Saturday, August 30, 2008
फास्ट फूड़ बना योग
योग गया अमेरिका योगा बन बैठा। स्वदेश वापसी पर लोगों को योग का महत्व समझ में आया। आख़िर आए भी क्यों ना विदेश का मुल्लमा जो चढ़ गया है। टी.वी.सेट पर चिपके लाखो लोग योग सीख रहे हैं। बस में बैठी भीड़ नाखून घिस बाल उगाने की दवा कर रही है। योग साधना ना होकर फास्ट फूड़ बन गया है। दो चम्मच खाओ और भूख मिटाओ। जिसे देखो योग सीखा रहा है योग का प्रचार कर रहा है। सभी ख़ुश है दावा करते है हमारी पुरानी विधा फिर से लोगों के दिलों में जगह बना रही है। और इसका असर हम भारतीयों पर ज़रूर दिखेगा और एक स्वस्थ भारत बना कर ही हम सभी दम लेगें। सुबह की ही ख़बर है एक महिला आसन करने बैठी और अस्पताल पहुँच गयी। कारण लिखा था टी.वी. और कुछ किताबें पढ़कर योग सीखना मँहगा पड़ गया और स्वास्थ लाभ लेने अब अस्पताल के आई.सी.यू. में दाखिल हैं। सवाल कई वर्षो से उठ रहे थे कि योग को जन-जन तक पहुँचाने के लिए क्या इसका बाज़ारू संस्करण उचित है? बार-बार मन कहता है इसमें हर्ज ही क्या है? आख़िर हमारी तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में योग भी तो रफ़्तार वाला होना चाहिए। बिना किसी मिर्च मसाले के यह योग हमें ना तो स्वादिष्ट लगेगा और ना ही हमारी पाचन शक्ति इतनी अधिक है कि हम इसे शुध्द रूप में पचा लें। हाजमा ख़राब होने का ड़र भी है। जब इतनी दिक्कतें है तो मै क्यों योगा तो योग बनाऊं इसे तो योगा ही रहने दो बड़ा ही सुखदायी है। माना कि हठप्रदिपिका में योग के यम,नियम बताऐं गऐं हैं लेकिन मुश्किल ये है इसे जानने वाले कम है और साथ ही मानने वाले भी। क्रिया और प्राणायाम में भेद ना बता पाने वाले लोग योग सीखा रहे हैं। लोगों का भरोसा भी इसी पर क़ायम है। बात साफ़ है उपभोगितावाद में जितनी चमकदार चीज़ होगी उतनी ही अच्छी होगी सभी यही मानते है इसमें मै भी शामिल हूँ। एक दो घटनाओं से लोगों की चेतना शायद ही जागे। लेकिन इस योग,योगा और अब शिल्पायन की कही तो सीमा रेखा होगी। कभी तो लोग इस विधा से खिलवाड़ करना बन्द करेगें। ऐसा मेरा विश्वास है। क्या यह संभव है...।
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