रतन टाटा उड़ते हवा में हैं। ऍफ़- 16 फाएटर प्लेन खुद ही उडाने की काबलियत रखते हैं। अब इन्होने आम आदमी को भी उड़ने का ख्वाब दिखाया हैं। ख्वाब दिखाना कोई बुरी बात नही हैं। आख़िर इसी पर तो सभी की दुकानदारी टिकी है। सौदागरों की तो अब बात ही क्या ? सभी अपनी दुकान सजाये उस तक पहुँचने को बेकरार दीखते हैं जिसे हम सभी आम आदमी कहते हैं । उत्पाद सभी के अलग हैं लेकिन मकसद एक है आम आदमी को आम ही बनाये रखना। ये हैं तो राजनीति हैं, सामाजिक ताना- बाना बरक़रार है। खैर बाज़ार के जानकर मानते हैं कि समय इसी आम आदमी के साथ है। जिसके पास मनी पावर बढ़ रही हैं। ये ही नया खरीददार हैं। ये खुशफहमी पालने वालो को दिलासा दे देने के लिए काफी है कि आखिरकार देश की सत्तर फीसदी की जमात भी खरीदारों की लिस्ट में शामिल हो गई हैं। अब ये भूखे रह कर भी अपने सपनो को खरीद सकते हैं। महंगी होती शिक्षा खरीद सकते हैं, स्वास्थ सुबिधा खरीद सकते हैं, आधुनिकता के साजों सामान खरीद सकते हैं। तभी शायद गाँव के आस पास शॉपिंग माल खुल गए हैं, फाइव स्टार हॉस्पिटल खुल गए हैं। तरक्की के परोकारों के लिए ये बदलाव मानदंड बन गए हैं। और ये ही दावा करते हैं कि भारत तरक्की कर इंडिया की राह पर है। लेकिन क्या ये वास्तव में तरक्की के संकेत हैं? या कुछ ऐसे लोगों की जादूगरी जो महज आंकडो से खेलना जानते हैं। आज भी इस ७० फीसदी की आधी आबादी के पास खाने के लिए रोटी नही हैं। जो की इंसान की पहली ज़रूरत है। कपडे और मकान के तो बात ही दूर हैं। कुछ इनमे किसान हैं जो साल भर दूसरो के लिए अनाज पैदा करने में लगा रहता हैं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए इसका खुद का निवाला ही इसकी पहुंच से दूर हो चला हैं। इसके लिए रोज़ एक विदर्भ और बुंदेलखंड मुह बाये खड़ा है। आगे चलते हैं तो बचे १० से १५ फीसदी लोग जो नौकरी पेशा करके अपनी नैया इस भवसागर में खे रहे हैं। जो लोन लेकर अपना घर खरीदता हैं और अपना सुकून दान कर देता हैं। घर की दूसरी चीजें भी इसी तरह जुगाड़ करता हैं। यानी गरीबी, भुखमरी से लड़ता वर्ग और ये ही आम आदमी है। जरूरत और इच्चयों के बीच लगातार पिसते इस आदमी के नैन में नैनो का सपना है। इस हालत में तो कार के सपने का सौदा कोई सस्ता नही है। साईकिल से ये दुपहिया पर कब आ गया इसे पता ही नही चला अब वैसे ही ये कार में सवार हो जाएगा। इतरा के चलेगा बाकी बचे अपने भाई बन्धुवों को अपनी तरक्की के पैमाने दिखायेगा और खास लोगों की ला इ न में अपने को खड़ा देखने का आत्मसुख पायेगा। थोडे से इ ऍम आई यानी किस्तों को चूका कर इतने फायदे हैं तो भला ये पीछे क्यों रहे तभी नैनो के दिवानो की तादाद दस दिनों में ही सत्तर लाख पहुंच गई। और टाटा का संतोष भी बढा की आख़िर वो अब सभी को पीछे छोड़ आम आदमी के दिलो में " बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज" की तर्ज पर ही "हमारी नैनो" के रूप में दाखिल हो चुके हैं। अब इस सपने को पूरा करने की होड़ में किसे फुरसत हैं कि वो जरा देख ले की उसकी हालत क्या हैं। अपन तो इतनी गुजारिश करेंगे की इस आम आदमी की कोई मदद नही कर सकता तो कम -एस-कम इसके सपनो का कोई सौदा तो न करे।
Sunday, January 27, 2008
नैनो का सपना
रतन टाटा उड़ते हवा में हैं। ऍफ़- 16 फाएटर प्लेन खुद ही उडाने की काबलियत रखते हैं। अब इन्होने आम आदमी को भी उड़ने का ख्वाब दिखाया हैं। ख्वाब दिखाना कोई बुरी बात नही हैं। आख़िर इसी पर तो सभी की दुकानदारी टिकी है। सौदागरों की तो अब बात ही क्या ? सभी अपनी दुकान सजाये उस तक पहुँचने को बेकरार दीखते हैं जिसे हम सभी आम आदमी कहते हैं । उत्पाद सभी के अलग हैं लेकिन मकसद एक है आम आदमी को आम ही बनाये रखना। ये हैं तो राजनीति हैं, सामाजिक ताना- बाना बरक़रार है। खैर बाज़ार के जानकर मानते हैं कि समय इसी आम आदमी के साथ है। जिसके पास मनी पावर बढ़ रही हैं। ये ही नया खरीददार हैं। ये खुशफहमी पालने वालो को दिलासा दे देने के लिए काफी है कि आखिरकार देश की सत्तर फीसदी की जमात भी खरीदारों की लिस्ट में शामिल हो गई हैं। अब ये भूखे रह कर भी अपने सपनो को खरीद सकते हैं। महंगी होती शिक्षा खरीद सकते हैं, स्वास्थ सुबिधा खरीद सकते हैं, आधुनिकता के साजों सामान खरीद सकते हैं। तभी शायद गाँव के आस पास शॉपिंग माल खुल गए हैं, फाइव स्टार हॉस्पिटल खुल गए हैं। तरक्की के परोकारों के लिए ये बदलाव मानदंड बन गए हैं। और ये ही दावा करते हैं कि भारत तरक्की कर इंडिया की राह पर है। लेकिन क्या ये वास्तव में तरक्की के संकेत हैं? या कुछ ऐसे लोगों की जादूगरी जो महज आंकडो से खेलना जानते हैं। आज भी इस ७० फीसदी की आधी आबादी के पास खाने के लिए रोटी नही हैं। जो की इंसान की पहली ज़रूरत है। कपडे और मकान के तो बात ही दूर हैं। कुछ इनमे किसान हैं जो साल भर दूसरो के लिए अनाज पैदा करने में लगा रहता हैं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए इसका खुद का निवाला ही इसकी पहुंच से दूर हो चला हैं। इसके लिए रोज़ एक विदर्भ और बुंदेलखंड मुह बाये खड़ा है। आगे चलते हैं तो बचे १० से १५ फीसदी लोग जो नौकरी पेशा करके अपनी नैया इस भवसागर में खे रहे हैं। जो लोन लेकर अपना घर खरीदता हैं और अपना सुकून दान कर देता हैं। घर की दूसरी चीजें भी इसी तरह जुगाड़ करता हैं। यानी गरीबी, भुखमरी से लड़ता वर्ग और ये ही आम आदमी है। जरूरत और इच्चयों के बीच लगातार पिसते इस आदमी के नैन में नैनो का सपना है। इस हालत में तो कार के सपने का सौदा कोई सस्ता नही है। साईकिल से ये दुपहिया पर कब आ गया इसे पता ही नही चला अब वैसे ही ये कार में सवार हो जाएगा। इतरा के चलेगा बाकी बचे अपने भाई बन्धुवों को अपनी तरक्की के पैमाने दिखायेगा और खास लोगों की ला इ न में अपने को खड़ा देखने का आत्मसुख पायेगा। थोडे से इ ऍम आई यानी किस्तों को चूका कर इतने फायदे हैं तो भला ये पीछे क्यों रहे तभी नैनो के दिवानो की तादाद दस दिनों में ही सत्तर लाख पहुंच गई। और टाटा का संतोष भी बढा की आख़िर वो अब सभी को पीछे छोड़ आम आदमी के दिलो में " बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज" की तर्ज पर ही "हमारी नैनो" के रूप में दाखिल हो चुके हैं। अब इस सपने को पूरा करने की होड़ में किसे फुरसत हैं कि वो जरा देख ले की उसकी हालत क्या हैं। अपन तो इतनी गुजारिश करेंगे की इस आम आदमी की कोई मदद नही कर सकता तो कम -एस-कम इसके सपनो का कोई सौदा तो न करे।
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3 comments:
you should have cited the cartoon you have taken from Irfaan's blog.
मै काटूॻन नही बनाता ये सौ फीसदी सच है। मेरे से इतनी ग़लती हुयी है कि मैने इसको कहां से लिया है इसका ज़िक्र नही किया है। लेकिन इस पर अंकित इरफान साहब का नाम दशाॻ रहा है कि उन्ही के द्वारा बनाया गया है। ख़ैर ये मैने जनसत्ता अखबार में प्रकाशित होने वाले स्तंभ से लिया है। इसके लिए मै अख़बार और इरफान साहब का आभारी हूँ।
बहुत सही लिखा है। खासकर ये लाइन की
आम आदमी के दिलो में " बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज" की तर्ज पर ही "हमारी नैनो" के रूप में दाखिल हो चुके हैं।
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