Thursday, September 11, 2008

मिथिलेश...तुमने छाया को क्यों मारा ?

आखिर उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था। ऐसी कौन सी खता कर दी थी, जिसकी कीमत उसे जान देकर चुकानी पड़ी। यही ना कि वो आंख बंद कर तुम पर यकीन करती रही। क्या उसकी गलती ये थी। तुम्हारी बातें उसने ना केवल सुनीं बल्कि उन पर यकीन भी किया। या फिर तुमने उसे जो कुछ दिखाया, सुनाया, उसने उन पर सवाल खड़े नहीं किए। बस सब कुछ मानती गई। पर इसमें उसकी क्या गलती है। उसकी अभी उम्र ही क्या थी। लगातार दो दिन तक तुम उसे डराते रहे। धमकाते रहे, बस मौत करीब है। और वो तुम्हारी धमकियों को सच मानती रही। जी हां, ये कहानी है..16 साल की उस मासूम छाया की, जो पिछले दो दिनों से न्यूज चैनल पर चल रही प्रलय की खबरों पर यकीन करने लगी थी...। ये लड़की मध्य प्रदेश में राजगढ़ जिले की सारंगपुर कस्बे की रहने वाली थी...। जेनेवा में होने वाला महाप्रयोग.. उसके लिए सचमुच का प्रलय बनकर आया। क्योंकि न्यूज चैनलों ने इस खबर को बेचने की कोशिश में डर, खौफ और दहशत का जो माहौल बनाया था.. उसमें ऐसा होना तय था। अगर अब ये न्यूज चैनल प्रलय और छाया की मौत को आपस में जोड़कर एक नया टीआरपी शो गढ़ दें तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। दो दिनों से छाया न्यूज चैनल पर चल रहे महाप्रलय शो से चिपकी रही। वो भी उस वक्त इन चैनलों के टीआरपी का हिस्सा बनी। जिसके लिए ये सारा खेल खेला गया। लेकिन ज्यों ही महाप्रलय का बुधवार आया। उसने भयावह मौत मरने की बजाए। सल्फास की गोलियां खाकर मरना पसंद किया। उसे इंदौर के अस्पताल में ले जाया गया, बचाने की कोशिशें भी हुईं। मगर जिसे मारने की साजिश दर्जनों न्यूज चैनलों ने रची हो। भला उसकी जान कहां बचने वाली थी। उधर जेनेवा में महाप्रयोग शुरु हुआ। इधर चैनलों ने दिखाना शुरु किया। क्या सचमुच मिट जाएगी धऱती। मगर जैसे जैसे दिन चढ़ता गया। चैनल के कर्ताधर्ताओं को लगा। अब पब्लिक जान चुकी है,प्रलय-वलय कुछ नहीं आने वाला। तो इन चैनलों ने अपने स्टूडियो में एक जानकार को बिठा लिया। और लोगों को लगातार ये बताते रहे कि उन्हें डरने की कोई जरुरत नहीं। प्रलय जैसा कुछ भी नहीं होने जा रहा। वाह रे मायावी न्यूज चैनल। काश,गिरगिट की तरह बदलते चैनल्स का असली रंग वो देख पाई होती..तो शायद एक जिंदगी टीआरपी की भेंट नहीं चढ़ती। इंदौर पुलिस ने 16 साल की छाया की खुदकुशी के सिलसिले में मामला भी दर्ज कर लिया है और छानबीन भी शुरु कर दी है। मगर क्या सचमुच गुनहगारों को सजा मिल पाएगी। आखिर छाया की मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा। उतनी ही तेज आवाज में चीखकर कौन कहेगा..हां मैंने मारा है छाया को..जितनी चीख पुकार के अंदाज में प्रलय की बात कर लोगों को डराया गया। ये तमाम सवाल हर उस शख्स से है। जो मीडिया का हिस्सा है। मुझसे, आपसे और भी दूसरों से जिन्हें नाम से मैं नहीं जानता। मिथिलेश का नाम इसलिए लिया क्योंकि मैं जानता हूं..मेरे चैनल पर महाप्रलय की भविष्यवाणी जिस प्रोग्राम में की गई। वो उसने बनाया था। मैं ये भी जानता हूं। जानते समझते हुए भी कि वो गलत कर रहा है, उसने अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी,वो नायाब शब्द तलाशने में जिनसे सचमुच प्रलय और तबाही का भयावह मंजर दिमाग में डाला जा सके। क्योंकि इस वक्त उसके लिए ये महज एक असाइनमेंट था। और आखिरकार उसके जैसे पचासों लोगों की मेहनत रंग लाई। कम से कम छाया के परिवार वालों के लिए तो प्रलय आ ही गई। मैं शर्मिंदा हूं। मैं भी उसी जमात का हिस्सा हूं जो दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में किसी की जिंदगी से खेलने से भी बाज नहीं आते। मिथिलेश, मैं जानता हूं..तुम्हारा वश होता तो तुम ऐसा प्रोग्राम कभी नहीं बनाते...। हकीकत तो ये है, गुनहगार मैं भी हूं..मैंने उस रात तुमसे कहा था...'बहुत बढ़िया प्रोग्राम बनाया'। काश,हम जान पाते खबर से खेलना बहुत खतरनाक होता है।

5 comments:

Rajiv K Mishra said...

आरुषि के उपर आपने एक कविता लिखी थी....कई लोगों से उसकी सराहना की थी। आपका यह लेख भी मीडिया के मुंह पर तमाचा है। लेकिन विवेक जी, हम भी अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं।

Anonymous said...

राजीव, तुमने बिल्कुल सही फरमाया। मेरा इन्टेन्शन किसी के मुंह पर तमाचा मारना नहीं है। दरअसल ये तमाचा तो मेरे अपने ही मुंह पर है। जाने अनजाने हम कितनी ही बार..बाजार के हाथों मजबूर होकर ऐसा करते रहते हैं...खुद मैंने भी कितनी ही बार ऐसा किया है। ये महज संयोग हो सकता है कि मुझे ये प्रोग्राम बनाने को नहीं कहा गया। वरना मैं भी वही करता जो मिथिलेश और उसके जैसे तमाम लोगों ने किया..मगर उस तकलीफ का मैं क्या करुं...जिसकी वजह भी मैं खुद ही हूं..। कई बार लगता है.. चैनल्स एक अंडरवर्ल्ड की तरह हैं.. जहां आना तो आसान है।
इस लेख में मेरा मकसद किसी पर भी अंगुली उठाना नहीं है। दरअसल ये राग है अपनी बेबसी, मजबूरी और बाजारवाद के दंश का.. जिसके सामने हम सभी लाचार हैं.. फिर भी मैं जानता हूं.. बहुत से लोग इसे स्वीकार करने की भी हिम्मत नहीं रखते...।

अनामदास said...

अपने नाम के अनुरूप आपमें विवेक है और आप सत्य के मित्र भी हैं, चैनलों के बारे में बात करना बंद कर देना चाहिए, नौकरी करिए, रोटी खाइए...इससे ज्यादा बात करने वे क़ाबिल नहीं हैं...दे डू नॉट डिज़र्व टू बी टॉक्ड अबाउट. आप जैसे सैकड़ों जीवित जीवों की आत्मा चैनलों के दफ़्तरों में तड़प रही है, उसका दुख ज़रूर होता है, मेरे कई अज़ीज़ इस बेचैनी के शिकार हैं, हों भी क्यों नहीं, नौकरी करने की मजबूरी है लेकिन आदमी बने रहना भी तो ज़रूरी है. मिथिलेश जी के साथ अनंत सहानुभूति...

شہروز said...

मन की व्यथा का संप्रेषण ही जब बलवती हो जाए तो लेखन का आरम्भ होता hai.
और ये आप से मिलकर लगता hai, आपके सृजन से मिलना ही, आपसे मिलना hai.
apni रचनात्मक ऊर्जा को बनाए रखें.
कभी समय मिले तो आकर मेरे दिन-रात भी देख लें.
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/
http://saajha-sarokar.blogspot.com/

सुबोध said...

छाया की मौत के गुनहगार हम सब हैं सर...लेकिन छाया की मौत की इबादत जिस स्याही से लिखी गई...उसका रंग विशुद्ध बाजारु था...