Sunday, September 28, 2008
अविनाश जी...महरौली में बम मैंने फोड़ा, शुक्र है आपका मोहल्ला बच गया !
स्थान- दिल्ली के ओखला इलाके में एक न्यूज चैनल का आफिस
समय- 3.40 मिनट
हालात- आफिस पहुंचने से कुछ वक्त पहले ही मुझे एफएम के जरिए मालूम हो चला था कि महरौली में बम फट गया है।
आफिस पहुंचकर जैसे ही मैंने अपना जीमेल अकाउंट खोला.. उसमें 3.15 मिनट का एक ईमेल नजर आया।
ये ईमेल मोहल्ला के मॉडरेटर और वर्तमान में दैनिक भाष्कर में सेवाएं दे रहे अविनाश दास जी का था। यूं तो ये
ईमेल बस डेढ़ लाइन का था...मगर इन डेढ़ लाइनों में जो कुछ लिखा गया था। उससे अंदाजा लगाना मुश्किल था
कि अविनाश जी ने क्या सोचकर ये ईमेल मुझे भेजा था। ईमेल में बस इतना ही लिखा गया था "सारे आतंकवादी
तो पकड़े या मार डाले गये थे, फिर महरौली में किसने बम फोड़ा?"
जामिया नगर में हुए मुठभेड़ को लेकर लिखे गए एक लेख के जवाब में मैंने एक लेख लिखा था। बहुत से लोगों ने पढ़ा.. जिसे जो समझ में आया.. टिप्पणी दे गए। मगर मोहल्ले वाले अविनाश जी ने मान लिया..कि मैं तो फर्जी मुठभेड़ों का समर्थक हूं। चूंकि मेरे लेख में मुठभेड़ को फर्जी ठहराए जाने के तार्किक विश्लेषण पर कुछ सहज जिज्ञासाएं जाहिर की गई थीं..। और शायद.. ये जिज्ञासाएं अविनाश जी को नागवार गुजरीं.. और इसके मायने उन्होंने कुछ इस तरह निकाले मानो मुझे पुलिसिया मुठभेड़ में एक्शन फिल्मों का पुट नजर आता हो..या फिर मैं वामपंथियों को छोड़कर बाकी बचे सांप्रदायिक हिंदुओं का प्रवीण तोगड़िया टाइप कोई नेता हूं...जिसे मुसलमानों की बढ़ती आबादी से खतरा नजर आता हो। अजीब बात है...जो वामपंथी नहीं है.. उसे पक्के तौर पर आरएसएस का कार्यकर्ता मान लिया जाता है। जो दक्षिणपंथी नहीं है..उस पर लेफ्टिस्ट होने का तमगा चिपका दिया जाता है। अफसोस तब होता है..जब ये काम वो लोग करते हैं..जिन्हें समाज में इसी बात का सम्मान मिला है..कि वो बाकियों की तरह भेड़चाल में नहीं चलते..। जिनसे ये उम्मीद पाली जाती है कि वो अपने दिमाग की खिड़कियां और दरवाजे खोलकर रहते हैं। मैं ये सब कुछ इसलिए नहीं लिख रहा कि..इसे एक मुद्दा बनाकर वैचारिक जुगाली का एक और नायाब मौका खोजा जाए...। ये एक सहज प्रतिक्रिया है....उस पूर्वाग्रह के प्रति जो अविनाश जी ने मेरे बारे में ना केवल बनाई बल्कि जाहिर भी की। खैर..अविनाश जी! मैं ये तो नहीं जानता..सचमुच महरौली में बम किसने फोड़ा..लेकिन अगर सचमुच आपको लगता है कि आतंकवाद के नाम पर होने वाले एनकाउंटर पर सवाल नहीं उठाकर मैंने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है तो चलिए मैं ही ये गुनाह कबूल कर लेता हूं...। हां..मैंने ही फोड़ा है महरौली में बम.. क्योंकि आपके मुताबिक.. सारे आतंकवादी या तो पकड़े या मार दिए गए थे...। शायद आपने ये ईमेल तो मुझे ये मानकर लिखा है कि मैं दिल्ली पुलिस का प्रवक्ता हूं.. या फिर इंडियन मुजाहिद्दीन का सरगना...। जो कुछ मानना हो मान लीजिए...मगर प्लीज..पूर्वाग्रह का चश्मा उतार दीजिए... क्योंकि लेफ्ट में जो एक बात बहुत जोर देकर कही जाती है कि "तय करो कि किस ओर हो..इस ओर या..." इससे बेहूदा सूक्ति कुछ भी नहीं हो सकती। विचारधाराओं के बौद्धिक मकड़जाल में आम आदमी के भीतर की सहजता और इंसानियत को खत्म करने की ये साजिश खत्म होनी चाहिए...। मैं जानता हूं...आपको ये बातें अच्छी नहीं लग रही होंगी.. मगर क्या आप मुझे एक वैलि़ड रीजन बता सकते हैं...आपने मुझसे क्यों पूछा.."सारे आतंकवादी तो पकड़े या मार डाले गये थे, फिर महरौली में किसने बम फोड़ा?" जब मीडिया में काम करने वाला हर शख्स खबर चलाने, बनाने या जानकारी हासिल करने में लगा हुआ था..ठीक उस वक्त.. वो भी धमाके के महज घंटे भर के भीतर आपको यही बात क्यों ध्यान में आई...कि आपको मुझे मेल करना है ? अगर आप इस पर अपना पक्ष रखना चाहें तो..अच्छा है...लेकिन विषय को कहीं और मत ले जाइएगा। वैसे भी.. इस्लामिक आतंकवाद...गोधरा नरसंहार कांड...बाबरी मस्जिद कांड...फलीस्तीन-इस्राइल विवाद...सोहराबुद्दीन केस.. जाहिरा शेख, नाथूराम गोडसे.. के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है.. और ना ही मुझे पोलिश..रशियन..या फिर बांग्ला लिटरेचर पढ़ने का ही मौका मिला। उम्मीद करता हूं..आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। क्योंकि ये सिर्फ आपका पूर्वाग्रह दूर करने की कोशिश भर है। बाकी.. आपसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत मैं जुटा भी नहीं सकता।
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9 comments:
जाने दो मित्र। कम रेट यानी कामरेड लोगों की बात क बुरा नही माना जाता। आप तो सत्य लिखते रहो। जय हो।और हां वेरिफ़िकेशन का टैग हटा देंगे तो अच्छा रहेगा
अपने लेखन पर भरोसा कीजिए..अपने विचारों पर भरोसा कीजिए। दूसरे शब्दों में कहे तो अपने लेखन में केवल उन्हीं विचारों को जगह दीजिए, जिन पर आपको भरोसा हो, गर्व हो। फिर आपको किसी से संघी या वामपंथी करार दिए जाने की चिंता नहीं रहेगी। फिर एक खास किस्म के आतंकवाद के लिए तार्किक आधार तय करने वाले इन अ, ब या स बुद्धिजीवियों के पूर्वग्रहों या तमगों से अगर एक लेखक का मन इतना विचलित हो जाता है, तो मुझे लगता है कि एक लेखक के तौर पर हमें थोड़ा आत्मचिंतन करने की जरूरत है।
पर बम तो फिर भी फूट गया.अब हम अपने सुरक्षा बलों को गाहे बगाहे संदेहास्पद बना डालते है...फिर कोई आतंकवादी मरेगा ...फिर कुछ लोगों से पूछताछ होगी और वे फिर चिल्लायेंगे...पर जो मारे जा रहे हैं क्या उनकी तरफ बोलने वाला कोई नहीं ...खैर आपने बहुत अच्छा लिखा
विवेक जी, आपने तो अविनाश जी पर वामपंथी होने की मुहर लगा दी है। मुझे जहां तक पता है और लगता है कि अविनाश जी पहले दक्षिणपंथी थे, शुद्ध रूप से हाफ पैंटी। बाद में उनका रुझान वामपंथ से हुआ। ऐसा नहीं है कि एनडीटीवी में आने के बाद। हालांकि एनडीटीवी में पहुंचने में वामपंथ ने उनका खूब साथ दिया। हालांकि अब उन्होंने अखबार का रुख फिर से कर लिया है। उम्मीद करता हूं कि आने वाले दिनों में वे दक्षिणपंथी हो जाएंगे।
हालांकि वे यह भी कह सकते हैं कि वह उनका स्वतंत्र विचार है, कि वे कब कौन सा पंथ अपनाते हैं।
वैसे रोजी रोटी ज्यादा जरूरी है और आपके लिए भी नेक सलाह। जब जो पंथ लाभदायक हो उसी का अनुसरण करने लगिए। कुछ दिन शांत रहने के बाद एक पंथ से दूसरे पंथ में जाया जा सकता है।
हालांकि वामपंथ के बारे में कहा जाता है कि आदमी ३० साल की उम्र तक वामपंथी होता है, उसके बाद जब उसकी जरूरतें बढ़ती हैं तो दक्षिणपंथी हो जाता है। ये अलग बात है कि समय के साथ-साथ ये मिथक भी टूट रहा है और पंथ अपनाने में भी लोग लोक दल के अजित सिंह की तरह पाला बदलते हैं, जरूरतों के मुताबिक।
क्या करें भाई....उक्त महाशय ने हिंदू विरोध का ठेका लिया हुआ है इसलिए उनको ऐसा कहना पड़ता है....मार्क्स और लेनिन ने भी शायद अपनी विचारधारा का पट्टा इनके ही नाम लिख छोड़ा था सो उसे गले में लटकाये घूम रहे हैं और देखिएगा उनके इबादतखाने (पूजाघर नहीं क्योंकि वो सांप्रदायिक होता है ) में भी जिन्ना की तस्वीर लगी होगी शायद....
पहली चीज़ की सारे साम्यवादियों को गाली बकना बंद करें......पांचो अंगुलियाँ बराबर नही होती..................पर सहमत हूँ की इन नकली मानवाधिकार के ठेकेदारों ने बौद्धिक दीवाला निकलवा दिया है ! दूसरा फर्जी मुठभेड़ में इनको यह नही दिखा की एक इंसपेक्टर भी शहीद हुआ .... खैर इनको सब सच पता है पर अलग दिखने के लिए बौद्धिकता का लबादा ज़रूरी है !
ये वाही लोग हैं जो इस तरह की बातें कर के और फिर पेज थ्री पार्टियों में शराब के नशे में लहराते चलते हैं ......
"तय करो कि किस ओर हो..इस ओर या..." इससे बेहूदा सूक्ति कुछ भी नहीं हो सकती।
मुझे याद आता है कि इस तरह कि टिप्पणी काफी पहले बुश ने भी की थी,
माफ करना
hindi.indiawaterportal.org
केसर
सही कहा गया है कि अपने घर के खिड़की-दरवाज़े खुले रखो ताकि आपके अंदर नए विचार आएं। मतलब ये कि हम किसी विषय पर पूरी तरह सोच-समझकर ही राय बनाएं, ये नहीं कि भेड़चाल में शामिल हो गए। हमारा विचार चाहे जैसा भी हो, बहुत अनमोल है क्योंकि वो एक अलग आवाज़ है। खुद को व्यक्त करने का अधिकार हम सभी को है। लेकिन इसे आज के समय की विसंगति ही कहा जाएगा कि बहुत से लोग जो खुद को बहुत आज़ाद ख़याल दिखाने की कोशिश करते हैं, दरअसल दूसरों पर अपने विचार थोपकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लगे रहते हैं और बहुत हद तक इसमें कामयाब भी रहते हैं। ऐसे लोगों से हमें सबसे ज्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है। प्राण के समान ही अपने विचारों की रक्षा भी ज़रूरी है क्योंकि यही हमारी असली पहचान है। विचार जैसे भी हों,उन पर विमर्श ज़रूरी है ताकि हम अच्छे-बुरे की परख कर सकें।
सही कहा गया है कि अपने घर के खिड़की-दरवाज़े खुले रखो ताकि आपके अंदर नए विचार आएं। मतलब ये कि हम किसी विषय पर पूरी तरह सोच-समझकर ही राय बनाएं, ये नहीं कि भेड़चाल में शामिल हो गए। हमारा विचार चाहे जैसा भी हो, बहुत अनमोल है क्योंकि वो एक अलग आवाज़ है। खुद को व्यक्त करने का अधिकार हम सभी को है। लेकिन इसे आज के समय की विसंगति ही कहा जाएगा कि बहुत से लोग जो खुद को बहुत आज़ाद ख़याल दिखाने की कोशिश करते हैं, दरअसल दूसरों पर अपने विचार थोपकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लगे रहते हैं और बहुत हद तक इसमें कामयाब भी रहते हैं। ऐसे लोगों से हमें सबसे ज्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है। प्राण के समान ही अपने विचारों की रक्षा भी ज़रूरी है क्योंकि यही हमारी असली पहचान है। विचार जैसे भी हों,उन पर विमर्श ज़रूरी है ताकि हम अच्छे-बुरे की परख कर सकें।
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