कुमार शैलेन्द्र
सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।
ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।
ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।
ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।
अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।
ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, औ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।
सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।
कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।
मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।
Friday, May 30, 2008
ज़हीनों की महफ़िल
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2 comments:
मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।
--बहुत उम्दा. वाह!
bahot khubsurat ghazal, kaafi dino baad kuch aur achche sheyr mile...par ab isi kram mein kuch padhna chahte hain :)
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