Saturday, May 24, 2008

नौकर

1. नौकर


वह रोज चुपचाप आता है,
साफ करता है जूठे बर्तन और घर,
भरता है पानी और सुबह सुबह हमारा पेट।

हमारी गालियों घुड़कियों को सह लेता है,
पचपन की उम्र में भी अपने पीठदर्द की ही तरह।

ककहरा तक नहीं जानता,
शायद इसीलिए बाप दादा की उम्र का होकर भी,
हमें अपना माई-बाप समझता है....


(यह कविता मैंने उन दिनों लिखी थी जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए सेकंड ईयर का छात्र हुआ करता था। कविता साहित्य अमृत-अंक 2004, दीवार और समवेत पत्रिकाओं में छपी थी। यही नहीं पहली बार कुछ जानकारों ने तारीफ भी की, बहुत अच्छा लगा था उस वक्त..)

1 comment:

Rajesh Roshan said...

बढ़िया. बहुत अच्छा लिखा आपने