Saturday, August 23, 2008

....यही दुनिया है तो फिर ऐसी दुनिया क्यों है!

जब अचानक तेज चलता एक रास्ता... बेहद तीखे घुमाव के बाद बस खत्म हो जाए... जब पीछे मुड़कर एक बार कोशिश करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता ना हो..... तब भी कुछ देर रुककर आगे बढ़ने के लिए बिल्कुल उसी जगह से रास्ता बनाने की जद्दोजहद। आज छह साल होने को आए हैं जब जिंदगी के साथ जद्दोजेहद करता दिल्ली चला आया था....। कनॉट प्लेस से गुजरती बस से बाहर की दिल्ली बहुत छोटी लगी थी.... शायद सपने की दिल्ली और उसमें नजर आने वाली ऊंची इमारतें.... असल की इस दिल्ली को रौंद गए थे... बिना किसी सहानुभूति के। मगर वो सपने ऐसे थे.. जिनकी तासीर सचमुच जिंदा कर देती थी...मगर आज महज 6 सालों में ही जैसे सपनों में एक अजीब सा जंग लग गया है.... वक्त के साथ बीतता हर एक लम्हा मानो बासी सा है.... कहीं कुछ भी कोई नयापन नहीं... ऐसा लगता है मानो सरकारी हो गई है जिंदगी... जहां हर रोज... वही कुर्सी.... वही फाइलें... और वही कुछ बेकार सी बातें करने वाले ऊबाऊ लोग.....। नहीं... मैं ऐसी जिंदगी कभी नहीं चाहता था...। बेर सराय के केरला कैफे की वो 10 रुपए की थाली....अब भी जब कभी जेहन में परोसी जाती है.... लगता है जैसे जोरों की भूख लग आई हो.... पर रेस्टोरेंट की चार कुर्सियों के बीच... आराम से बैठे दो लोगों की भूख..... अब फार्मेलिटी से ज्यादा कुछ भी नहीं लगती.... मालूम नहीं... ये उदास वक्त कहां से दाखिल हो गया है जिंदगी के उन सपनों में जहां... कभी हर पल... एक नया सा धागा बुनता था... जहां ख्वाबों के कैनवास पर हर लम्हा... कुछ नए रंग और नई आकृतियां अपना आशियाना बना लेती थीं... मगर अब वो बात नहीं....। शहर कहीं खा गया है...मेरे सपनों को.... मेरी उन उल्टी सीधी प्लानिंग्स को.... सच कहूं तो शहर नहीं.... कुछ और है... जो निगल गया मेरी अपनी चीजों को.... शायद समझ... शायद बोध हकीकत का... या शायद खुद मैं..जिसकी बनाई दुनिया इतनी छोटी थी... जिसे महज 6 सालों में नाप दिया गया... और कुछ भी बाकी नहीं रहा.... मैं नहीं जानता... मैं क्या लिख रहा हूं... क्यों लिख रहा हूं... मगर ये सच है... घुटन की ये वो तस्वीरें हैं... जिन्हें पन्नों पर जगह देने से कुछ आराम जरुर मिल रहा है.... काश मैं... एक बार फिर तलाश लेता... कुछ सपने... सिर्फ अपने लिए.... क्योंकि मैं जीना चाहता हूं... फिर से......

3 comments:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

बुहूहूहूहू...बुहूहू..बुहूहू...मेरी भी हालत ऐसी ही कुछ है...बस दिल्ली की जगह मेरे सपनों का मरना इलाहाबाद से ही शुरू हो गया था...क्या करें भाई, दुनिया ही ऐसी है...बस, अब वो गाना याद आ रहा है...दुनिया में आए हैं तो जीना ही पड़ेगा...जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा...लेकिन एक गाना ये भी है...हंसते-हंसते कट जाएं रस्ते....जिंदगी यूं ही चलती रहे... और ये भी जीना है तो हंस के जियो..जीवन में इक पल भी रोना ना..!

Asha Joglekar said...

Kya man aap young log aisi baten karte achche nahi lagte is dolli ko apne sapno ka shahar to aap hi ko banana hai.

संगीता पुरी said...

दुनिया ऐसी ही रहेगी। फिलहाल तो बदलनेवाली नहीं। हमें झेलना ही पड़ेगा। जन्माष्टमी की बहुत बहुत बधाई।