"बतकही" से जुड़कर ऐसा लग रहा है जैसे पत्रकारिता के अँधेरी भूलभुलैया में एक रास्ता मिल गया है .....सब सत्यमित्रम जी की मेहरबानी है उनके हम आभारी है .......वैसे तो कभी इस तरह से कुछ लिखा नहीं पर सवाल गांव की सोंधी मिटटी से जुड़ा है तो भाई कुछ लिखना ही पड़ेगा ...मैं जौनपुर ( उत्तर प्रदेश) में एक छोटा सा गांव बघौरा है (शेरवा) है जो मुख्यालय से 15 km इलाहाबाद रोड पर है ....मुग़ल बादशाह शाहजहा द्वारा शिराज - ए - हिंद के खिताब से नवाजा गया जौनपुर जनपद मध्यकालीन इतिहास में अपनी महत्ता स्थापित करता है, और एतिहासिक इमारतो जैसे अटाला मस्जिद , झझरी मस्जिद , शाही पुल आदि को अपने में संजोए हुए है ......आदि गंगा के रूप में प्रसिध्द गोमती के तट पर बसा जौनपुर प्राचीन काल में महर्षि यमदग्नी (परशुराम के पिता) के तापोस्थाली के रूप में जाना जाता है. तथा 1360 में जुना खां की स्मृति में बसाया गया था किवंदती के रूप में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रोटी और कमल रूपी प्रतीक की योजना मौलाना करामत अली की ही थी .
पहले के गाँव में और आज के गाँव में काफी फर्क आ गया है , वैसे तों आज संस्कृति और कला में काफी बदलाव आया है फिर भी गाँव तो गाँव है , सबसे पहले मैं बात करूँगा बचपन की वो तालाब और नहर में चुपके से नहाना और जब घर पे पता चाल जाये तो मम्मी के हाथ से मार भी खाना , गाँव में पहले कितना मजा आता था जब कजरी जैसे त्योहारों पर कजरी के गीत , कबड्डी के खेल और पतंग उड़ाना आदि आज भी नहीं भूलता ...पहले गाँव में फ़ोन की सुविधा नहीं थी फिर भी सूचना एक दूसरे तक आसानी से पहुच जाती थी मुझे खूब याद है केवल शहर में ही एकाध PCO थे लोग वहा जा कर बम्बई आदि जगहों पे फ़ोन करते थे ...पहले युवाओ की टोली बैठती थी तो देश हित की और स्वतंत्रता संग्राम की बाटे करते थे पर आज गाँव में पहले से काफी कुछ बदल गया है , लोग बैठते है तो शराब पीने या फिर गाजा , नशे की लत गाँव की तस्बीर ही बदल दी है ...आज गाँव के युवा चन्द्र शेखर आजाद , भगत सिंह आदि को अपना आदर्श बनाने के बजाय माफिया सरगानाओ को आदर्श बनाते है ....
पहले के गाँव में और आज के गाँव में काफी फर्क आ गया है , वैसे तों आज संस्कृति और कला में काफी बदलाव आया है फिर भी गाँव तो गाँव है , सबसे पहले मैं बात करूँगा बचपन की वो तालाब और नहर में चुपके से नहाना और जब घर पे पता चाल जाये तो मम्मी के हाथ से मार भी खाना , गाँव में पहले कितना मजा आता था जब कजरी जैसे त्योहारों पर कजरी के गीत , कबड्डी के खेल और पतंग उड़ाना आदि आज भी नहीं भूलता ...पहले गाँव में फ़ोन की सुविधा नहीं थी फिर भी सूचना एक दूसरे तक आसानी से पहुच जाती थी मुझे खूब याद है केवल शहर में ही एकाध PCO थे लोग वहा जा कर बम्बई आदि जगहों पे फ़ोन करते थे ...पहले युवाओ की टोली बैठती थी तो देश हित की और स्वतंत्रता संग्राम की बाटे करते थे पर आज गाँव में पहले से काफी कुछ बदल गया है , लोग बैठते है तो शराब पीने या फिर गाजा , नशे की लत गाँव की तस्बीर ही बदल दी है ...आज गाँव के युवा चन्द्र शेखर आजाद , भगत सिंह आदि को अपना आदर्श बनाने के बजाय माफिया सरगानाओ को आदर्श बनाते है ....
बदलना होगा हमें अपने समाज को और इस बुराई को नेस्तनाबूत कर देना है .क्या हम आज विकास के साथ - साथ अपनी संस्कृति को भूल गए है ? अगर परम्परा का हनन अपनी विरासत को भुलाना विकास है तो हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए .......इससे तो वो दौर अच्छा था ...........
1 comment:
बढ़िया है विवेकजी। बदलाव की सोच रहे हैं। अमल भी शुरू कीजिए। जितने लोग भी बदलाव के साथ होंगे। उतने लोग दूसरे पाले में कम होते जाएंगे।
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