने को।
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