Thursday, January 3, 2008

खोजपुर बेहतर हुआ है..........

पिछले एक साल पर गांव जाने का मौका मिला था और मैं हिंदुस्तान के गांवो की बदलती तस्वीर को अपने गांव के आईने में देखना चाहता था। उपर से सबकुछ वैसा ही था, बाढ के बाद का अटका हुआ पानी,उबड-खाबड सडके जिसपर नीतीश सरकार बडी शिद्दत के साथ कोलतार बिछा रही थी और मगध एक्सप्रेस से उतरकर शाही तिरुपति और जयमातादी जैसे बसों में बैठंने बालों का रैला। लेकिन कहीं गहराई में बहुत कुछ बदल रहा है। नेपाल की सीमा से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर मेरे गांव खोजपुर तक सडकें डवल लेन की बनाई जा रही थी। पिछले पचास साल में जो काम सरकारी टेलीफोन कंपनियां नहीं कर पाई थी, उसे सिर्फ एक साल में एयरटेल और रिलांयस ने निबटा दिया था। घर -घर में मोबाइल पहुच चुका था, और बिहार के खेतों में मोबाइल बजना मेरे लिए वाकई किसी सपने से कम नहीं था।सबसे बडी और सकारात्मक बात मैने यह मैंने जो देखा वो यह कि लडकियो की शिक्षा पर सरकार का और लोगों का खासा जोर है। सरकार का सर्वशिक्षा अभियान, अपने कई कमियों के बावजूद इस दिशा में खासा कामयाव रहा है।मिड डे मील स्कीम, लडकियों के लिए मुफ्त की किताबें, साल में दो बार ड्रेस और हाईस्कूल की लडकियों के लिए साईकिले-इन तमाम योजनाओं ने वाकई लडकियोंको वडी तादाद में स्कूल की तरफ खीचा है।मुझे यकीन नहीं हुआ जब मैंने अपने गांव के स्कूल में आठ सौसे ज्यादा बच्चों को देखा, जो मेरे जमाने में कभी चार सौ से उपर नहीं गया, जबकि उस समय पडोस के गांव के बच्चे भी वहां पढने आते थे। जाहिर सी बात है कि गांव के ज्यादातर ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां शहरों की ओर पलायन कर चुकी है और उन आठ सौ बच्चों में ज्यादातर पिछडों और दलितों के बच्चे थे जो एक नए भविष्य की तरफ इशारा कर रहे थे। गांव में अब आंगनबाडी केंद्र है, महिला स्वास्थ्य सेविका है और नये शिक्षा-मित्रों में एक तिहाई महिलाएं है। मेरे गांव में अब पर्दा के घुटन से महिलाएं आजाद हो रही हैं और साईकिल पर सबार लडकियां जब अपने सतरंगी परिधानों मे स्कूल की तरफ निकलती है तो लगता है कि वाकई पूरा कायनात मुसकुरा रहा है। पढने की भूख कुछ इस कदर हावी है कि दोयम दर्जे के अंग्रजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह खुल गये है और काफी पैसा भी बना रहे है। ट्यूटरों की एक फौज खडी हो गयी है जिसकी मासिक आमदनी दो हजार से आठ हजार रु तक है। नीतीश सरकार ने शिक्षा व्यबस्था को पटरी पर लाने की काफी कोशिशें की हैं लेकिन कुछ लोग शिक्षा-मित्र की बहाली पर सबालिया निशान लगा रहे हैं। अलबत्ता सरकार का दावा अपनी जगह है कि एक गरीब राज्य चार हजार रु प्रतिमाह में शिक्षा-मित्रों की सहायता से अभी अपनी सिर्फ अपनी प्राथमिकता निबाह रही है।सरकार की स्वास्थ्य नीति की भी तारीफ हो रही है जिसके तहत सरकार ने स्वास्थ्य केंद्रों के रखरखाव की जिम्मेवारी निजी संस्थानों को दे दी है।
लेकिन बिहार की समस्या सिर्फ भ्रष्टाचार की नहीं है जिसको लेकर वर्तमान सरकार परेशान दिख रही है।एक गरीब प्रांत जिसको सिलसिलेवद्ध रुप से पिछले साठ बरस से जातीय गिरोहों ने बिभिन्न राजनैतिक दलों के बैनर तले लूटा है और जो स्वभाविक रुप से अपराध , असामनता, भ्रष्टाचार और कुत्सित जातिवाद का शिकार हो गया है, वहां यह आश्चर्य की बात है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर सबसे कम पुलिस बाले ,डाक्टर और शिक्षक है। ऐसे में बिहारी छात्रों का बिहार के बाहर जाकर कामयाबी का झंडा गाडना वाकई काबिलेतारीफ है।कई दफा तो वे दूसरे प्रांत के लोगों के लिए जलन का पात्र बन जाते है। साधनबिहीन और कम संख्या में पुलिस का रिकार्ड भी तब खराब नहीं कहा जा सकता।
कुल मिलाकर सबसे बडी चीज जो देखने में आ रही है कि जनता में एक आशा का संचार हुआ है और प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप कम हुआ है। बिहार की गाडी को रफ्तार पकडने में भले ही दस बर्ष और लग जाए, लेकिन चीजें सकारात्मक हुई हैं। पटना बस स्टैंड में बस में बैठते बक्त अगर आप सरकारी कर्मचारियों की बातचीत का जायजा लें, तो एक बात साफ तौर पर झलक कर सामने आती है कि वे नितीश सरकार से वाकई नाखुश हैं। बास्तव में यहीं वो तबका है जिसने लालू यादव के कार्यकाल में नेताओं के साथ मिलकर जमकर लूट मचाया था, एश किया था और सवर्ण चरित्र होने के कारण लालू को गाली भी यहीं तबका सबसे ज्यादा देता था। मजे की बात यह है कि यहीं जन-विरोधी वर्ग अब नीतीश सरकार की आलोचना कर रहा है क्योंकि उसे नीतीश का चंद्राबाबू बनना पसंद नहीं है।

1 comment:

Vibha Rani said...

bahut niik laagal. I aashak sanchar hamar sabhak jivanak neev achchhi. jaadoo nayi hob' bala chhai. rata rati kichhu nayi badal'bala chhai. muda yadi ham sakaratmak bh k sochi tahan sabh kichhu bh sakay chaai. aar entry seho padhal. bahut sundar. keep it up!