बिहार में बाढ़ इस बार कयामत बनकर आयी है। ये वो बाढ़ नहीं है जो साल-दर साल आती थी और दस-पांच दिन रहकर चली जाती थी। इस बार नेपाल में कोसी नदी का पूर्वी तटबंध टूट गया और बिहार के आधा दर्जन से ज्यादा जिले पानी में डूब गए। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस बाढ़ से उबरने का कोई उपाय है या फिर बिहार के ये जिले काल के थपेड़ों से घायल होकर धीरे-धीरे बीरान बनते जाएंगे। इतिहासकारों का अनुमान है कि सिंधु घाटी सभ्यता के खत्म होने की एक वजह इसी तरह की कुछ बाढ़ थी जिससे एक उन्नत सभ्यता तबाह हो गई। बहुत पहले जनसत्ता में जल संरक्षण और नदियों के प्रख्याद जानकार अनुपम मिश्र का एक लेख पढ़ा था। प्रो मिश्र का कहना था कि हम नदियों पर बांध बनाकर जबर्दस्ती बाढ़ का समाधान नहीं निकाल सकते। हमें नदियों के साथ जीना सीखना होगा। हमें नदियों के पानी को बिना किसी छेड़छाड़ के पहाड़ से समंदर तक जाने देना होगा। अगर हमने इसमें बाधा डाली तो प्रकृति का कोप हमें झेलना ही होगा। और अगर गौर से देखें तो पिछले सौ सालों में यहीं हुआ है।
बाढ़ की सबसे बड़ी वजह है नदियों की सिल्टींग। जब तक नदियों की सिल्टींग नहीं हटाई जाएगी, बाढ़ पर प्रभावकारी ढ़ंग से रोक लगाना नामुमकिन है। इसकी वजह ये है कि जब-जब पानी को समंदर तक जाने में अवरोध पैदा हुआ है, उसका पानी किनारे में फैल जाता है। अगर देखा जाए सिल्टींग हटाना मुश्किल नहीं है और ये बिहार जैसे प्रान्त में बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकता है।खासकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस तरफ मोड़ा जा सकता है। दूसरी बात ये कि नदियों के किनारे सिल्ट का ऊंचा तटबंध सड़क बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और तमाम दूसरे तरह के उपयोगी कामों को करने के लिए किया जा सकता है।
बिहार से बहनेवाली नदियों का स्रोत नेपाल में है। और उस पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और उस पानी को नेपाल में रोका भी नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात ये कि अतीत में कभी नेपाल की तराई में और पहाड़ी ढ़लानों पर घने जंगल हुआ करते थे जिस वजह से पानी धीरे-धीरे बह कर मैदानों में आती थी। लेकिन पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के दौरान नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगल की लूट हुई है, साथ ही हमारे यहां भी आवादी बेतहाशा बढ़ी है। बिहार की सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती सिवाय केन्द्र पर दबाव देने के। हां, भारत सरकार नेपाल सरकार के साथ मिलकर छोटे-2 बांध बनाने के और वनीकरण की एक दीर्घकालीन नीति बना सकती है। इसके लिए हमें नेपाल में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने पड़ सकते हैं और दोनों देशों के हित के लिए आपसी विश्वास का माहौल बनाकर इसकाम को वाकई अंजाम दिया जा सकता है।
अहम बात ये भी है कि हमने छोटी-छोटी धाराओं को भरकर खेत और मकान बना लिए है। वो जमीन जो रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के नाम से दर्ज हैं, उसकी बड़े पैमाने पर लूट हुई है। हमें कड़े कानून बना कर उसे रोकना होगा। हमें पानी की छेड़छाड़ को जघन्य अपराध घोषित करना होगा। इधर, विकास की ऐसी योजनाएं बनी हैं जो पानी की धारा के बिपरीत है। उत्तर बिहार में जमीन का ढ़लान उत्तर से दक्षिण की तरफ है और दक्षिण बिहार में दक्षिण से उत्तर की तरफ, लेकिन कई ऐसी सड़के है जो पूरब से पश्चिम बनाई गई है और पानी के बहाव को रोकती है। मोकामा में टाल का इलाका शायद इन्ही कुछ वजहों से बना है जब पटना-कलकत्ता रेलवे लाईन ने पानी को गंगा की तरफ जाने में अवरोध पैदा किया।पानी कि निकासी के उपयुक्त रास्ते नहीं छोड़े गए। दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाईवे, दरभंगा-निर्मली रेलवे लाईन इसके कुछेक उदाहरण हैं-यहां ये बात कहने का मतलब विकास का विरोध नहीं है। हां, विकास ऐसा हो ताकि उसका प्रकृति के साथ तारतम्य हो।
दूसरी तरफ पिछले पचास साल में नदी परियोजनाओं में जो सरकारी लूट हुई है उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनना चाहिए। अतिरिक्त पानी को रोकने के लिए और सिंचाई के लिए कई नदी परियोजनाएं बनी है। लेकिन बिहार में उनमें से बहुत कम सफल हुई है। कोसी परियोजना की बात करें तो पश्चिमी कोसी नहर जो मेरे गांव के बीच से होकर गुजरती है-उसे 1983 में ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो आज तक पूरी नहीं हुई। शायद ये दुनिया के सबसे बड़े घोटालों में से एक है। मुझे लगता है कि अगर नदी परियोजनाओं को ही ठीक से लागू किया जाता तो बाढ़ की पूरी नहीं तो आधी समस्या का समाधान तो जरुर हो जाता। शायद अभी भी पूरी बर्बादी नहीं हुई है। इसबार के जलप्रलय ने हमें सोते से जगाया है। कुलमिलाकर जब तक बाढ़, राजनेताओं और जनता के एजेंडे में नहीं आएगा,तब तक इससे निजात पाना मुश्किल है।
2 comments:
प्रभावी एवं विचारणीय आलेख!!
सुशांत भाई आपने सही कारणों को चिन्हित किया है। सरकार को हर साल लोगों को इस त्रासदी से बचाने के लिए इन बिंदुओं पर ध्यान रखते हुए दीर्घकालिक योजना बनानी चाहिए।
Post a Comment