Wednesday, October 15, 2008

आखिर बहन जी को फायदा कया है ?

मोटे तौर पर देखा जाए तो यहीं लगता है कि मायावती ने गलती की है। एक रेल कोच फैक्ट्री को रोकने से यूपी को हुई घाटे की गलती, दूसरी कांग्रेस को तूल देने की गलती-जो कांग्रेस को बोनस के रुप में यूपी की सियासी जमीन पर मिल गया है। लेकिन बसपा के लिए इसके इससे भी बड़े मतलब हैं। आनेवाले वक्त में कांग्रेस को अगर किसी पार्टी से नुक्सान हो सकता है तो वो बसपा ही है। कांग्रेस के जो भी परंपरागत वोट बैंक थे, वो किसी न किसी पार्टी ने हड़प लिया है। सवर्ण बीजेपी के साथ तो मुसलमान बीजेपी को हराने के काबिल किसी के भी साथ है। दलितों का ही एक बड़ा वोट बैंक बचा था जो बसपा से पहले कांग्रेस को मिलता रहा है, कमोवेश अभी भी यूपी-बिहार से इतर मिलता ही है। लेकिन बहन जी इस बार बड़ी तैयारी में है। और वो वो जानती है कि यूपी में कांग्रेस को भले ही रेल कोच विवाद से थोड़ी सुर्खियां मिल जाए, उसका संगठन इस काबिल नहीं है कि बसपा विरोधी मतों का स्वभाविक दावेदार खुद को जता सके। दूसरी बात ये कि आकंठ जातिवाद में डूबी सूबे की सियासत कांग्रेस को कोई बड़ी उम्मीद नहीं देती।
फिर भी मायावती इससे क्या फायदा हो सकता है...? दरअसल, बहनजी सोनिया गांधी से सीधा टकराव लेकर अपनी देशव्यापी छवि को पुख्ता करना चाहती हैं। वो चाहती है कि ये टकराव जितना बढ़ेगा-मुल्क के दूसरे हिस्सों से दलितों की नाराजगी कांग्रेस से उतनी ही बढ़ती जाएगी। वो चाहती है कि ये नाराजगी बढ़ती जाए और पूरे देश के दलित बसपा की छतरी तले जमा हो जाए। और मायावती के लिए ये काम जितना कांग्रेस से लड़कर फायदे का हो सकता है, उतना बीजेपी के साथ लड़कर नहीं।मौजूदा वक्त में मायावती का ज्यादा असर यूपी के आलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, और यूपी से सटे बिहार के इलाकों में है। मायावती चाहती है कि वो कांग्रेस से लड़कर उस आधार को पूरे देश में फैलाए। ऐसा नहीं है कि बसपा दूसरे जगह नहीं है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 3 फीसदी वोट बटोरे तो हिमाचल में 7 फीसदी। दोनों ही जगह कांग्रेस हार गई। लेकिन मायावती इसे और भी पुख्ता करना चाहती है।
लेकिन इस राह में कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हैं। बहनजी ने देशभर में पार्टी संगठन को फैलाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। वो यूपी से गद्दी से चिपके रहना चाहती है। साथ ही उन्होने पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार नहीं किया है। देखा जाए तो ये बीमारी दलितों और पिछड़ों की तकरीबन हरेक पार्टी में है और ऐसे सभी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व अपने खानदान वालों के पास ही रहने देने में दिलचस्पी दिखाई है। तीसरी बात ये कि बसपा के लिए या शायद पूरे दलित समाज के लिए कांशीराम कुछ पहले ही स्वर्ग सिधार गए।

मायावती के पास आज कांशीराम जैसा न तो थिंक टैंक है और न ही मायावती में कांशीराम बनने की संभावनांए हैं। मायावती पोलिटिशियन तो हैं-स्टेट्समैन नहीं। और यहीं वो कमजोरी है जो मायावती और बसपा के देश स्तर पर फैलने में रोड़ा हो सकती है। मायावतीको इसके िलए यूपी की गद्दी किसी काबिल नेता को सौंपनी होगी, और दिल्ली की सियासत में पूरा ध्यान देना होगा। क्योंकि देश की जनता का एक मनोविज्ञान है, वो देश का नेता उसे ही मानता है जो दिल्ली से राजनीति करे और संगठन को देशभर में फैलाए। लेकिन ये बड़े हिम्मत का काम है, यूपी का सीएम खुद को दलितों का मसीहा घोषित कर सकता है।और पार्टी कई बार टूट-फूट और बिखराव का शिकार बन सकती है।

लेकिन मायावती ने थोड़ा सा त्याग और संयम दिखाया तो इसमें कोई दो मत नहीं कि बसपा में काफी संभावनाएं हो सकती है।आखिर हमें ये सोचना चाहिए की वाजपेयी से लेकर नरसिंहराव और चंद्रशेखर तक ने पीएम बनने के लिए लंबे वक्त तक इंतजार किया-अगर वो चाहते तो काफी पहले शायद 60 या 70 के दशक में ही यूपी के सीएम बन जाते।लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस से टकराव बसपा के अपने हित में है, यूपी का चाहे जो हो जाए।

1 comment:

Vivek Gupta said...

बहिन जी राजनीति की माहिर खिलाड़ी हैं | बिना सोचे तो वो प्यादा भी नहीं आगे बढाती |