Saturday, January 12, 2008

मेरा गांव और बाढ......-2

मेरे गांव के बारे में लोगों का कहना यह है कि मेरे पुरखे आज से तकरीवन ढाई सौ साल पहले मधुबनी से करीब तीस किलोमीटर पश्चिम बसैठ-चनपुरा से आए थे। बसैठ चानपुरा वहीं गांव है जहां इंदिरा गांधी के नजदीकी और बिवादास्पद योगी धीरेंद्र व्रह्मचारी का जन्म हुआ था। उस गांव मे अभी भी हमलोगों के मूल के व्राह्मण काफी संख्या में है। उस जमाने में पता नहीं हैजा या बाढ की बजह से लोग पलायन करते रहते थे। हिंदुस्तान में वो मुगलो का अवसान काल था और यह इलाका बंगाल के नवाब के अधीन था। दरभंगा महाराज उनके सामंत हुआ करते थे। कहते है कि उस जमाने में इस इलाके में बडे बडे जंगल थे, कुछ तो बिहार के उत्तरी भाग से लेकर हिमालय की निचली श्रृखलांओं तक फैले हुए थे। गांव में अक्सर तेंदुआ या बाघ आ जाता था और ऐसा आजादी मिलने के समय तक सुनने में आता था। अब पता नहीं वो जंगल कहां है, बढती आबादी ने जंगलो के बेतरह लील लिया और अब तो उसके अवशेष भी यहां मिलना मुश्किल है। आज यह इलाका भारत के घनी आबादी बाले इलाकों में गिना जाता है। पुराने लोगों की बातों पर यकीन करें तो बाढ तब भी आता था लेकिन उसका प्रकोप इतना नहीं था। बडे-बडे जंगल विशेषकर नेपाल की तराई के जंगल बाढ के पानी को आहिस्ता आहिस्ता मैदानों में आने देते थे और तकरीवन हरेक गांव में पोखरों की श्रृखला, ताल-तलैया और छोटी-छोटी धाराएं बडे-2 बाढ को पचा जाती थी। आज भी उत्तर बिहार के इस इलाके में-जिसे मिथिलांचल के नाम से जाना जाता है-हरेक गांव में आठ-दस पोखर या तालाव हैं जो दिन व दिन अतिक्रमण की बजह से उथले होते जा रहे है। पहले ये तालाबें जमींदारो की मल्कियत थी, लेकिन आजादी मिलने का बाद से इनका सरकारीकरण हो गया और लोगों ने तालाब को भरकर घर वनाना शुरु कर दिया। पतली-पतली जल धाराएं- जो पता नहीं नेपाल से कहीं से आती थी- जिनका हरेक गांव में अलग अलग नाम था और जो बडी नदियों में जाकर मिल जाती थी, लोगों द्वारा भर कर खेत बना ली गई है और स्वभाविकत; इससे पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुका है। विकास की तमाम योजनाएं ऐसी वनाई गई जिससे उत्तर से आने वाली नदियों के पानी का प्रवाह अवरुद्ध हुआ-जिसका सवसे बडा उदाहरण दरभंगा -निर्मली रेलवे लाइन है जो पश्चिम से पूरब लगभग सत्तर किलोमीटर तक पानी के लिए एक कृत्रिम अवरोध के रुप में डटी है। इसके आलावा दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाइवे भी इसी तरह का है। कहने का तात्पर्य यह विल्कुल नहीं है कि विकास की योजनाएं गैर-जरुरी है। मतलब सिर्फ इतना है कि इसका कोई लाजिकल तरीका खोजा जा सकता था। नेपाल की तराई में पहले घने जंगल थे-सागवान की लकडियो के लिए प्रसिद्ध। पिछले पचास साल में वहां की राजशाही के दौरान विकास के आधुनिक माडल के तहत जो जंगलों की हृदयहीन लूट हुई है उसने हिमालय के ढलान को नंगा कर दिया है और उसका सीधा असर उत्तर बिहार पर पडा है। इसके आलावा, कुछ न कुछ असर ग्लोवल वार्मिग का भी जरुर हुआ है जिसने वर्षा के चक्र को वेतरह प्रभावित किया है।
बाढ की समस्या में नदियों का सिल्टिंग एक महत्वपूर्ण कारण है। पिछले कई दशकों से बिहार के नदियों की सिल्टिंग नहीं हटाई गई है और बाढ जव आती है तो किनारों में अकल्पनीय क्षति पहुचाती है।

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