Thursday, October 2, 2008

मीडिया में बिहारी दबंगई, मामला क्या है?

मुझे लगता है कि ये कहना है कि बिहारी सिर्फ क्षेत्रवाद के बदौलत मीडिया में अपना दबदबा कायम किए हुए हैं पूरी तरह उचित नहीं है, हो सकता है इसमें आंशिक सच्चाई हो।बिहारियों का हेडकाउंट देखकर ये अंदाजा बरबस ही लगाया जा सकता है,जैसे धमाकों में मुसलमानों को देखकर लगता है कि सारे ही जिम्मेवार हैं। लेकिन ऐसा है नहीं कि सारे बिहारी पैरवी से ही आए हैं। दूसरी बात रही मीडिया की तो ये बात सर्वविदित है कि यहां नौकरी नेटवर्किंग से मिलती है, सीवी के बल तो कोई पानी भी नहीं पीने को बुलाता। तो ऐसे में थोड़ा बहुता पैरवी चलना लाजिमी है, और ऐसा सब करते हैं।रही बात मीडिया में ऊंचे पदों पर बैठे बिहारियों की तो मेरी नजर में टैम के लिस्ट में जो 12 चैनल आते हैं उनमें ऊपर से तीन यानी आजतक, इंडिया टीवी और स्टार तीनों के ही हेड गैर-बिहारी है। इसके आलावा सहारा, आईबीएन-7 के भी हेड गैर-बिहारी हैं। हां, नीचे वालों में बिहारी खासे हैं और मेरे ख्याल से आधे से ज्यादा हैं लेकिन क्या इसका खालिस मतलब उनका योग्यता विहीन होकर सिर्फ पैरवी पुत्र होना हैं?

नहीं कहानी कुछ और भी है। और इसे समझने के लिए बिहारियों की मानसिकता और उनकी समाजिक-आर्थिक विकास को समझना जरुरी है।ये कहने की जरुरत नहीं कि विकास के पैमाने पर बिहार का स्थान नीचे सें नंबर-1 हैं और ऐसे माहौल में जातिवादी माहौल भी खूब पनपता है। बिहार में संसाधनों का जितना असमान वितरण है, यानी जमीन का एक बड़ा हिस्सा कुछ खास लोगों के हाथों में(हाल तक यहीं था, कमोवेश अभी भी) में है-उसने लोगों की मानसिकता सामंतवादी बना दी है। यही वजह है कि एक औसत बिहारी अपने सामंती अहं की तुष्टि आईएएस जैसी नौकरी में खोजना चाहता है।बिहार के सामंतवादी-जातिवादी शासन-समाज ने पिछले पचास साल में जो अ-विकास का मॉडल गढ़ा है उसमें रोजगार के नाम पर घटिया किस्म की खेती है या नहीं तो भारत और बिहार सरकार की नौकरी है। और बढ़ती आबादी और शिक्षा ने एक पूरे के पूरे वर्ग को बिहार से बाहर धकेल दिया है जो सम्मानजनक काम भी करना चाहता है। वो सरकारी नौकरियों में भर गया है, वो देश के हरसंभव नौकरियों में है जहां अंग्रेजी जरुरी नहीं है।

साफ है बिहार का एक औसत शिक्षित युवा सामान्य ज्ञान और करेंट अफेयर्स में काफी मजबूत हो जाता है-ऐसा पैदाईशी नहीं होता,ऐसा वहां के माहौल ने बना दिया है। जिस समाज में सम्मान पाने का तरीका सिर्फ एक अच्छी नौकरी करना हो, जहां व्यापार करने की न तो परंपरा हो न ही माहौल, वहां ऐसा होना लाजिमी है। और फिर जब आईएएस बनने का ख्वाब दरकता है, तो वह मीडिया हॉउसों के ग्लास हाउसों में जाकर पूरा होता है क्योंकि लगता है इतनी पढ़ाई की उपयोगिता वहीं है..जो बाद में जाकर बड़ा छलावा साबित होता है।

और ये तमाम परिस्थितियां दूसरे हिंदी भाषी सूबों में नहीं है, यूपी में भी नहीं।आप प्रतिव्यक्ति आय को देखिए, जमीन की उपलब्धता को देखिए या फिर औद्यौगीकरण को देखिए-यूपी बिहार से आगे है। हां, यूपी की विशालता और विविधता भी इतनी है कि पश्चिमी यूपी वाले को पूर्वी यूपी वाले से कोई लगाव नहीं रहता-बल्कि वो तो उसे हिकारत से देखता है। वो सांस्कृतिक रुप से पंजाबी या हरियाणवी है और संपन्न भी है।

एक बात और जो अहम है वो ये कि हाल के दशकों में बिहारियों में थोड़ी बहुत एक बिहारी उपराष्ट्रीयतावाद जरुर पनपी है, संभवत ऐसा 60 या 70 के दशक में तमिल या बंगालियों के साथ था जो हिंदी वर्चस्व के भय के साये में जीते थे।दरअसल बात ये है कि जो भी कौम भय के साये में जीती है उसके साथ ऐसा ही होता है। बिहार के पिछड़ापन और इसकी वजह से दूसरे सूबों के लोगों का हिकारत भाव इतना गहरा है कि बिहारियों ने आहिस्ते-आहिस्ते क्षेत्रीयतावाद का रास्ता अपनाना शुरु किया है। वे खोल में समाते जा रहे हैं-शायद कुछ बंगालियों की तरह जो ट्रेन में किसी दूसरे बंगाली को देखकर सट जाता है।

और यहीं बिहारी कॉकस या बिहारी क्षेत्रीयतावाद मीडिया ही नहीं हर जगह दिख रही है। तो क्या ये सिर्फ अयोग्यों का जमाबड़ा है? नहीं, लोगों की सप्लाई इतनी है कि अयोग्यता का सवाल बेमानी हो जाता है। अलवत्ता, बिहारियों जैसा दिलदार कौम आपको शायद ही खोजने पर मिले। बिहारियों ने दिलखोल कर बाहर के लोगों को संसद में पहुंचाया है-चाहे वो जॉर्ज हों या फिर शरद यादव या फिर मधु लिमिये हो। तो फिर आप अंदाज लगा लीजिए की..ये सिर्फ क्षेत्रीयतावाद है या कुछ और। शायद ये दोनों है,या शायद कुछ भी नहीं।

8 comments:

Unknown said...

"यहां नौकरी नेटवर्किंग से मिलती है, सीवी के बल तो कोई पानी भी नहीं पीने को बुलाता। तो ऐसे में थोड़ा बहुता पैरवी चलना लाजिमी है," आपने खुद ही कह दिया, पता नहीं आप कन्फ़्यूज़ हैं और को कन्फ़्यूज़ करना चाहते हैं…

विवेक सत्य मित्रम् said...

सचिन के'मीडिया में बिहारवाद'वाले लेख पर यूं तो कईयों ने टिप्पणी की। कुछेक लोग आवश्यकता से अधिक निजी टिप्पणियां करते नजर आए..
साथ ही ब्लॉग पर मिलने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए भाषा की मर्यादा तक को लांघ गए। जो बेहद शर्मनाक है। मुझे लगता है सुशांत का ये लेख सचिन अग्रवाल के सवालों की सही पड़ताल करता है। साल 2002 में आईआईएमसी में डिप्लोमा करते वक्त...40 लोगों के बैच में कम से कम 30 बिहार से थे। और मुझे नहीं लगता वहां किसी किस्म का बिहारवाद चलता है। ऐसे में मीडिया में किसी भी तरह के वाद पर चिंता जताने की बजाए..खुद को
साबित करने का जज्बा पैदा किया जाए तो बेहतर है..क्योंकि आखिरकार बाजार की व्यवस्था में टिकता वही है...जो काम लायक होता है।

राजेश कुमार said...

क्या एक बिहारी दूसरे बिहारी को मदद करता है? यदि ऐसा है तो सचमुच बदलाव होने लगा है। हर राज्य के लोग क्षेत्रवाद से त्रस्त है। बिहार के लोग सिर्फ भारतीय रहने के चक्कर में पिछड़ गये। जब झारखंड बिहार में था तब हम हमें जातीय आधार पर बांट कर रखा गया। हमारे प्राकृतिक संसाधन का धन दिल्ली मुंबई सहित दूसरे राज्यों में देश की एकता के नाम पर लगता रहा। हम देश की एकता के नाम पर चुप रहे। हमारे पास क्या नहीं है खेती लायक जमीन, कोयला लोहा,यूरेनियम,अबरख आदि सभी महत्वपूर्ण खनिज पदार्थ है लेकिन देश की एकता के नाम पर इसका हेड ऑफिस दूसरे राज्यों में बनाया गया है। धन बिहार का और रॉयल्टी दूसरे राज्यों को। बिहार कंगाल हो गया। मैं क्षेत्रवाद के खिलाफ हूं लेकिन बिहार को लोग एक हो रहे हैं तो यह खूशी की बात होगी। बिहारी लोग आपसी एकता लाने में भी पीछे रह गये।

Anonymous said...

अब आई है बहस सही मोड़ पर...सुशांत जी आपके इतने सटीक विश्लेषण के बाद मेरे पास कहने को कुछ ज्यादा नहीं है...

projectmanagementroullette said...

mein ish blog ko pichle do din se padh raha hoon, Suresh Chiplunkarji, se kehna chahta hoon ki aaj ka daur Social networking ka hai aur ishliye LinkedIn ya Facebook jaisi networking site par British Khufia angency apne naye rang rut dhundti hai. jahan tak pairvi ki baat hai, woh aaj ke daur mein jarurat ban gayi hai. jo har bari company kar rahi hai, apne HR Budget ko kam karne ke liye.

baanki, aap logon ke bich jo vaad vivaad ho raha hai, uska luft hum utha rahe hain.

charcha abhi jari hai,Biddu!!!

Anonymous said...

ऐसे सवालों के जवाब खोजने वाले ख़ुद ही ऐसे वादों को बढ़ावा देने में लगे हैं...इसलिए मित्रों सवालों के दायरे से निकलकर अपने अंदर झांको और बिना किसी सवेरे के इंतजार में बदलाव की पहल करो... अगर इतनी ही फिक्र हो रही है आप लोगों को....जहां तक क्षेत्रवाद और जातिवाद का सवाल है...तो ये हर उस प्रोफेशन में मौजूद है जहां भर्तियां एक दूसरे की सिफारिश या समर्थन के बूते होती हैं...वो चाहे मजदूरी करवाने वाले ठेकेदार हों या फिर पत्रकारिता और मीडियाजगत...लेकिन जब बात पत्रकारिता औऱ मीडिया की होती है तो यूपी और बिहार के लोग ये भूल जाते हैं कि वो अभी भी बात केवल हिन्दी भाषा की पत्रकारिता की ही कर रहे हैं...अगर अलग भाषाओं की पत्रकारिता की बात होगी तो निश्चित तौर पर उस क्षेत्र के लोगों का बोलबाला अधिक होगा....न कि हिन्दी प्रदेशों का ...जहां तक हिन्दी पत्रकारिता का सवाल है...तो इसमें भी मध्य प्रदेश से आने वाले बड़ी संख्या के पत्रकारों को क्यूं भूल जाते हो मित्रों ...दरअसल इस तरह के सवाल किसी भी निश्चित पूर्वाग्रह से निकलकर सोचने वाले हैं...न कि एक दूसरे पर हमला करने का हथियार....।मेरी गुजारिश है उन सभी पत्रकारों से जो लोगों से मेलजोल को चमचागिरी जैसे निम्नस्तरीय शब्दों से नवाजते हैं...मित्रों आज की दुनिया पब्लिक रिलेशन की दुनिया है..न कि कुंए के मेंढ़क बने रहने की ...और अगर आपको ये लगता है...तो अगली नौकरी के लिए अखबार औऱ टीवी की रिक्रूटमेंट के विज्ञापन का इंतजार करें...न की बार बार अपने लगों को फोन करके तंग...अपेक्षा है कि गंभीर चिंतन करने वाले इसे समझेंगे और अपने क़दम सही दिशा एक बड़े परिवर्थन के लिए बढ़ायेगें......

makrand said...

i agree with u r thought but do nt u think some thing is wrong in our attitude
regards

सचिन अग्रवाल said...

चलो मिथलेश कमसे कम तुम तो समझपा ए कि मैं क्या कहबना चाहता था...अपने जैसे कुछ और लोग ढूढ लो मेरे लिए...एहसान होगा...मेरी बात समझने के लिए धन्यावाद

सचिन अग्रवाल