Saturday, October 25, 2008
क्यों पुरबिया लोग पलायन करते है ...
उद्योग धंधो की कमी के चलते ये यू पी और बिहार के लोग महानगरो की ओर रुख करते है और वहां जगह भी बना लेते है । इसमे कोई संदेह नही है कि ये पुरबिया मेहनती और इमानदार है। लेकिन ये कम अपने यहाँ भी किया जा सकता है । इसके लिए जरुरत है सरकार क खिलाफ एक आन्दोलन कि एक क्रांति कि ।
क्यो ये पुरबिया मजबूर है पलायन के लिए ?
अब जवाब ये निकल के आता है यहाँ कि सरकार जो विगत पच्चीस सालो से यहाँ राज कर रही है । क्यों महाराष्ट्र और अन्य महानगरो में उत्तर प्रदेश और बिहार कि अपेक्षा रोजगार अधिक है । देश के संसद में सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व ये पुरबिया ही करते है तो अपने प्रदेश में विकाश के नाम पे इनकी संख्या कम क्यो हो जाती है ?
हमारा ये मानना है की राज ठाकरे को दोष देने के बजाय ये पुरबिया अपने नेता लालू , नीतिश , मायावती , और मुलायम को दोष दे तो ज्यादा ठीक होगा । ये वो नेता है जिनके कारण ये पुरबिया पलायनवादी रुख अख्तियार करते है ।
कहते है राजनीती में सब जायज है तो राज ठाकरे की राजनीती भी एक तरीके से जायज है । जब ये उत्तर प्रदेश और बिहार के नेता अप्रत्य्क्ष्य रूप से प्रदेश को खोखला कर रहे है तो राज ठाकरे प्रत्यक्ष्य रूप से अपने वोट बैंक को मजबूत कर रहे है ।
देखना यह है की ये वोट की राजनीती कब तक चलती रहेगी ? कब तक हम मासूम जनता इन राजनीती के ठेकेदारों की बलि चढ़ते रहेंगे? ? ?
Thursday, October 23, 2008
राज ठाकरे का नेक्स्ट प्लान
राज ठाकरे क्लास में सेंकेंड आने वाले छात्र को सिखाएंगे कि फर्स्ट नहीं आ रहा तो कोई बात नहीं, फर्स्ट आने वाले छात्र को लात मार बाहर धकेल दो.
संसद में केवल दिल्ली के लोग ही जा सकेंगे क्योंकि ये दिल्ली में है.
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और दूसरे बड़े पदों पर केवल दिल्ली के लोग ही हो सकेंगे.
मुंबई में कोई हिंदी फिल्म नहीं बनेगी, केवल मराठी फिल्म बनेगी.
हर राज्य की सीमा पर बस, ट्रेन और हवाई जहाज रोक दिए जाएंगे और उनके स्टाफ बदल दिए जाएंगे, लोकल स्टाफ भर्ती किए जाएंगे.
महाराष्ट्र के जितने लोग दूसरे लोग दूसरे राज्यों मे काम कर रहे हैं, उनको वहां से निकाल दिया जाएगा, क्योंकि वे स्थानीय लोगों की नौकरियों पर हमला बोल रहे हैं.
भगवान शिव, गणेश और पार्वती की पूजा महाराष्ट्र में नहीं होगी क्योंकि वो उत्तर के देवता हैं...हिमालय में उनका घर है.
ताज महल देखने केवल उत्तर प्रदेश के लोग ही जा सकेंगे.
महाराष्ट्र के किसानों के लिए केंद्र से किसी तरह का पैसा नहीं लिया जाएगा क्योंकि ये पैसा तो पूरे देश का है, फिर केवल महाराष्ट्र को कैसे दिया जा सकता है.
महाराष्ट्र से तमाम मल्टी नेशनल कंपनियों को भगा दिया जाएगा. इन विदेशी कंपनियों का यहां क्या काम. उनकी महाराष्ट्रा माइक्रोसाफ्ट, महाराष्ट्रा पेप्सी और महाराष्ट्रा मारुति कंपनियां खोली जाएंगी.
अब कोई भी मोबाइल पर मराठी के अलावा किसी भी भाषा बात करते पाया गया तो उसका मोबाइल तोड़ दिया जाएगा.
महाराष्ट्र में किसी के घर में टीवी पर मराठी के अलावा किसी और भाषा के कार्यक्रम नहीं चलेगा. अगर ऐसा होता है तो उनका टीवी तोड़ दिया जाएगा...जेम्स बांड की फिल्म देखनी है तो पहले मराठी में जेम्स बांड का अनुवाद होगा.
हम मर जाएंगे, 10 गुने दाम पर अनाज खरीद कर खाएंगे लेकिन दूसरे राज्यों से अनाज नहीं मंगाएंगे. इसके लिए हम संकल्प लेंगे.
कोई भी ट्रेन किसी मराठी ने नहीं बनाई और रेल मंत्री भी बिहारी हैं. इसलिए सभी ट्रेनें रोक दी जाएंगी.
महाराष्ट्र के बच्चों को हम बाहर बिल्कुल नहीं भेजेंगे. वो यही जन्म लेंगे, यही पढ़ाई करेंगे, यहीं नौकरी करेंगे, कमाएंगे-खाएंगे और मर जाएंगे, उन्हें कहीं बाहर नहीं जाना होगा, तभी वे सच्चे मराठी कहलाएंगे.
ये सारी बातें राज ठाकरे की आइडियोलॉजी को प्रोजेक्ट करके लिखा गया है. मुझे ये सब एक मेल के जरिए प्राप्त हुआ.
Wednesday, October 22, 2008
राजा के दो सींग, किम-किम-किम ?
हुआ यूं कि बहुत पहले एक राजा हुआ करता था जिसके सिर पर दो सींग थे...इसे छुपाने के लिए वो हमेशा ही मुकुट पहने रहता था...बाल काटने वाला नाई ही जानता था कि उसके सिर पर सींग हैं...पुस्तैनी नाई की मौत के बाद राजा पर चिंता के घनघोर बादल मंडराने लगे कि अब उनके बाल कौन काटेगा...क्यों कि जो भी काटेगा ये राज सबको बता देगा कि राजा के दो सींग हैं...किसी तरह खोज कर एक नाई लाया गया...नाम था - बब्बन. जब राजा जी ने बाल कटवाने के लिए अपना सिर नाई के आगे किया तो बब्बन हजाम ठठाकर हंसने लगा...उसे आश्चर्य भी हुआ और हंसी भी आई...खैर किसी तरह उसने राजा के बाल काटे...राजा ने उसे सख्त हिदायत दी कि अगर उसने ये बात किसी को बताई उसका सर कलम करवा दिया जाएगा...बब्बन डर गया..उसने किसी को नहीं बताया...दिन बीतते गए..बब्बन सबके बाल काटता रहा..लेकिन उस दिन के बाद से उसके पेट में एक अजीब तरह का दर्द रहने लगा...उसे लगता जैसे वो सींग वाली बात उसके पेट की दीवारों को खरोंच रही है और कह रही हो कि मुझे बाहर निकालो..मुझे बाहर निकालो....ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता ही गया...बब्बन के पेट का घाव बढ़ता ही गया...एक दिन वो जंगल चला गया...और एक सूखे पेड़ के सामने सारी बातें जोर-जोर उगल दीं...अब वो हल्का महसूस कर रहा था....कुछ दिनों बाद राजा जी के यहां एक संगीत समारोह आयोजित हुआ...राजा की सल्तनत के अलावा दूर-दूर देश के कई राजा भी आए हुए थे...समारोह शुरु हुआ...शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम था...सारंगी, तबला और ढोलक पर साज दिए जाने थे..समां बंधा था...लेकिन बाजा बजते ही सबके कान चौकन्ने हो गए...कलाकार जो धुन निकालना चाहते वो निकली ही नहीं रही थी..कुछ और धुन निकल रही थी...सबने सुना...उस धुन को...सारंगी बजी- राजा के दो सींग...तबले की थाप से आवाज आई - किम..किम..किम...देर तक यही दोनों बड़-बड़ करते रहे..अब राजा को तो काटो तो खून नहीं...सिर पे सींग वाली इतनी छुपाने के बावजूद इतनी फैल गई कि बाजा भी बाजा फाड़के बोल रहा है कि राजा के दो सींग....अभी तक ढोलक वाला खामोश था...ढोलक पर हाथ पड़ते ही वो बोल पड़ा - बब्बन हजाम..बब्बन हजाम....
(अं अं अं माथे पर शिकन मत लाइए...आपका सवाल यही है ना कि ये कैसे हो गया, बताऊंगा लेकिन पहले आप बताइए कैसे हुआ होगा ऐसा...क्योंकि बहुत मुमकिन है आप जानते हों ?)
Wednesday, October 15, 2008
आखिर बहन जी को फायदा कया है ?
फिर भी मायावती इससे क्या फायदा हो सकता है...? दरअसल, बहनजी सोनिया गांधी से सीधा टकराव लेकर अपनी देशव्यापी छवि को पुख्ता करना चाहती हैं। वो चाहती है कि ये टकराव जितना बढ़ेगा-मुल्क के दूसरे हिस्सों से दलितों की नाराजगी कांग्रेस से उतनी ही बढ़ती जाएगी। वो चाहती है कि ये नाराजगी बढ़ती जाए और पूरे देश के दलित बसपा की छतरी तले जमा हो जाए। और मायावती के लिए ये काम जितना कांग्रेस से लड़कर फायदे का हो सकता है, उतना बीजेपी के साथ लड़कर नहीं।मौजूदा वक्त में मायावती का ज्यादा असर यूपी के आलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, और यूपी से सटे बिहार के इलाकों में है। मायावती चाहती है कि वो कांग्रेस से लड़कर उस आधार को पूरे देश में फैलाए। ऐसा नहीं है कि बसपा दूसरे जगह नहीं है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 3 फीसदी वोट बटोरे तो हिमाचल में 7 फीसदी। दोनों ही जगह कांग्रेस हार गई। लेकिन मायावती इसे और भी पुख्ता करना चाहती है।
लेकिन इस राह में कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हैं। बहनजी ने देशभर में पार्टी संगठन को फैलाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। वो यूपी से गद्दी से चिपके रहना चाहती है। साथ ही उन्होने पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार नहीं किया है। देखा जाए तो ये बीमारी दलितों और पिछड़ों की तकरीबन हरेक पार्टी में है और ऐसे सभी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व अपने खानदान वालों के पास ही रहने देने में दिलचस्पी दिखाई है। तीसरी बात ये कि बसपा के लिए या शायद पूरे दलित समाज के लिए कांशीराम कुछ पहले ही स्वर्ग सिधार गए।
मायावती के पास आज कांशीराम जैसा न तो थिंक टैंक है और न ही मायावती में कांशीराम बनने की संभावनांए हैं। मायावती पोलिटिशियन तो हैं-स्टेट्समैन नहीं। और यहीं वो कमजोरी है जो मायावती और बसपा के देश स्तर पर फैलने में रोड़ा हो सकती है। मायावतीको इसके िलए यूपी की गद्दी किसी काबिल नेता को सौंपनी होगी, और दिल्ली की सियासत में पूरा ध्यान देना होगा। क्योंकि देश की जनता का एक मनोविज्ञान है, वो देश का नेता उसे ही मानता है जो दिल्ली से राजनीति करे और संगठन को देशभर में फैलाए। लेकिन ये बड़े हिम्मत का काम है, यूपी का सीएम खुद को दलितों का मसीहा घोषित कर सकता है।और पार्टी कई बार टूट-फूट और बिखराव का शिकार बन सकती है।
लेकिन मायावती ने थोड़ा सा त्याग और संयम दिखाया तो इसमें कोई दो मत नहीं कि बसपा में काफी संभावनाएं हो सकती है।आखिर हमें ये सोचना चाहिए की वाजपेयी से लेकर नरसिंहराव और चंद्रशेखर तक ने पीएम बनने के लिए लंबे वक्त तक इंतजार किया-अगर वो चाहते तो काफी पहले शायद 60 या 70 के दशक में ही यूपी के सीएम बन जाते।लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस से टकराव बसपा के अपने हित में है, यूपी का चाहे जो हो जाए।
माया - सोनिया के जंग में ......
बात कुछ भी हो लेकिन इस माया - सोनिया के बीच विवाद में पिस रहे है आम लोगो के सपने । वो सब्जबाग सोनिया ने दिखाए थे चूर चूर हो गए । ग्रामीणों कि उम्मीदे कि ये थी कि फैक्ट्री लगेगी रोजगार मिलेगा , उन्हें क्या पता था कि राजनीती के आगे ये सब नही चलता ।
रेल कोच फैक्ट्री के बंद होने से वह के लोगो में काफी आक्रोश है , खून खराबे किसी भी स्थिति बन गई थी, शायद रायबरेली दूसरा सिंगुर भी बन जाता । हाँ एक बात और कुछ भी घटना होती है तो आरोप प्रत्यारोप का दौर जरुर चलता है । माया का कहना है किसी अगर सोनिया को उत्तर प्रदेश में विकास करना है तो तमाम जगह है जहा वो विकास कर सकती है रायबरेली के पीछे क्यो पड़ी है ।
इसका सबसे ज्यादा प्रभाव गरीब आदमी पे ही पड़ता है । फिलहाल गलती किसी कि भी हो चोट तो आम आदमी को ही लगती है । पेट तो आम आदमी का ही जलता है भाई ।
Monday, October 13, 2008
सिमी की तरह बजरंग दल पर भी बैन लगे, क्यों !
लगा वैसे ही बजरंग दल पर भी लगना चाहिए...यहां सवाल ये खड़ा होता है कि सिमी और बजरंग दल में कैसी समानता है...दोनों ही संगठन कट्टर माने जाते हैं...एक मुस्लिम कट्टरपंथी तो दूसरा हिंदू कट्टरपंथी...लेकिन जिस तरह की आतंकी वारदातें सिमी ने अंजाम दी हैं...क्या उस तरह का एक भी कारनामा बजरंग दल के नाम है !!कहने वाले कहेंगे कि हां है, परभणी,नांदेड़ और दूसरी कई जगहों पर मसजिद को बम से उ़डाने की साजिश...कानपुर में बम बनाते पकड़े गए दो बजरंग दल कार्यकर्ता...(नाम याद नहीं आ रहा)...या इससे भी पेट भी नहीं भरा तो गड़े मुर्दे उखाड़कर बजरंग दल को आतंकवादी करार दे देंगे...कहेंगे बाबरी मसजिद किसने गिरवाई...ग्राहम स्टेंस और उसके दो मासूम बेटों का कत्ल किसने करवाया...और भी ढेर सारे इल्जाम लगा दिए जाएंगे...लेकिन जिस तरह हिंदू ही नहीं किसी भी मजहब के आदमी के दिल में सिमी या इंडियन मुजाहिद्दीन का केवल नाम ही दहशत पैदा कर देता है...क्या वैसा डर बजरंग दल का नाम सुनकर किसी मुसलमान के दिल में पैदा होता है...अगर हां तब तो लगा देना चाहिए..बजरंग दल पर भी प्रतिबंध...लेकिन नहीं, तब तो ये सरासर ज्यादती होगी बजरंग दल के साथ...अगर मान लें कि राष्ट्रीय एकता परिषद की मीटिंग के बाद बजरंग दल पर प्रतिबंध लग ही जाता है...तो पहले तो बजरंग दल सड़कों पर उतर आएंगे..भयंकर विरोध करेंगे...प्रतिबंध लग जाने के बाद पुलिस इन कार्यकर्ताओं को पकड़कर जेल में बंद कर देगी...लेकिन यहां पर हमारे सियासी विचारक सिमी से इसकी एक समानता भूल जा रहे हैं...क्योंकि जैसे सिमी ने नाम बदल लिया और भूमिगत होकर काम कर रहे हैं....खतरनाक धमाकों को धमकाकर अंजाम दे रहे हैं वैसे ही बजरंग दल वाले भी तो कर सकते हैं....
Monday, October 6, 2008
राजधर्म जाए पर सत्ता न जाए
नाम नमाज, काम सड़क जाम
(कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया...नईं!!!!...........कूल रहिए, मुझे पता है कुछ सवाल पेट में गुड़गुड़ाने के बाद ऊपर पहुंचकर कुलबुला रहे हैं आपके यक्क दिमाग में.......!, बस टिप्पियाइए, और प्रेशर कुकर की सीटी की तरह अपना ब्लड प्रेशर भी.......सीईईईईईईई........)
Saturday, October 4, 2008
शेरनी ने ले ली चुम्मी, शुक्र है होंठ बच गए !
(अगर आप ये समझ रहे हों कि मैंने अपने हाथ पर फर्जी तरीके से, केवल टशन मारने के लिए बांध रखा था तो आपको बता दूं ऐसा बिल्कुल नहीं है...अभी मेरे हाथ पे पट्टी बंधी है....दाहिना पैर पूरा सूजा हुआ है....कल छुट्टी भी नहीं मिल रही....पोस्ट लिखने के दौरान ही फोन आ चुका है...कल ऑफिस रोजाना के टाइम से दो घंटे पहले पहुंचना है....तो कल ऑफिस पहुंचूंगा.........बाएं हाथ में पट्टी और सूजा हुआ पैर लेकर...ये हादसा कैसे हुआ वो फिर कभी क्योंकि वो सब बयान करने से हास्य रस नहीं, रौद्र रस की निष्पति होगी.....तो एक बार में एक ही रस ....का पान करें तो अच्छा....है ना !)
यही है बापू को नमन !
(यह लेख मेरे मेल पर २ अक्टूबर को १२:२३ बजे ही आ गया था लेकिन प्रकाशित काफी लेट कर पा रहा हूं...इसके लिए माफी चाहूंगा...आपको बता दूं लेखक श्री विभूति नारायण चतुर्वेदी फिलहाल पीटीआई -भाषा में वरिष्ठ पत्रकार हैं...)
मोहनदास करमचंद गांधी और कस्तूरबा के खून से पैदा हुई संतति की संख्या बढ़कर सौ के पार हो चुकी है लेकिन इस खानदान की मौजूदा पीढ़ी को अब तक एक भी ऐसा मौका मयस्सर नहीं हो सका है कि वे एक साथ जुट सके। तारा से लेकर तुषार तक परिवार के सदस्यों को इसका मलाल भी है।
महात्मा गांधी के दूसरे पुत्र मणिलाल गांधी के पौत्र तुषार गांधी ने इस बारे में पूछे जाने पर कहा कि यह नहीं हो पाया है। परिवार इतना फैल चुका है कि उसे एक साथ कर पाना मुश्किल हो गया है। उन्होंने बताया कि बापू और बा के चार पुत्रों हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास के पुत्र-पुत्रियों का वंश अब सौ से ऊपर हो चुका है और इस खानदान के कुल 130 सदस्य हिन्दुस्तान के अलावा दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया आदि देशों में रह रहे हैं। इसी संदर्भ में गांधी के तीसरे पुत्र देवदास गांधी की ज्येष्ठ पुत्री तारा भट्टाचार्य ने कहा कि हमारी मर्जी तो बहुत है कि हमें मिलना चाहिए लेकिन हम सब अपने-अपने क्षेत्रों में लगे हैं। इस बारे में सोच भी है कि सभी इकट्ठा हों लेकिन हो नहीं पाया है।
कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक न्यास की उपाध्यक्ष तारा ने बताया कि इस बारे में कोशिश की जा रही है और उन्हें उम्मीद है कि साल के अंत में ऐसा कोई समागम हो पाएगा। उन्होंने कहा कि विदेश में रहने वालों को जुटा पाना संभव नहीं हो पा रहा है लेकिन भारत में रहने वाले लोग समय समय पर मिलते रहते हैं और हमलोग खुश होते हैं।
करमचंद गांधी और पुतली बाई के सबसे छोटे पुत्र मोहन दास का विवाह मात्र 13 साल की उम्र में कस्तूरबा से हो गया था और उनके चार पुत्र हुए और उसके बाद यह खानदान लगातार बढ़ा है। महात्मा ने हालांकि भारतीय आजादी की लड़ाई की कमान संभालने से पहले 1914 में ही परिवार का परित्याग कर दिया था और सभी भारतीयों को अपना मानस पुत्र मान लिया था लेकिन गांधी के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल की चार संतानें हुई और उनकी सबसे बड़ी पुत्री नीलम पारिख पिछले साल मुंबई में गांधी के अस्थि कलश विसर्जन में शामिल हुई।
महात्मा के सबसे बड़े पुत्र से मेल न खाने की बात सभी लोगों को पता है और उन्होंने खुद लिखा भी है कि मेरे जीवन के दो सबसे बड़े खेद- दो लोगों को मैं कभी रजामंद नहीं कर सका- मेरे मुस्लिम दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना और मेरे अपने पुत्र हरिलाल गांधी।
नीलम ने अपने पिता पर एक पुस्तक भी लिखी है- महात्मा गांधीज लास्ट ट्रेजर-हरिलाल गांधी जिसमें इस बात पर कुछ रोशनी डाली गई है। गांधी के दूसरे पुत्र मणिलाल गांधी के एक पुत्र अरुण गांधी और दो पुत्रियां सीता और इला हुई। अरुण हाल के दिनों में विवादों में भी घिर गए थे जब उन्होंने वाशिंगटन पोस्ट वेबसाइट पर एक आलेख प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने यहूदियों और इजरायल के बारे में कुछ टिप्पणी की। इस विवाद के बाद उन्हें अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय में उनके द्वारा स्थापित महात्मा गांधी शांति पीठ से इस्तीफा देना पड़ा।
अरुण गांधी के ही पुत्र तुषार गांधी हैं जो फिलहाल कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं और पेशे से बैंकर हैं। वह सामाजिक और राजनीतिक कार्यो में लगे हैं। महात्मा के तीसरे पुत्र रामदास की पुत्री सुमित्रा गांधी कुलकर्णी राज्यसभा [1972 से 1976] की सदस्य रहीं और आपातकाल के मुद्दे पर इंदिरा गांधी से उनका मतभेद हुआ। उन्होंने गांधी पर एक पुस्तक अनमोल विरासत लिखी और देश के राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतर कर सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंचने का प्रयास भी किया। गांधी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी खुद हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे और उन्हें कभी-कभार बापू के निजी सहायक के तौर पर साबरमति आश्रम में काम करने का भी मौका मिला। देवदास के एक पुत्र गोपाल कृष्ण गांधी मौजूदा समय में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं और उन्होंने पूर्व में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के तौर पर विभिन्न देशों में भारतीय मिशनों में काम किया जिसमें श्रीलंका भी शामिल है जहां से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया।
देवदास गांधी के एक अन्य पुत्र राजमोहन गांधी भी राज्यसभा के दो साल तक सदस्य रहे और उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ा। राजमोहन ने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। उनके सबसे छोटे भाई रामचंद्र गांधी पिछले साल जून में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मृत पाए गए थे जो पेशे से दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे और फक्कड़ी उनके मिजाज में थी। गांधी खानदान की अब पांचवीं छठीं पीढ़ी पैदा हो चुकी है और महात्मा गांधी हिज अपोस्टल्स पुस्तक के लेखक वेद प्रकाश मेहता के अनुसार गांधी खानदान के लोग कई देशों में जीवन बीमा बेचने से लेकर अंतरिक्ष इंजीनियरिंग तक के क्षेत्र में सक्रिय हैं। पोरबंदर से लोकसभा का चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले तुषार ने गांधी रक्त वंशजों के राजनीति में सफल नहीं होने के बारे में पूछे जाने पर कहा कि मैं समझता हूं कि शायद हमारी काबलियत में वह नहीं है जो आज राजनीति में सफल होने के लिए चाहिए। बापू ने अपने जीवनकाल में परिवार को कभी आगे नहीं बढ़ाया और इसका सम्मान उस समय परिवार ने भी किया और राजनीति तथा सार्वजनिक जीवन से दूर रहा। उन्होंने कहा कि मेरे चाचा [राजमोहन], बुआ [सुमित्रा] और मैंने कोशिश की। हमारे में वह काबलियत नहीं है जो जरूरी होती है। जो निपुणता चाहिए वह शायद नहीं है। तुषार ने कहा कि उन्होंने 1998 में लोकसभा पहुंचने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हो सके। तुषार पहले समाजवादी पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने बताया कि उनकी एक बुआ इला गांधी दक्षिण अफ्रीका में वहां की संसद की सदस्य रहीं। मणिलाल गांधी की पुत्री इला 1994 से 2004 तक दक्षिण अफ्रीकी संसद की सदस्य रहीं और वह गांधीवाद के प्रचार प्रसार में सक्रिय हैं।
महात्मा गांधी के परिवार के भारतीय राजनीति में सफल नहीं रहने के बारे में गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र कुमार ने कहा कि जिस तरह का संरक्षण अपने बच्चों को देकर अन्य राजनेता उन्हें आगे बढ़ाते हैं गांधीजी ने वह संरक्षण नहीं दिया। वे मानते थे जिनमें क्षमता है वे खुद आगे बढ़ें। यह पूछे जाने पर कि समाज को क्या गांधी परिवार से राजनीतिक उम्मीद करनी चाहिए उन्होंने कहा समाज को किसी परिवार से नहीं बल्कि चिंतन से उम्मीद रखनी चाहिए। यह गांधीवादी चिंतन ही है जो गोपालकृष्ण गांधी [पश्चिम बंगाल के राज्यपाल] को अग्रिम पंक्ति में खड़ा करता है।
Thursday, October 2, 2008
मीडिया में बिहारी दबंगई, मामला क्या है?
नहीं कहानी कुछ और भी है। और इसे समझने के लिए बिहारियों की मानसिकता और उनकी समाजिक-आर्थिक विकास को समझना जरुरी है।ये कहने की जरुरत नहीं कि विकास के पैमाने पर बिहार का स्थान नीचे सें नंबर-1 हैं और ऐसे माहौल में जातिवादी माहौल भी खूब पनपता है। बिहार में संसाधनों का जितना असमान वितरण है, यानी जमीन का एक बड़ा हिस्सा कुछ खास लोगों के हाथों में(हाल तक यहीं था, कमोवेश अभी भी) में है-उसने लोगों की मानसिकता सामंतवादी बना दी है। यही वजह है कि एक औसत बिहारी अपने सामंती अहं की तुष्टि आईएएस जैसी नौकरी में खोजना चाहता है।बिहार के सामंतवादी-जातिवादी शासन-समाज ने पिछले पचास साल में जो अ-विकास का मॉडल गढ़ा है उसमें रोजगार के नाम पर घटिया किस्म की खेती है या नहीं तो भारत और बिहार सरकार की नौकरी है। और बढ़ती आबादी और शिक्षा ने एक पूरे के पूरे वर्ग को बिहार से बाहर धकेल दिया है जो सम्मानजनक काम भी करना चाहता है। वो सरकारी नौकरियों में भर गया है, वो देश के हरसंभव नौकरियों में है जहां अंग्रेजी जरुरी नहीं है।
साफ है बिहार का एक औसत शिक्षित युवा सामान्य ज्ञान और करेंट अफेयर्स में काफी मजबूत हो जाता है-ऐसा पैदाईशी नहीं होता,ऐसा वहां के माहौल ने बना दिया है। जिस समाज में सम्मान पाने का तरीका सिर्फ एक अच्छी नौकरी करना हो, जहां व्यापार करने की न तो परंपरा हो न ही माहौल, वहां ऐसा होना लाजिमी है। और फिर जब आईएएस बनने का ख्वाब दरकता है, तो वह मीडिया हॉउसों के ग्लास हाउसों में जाकर पूरा होता है क्योंकि लगता है इतनी पढ़ाई की उपयोगिता वहीं है..जो बाद में जाकर बड़ा छलावा साबित होता है।
और ये तमाम परिस्थितियां दूसरे हिंदी भाषी सूबों में नहीं है, यूपी में भी नहीं।आप प्रतिव्यक्ति आय को देखिए, जमीन की उपलब्धता को देखिए या फिर औद्यौगीकरण को देखिए-यूपी बिहार से आगे है। हां, यूपी की विशालता और विविधता भी इतनी है कि पश्चिमी यूपी वाले को पूर्वी यूपी वाले से कोई लगाव नहीं रहता-बल्कि वो तो उसे हिकारत से देखता है। वो सांस्कृतिक रुप से पंजाबी या हरियाणवी है और संपन्न भी है।
एक बात और जो अहम है वो ये कि हाल के दशकों में बिहारियों में थोड़ी बहुत एक बिहारी उपराष्ट्रीयतावाद जरुर पनपी है, संभवत ऐसा 60 या 70 के दशक में तमिल या बंगालियों के साथ था जो हिंदी वर्चस्व के भय के साये में जीते थे।दरअसल बात ये है कि जो भी कौम भय के साये में जीती है उसके साथ ऐसा ही होता है। बिहार के पिछड़ापन और इसकी वजह से दूसरे सूबों के लोगों का हिकारत भाव इतना गहरा है कि बिहारियों ने आहिस्ते-आहिस्ते क्षेत्रीयतावाद का रास्ता अपनाना शुरु किया है। वे खोल में समाते जा रहे हैं-शायद कुछ बंगालियों की तरह जो ट्रेन में किसी दूसरे बंगाली को देखकर सट जाता है।
और यहीं बिहारी कॉकस या बिहारी क्षेत्रीयतावाद मीडिया ही नहीं हर जगह दिख रही है। तो क्या ये सिर्फ अयोग्यों का जमाबड़ा है? नहीं, लोगों की सप्लाई इतनी है कि अयोग्यता का सवाल बेमानी हो जाता है। अलवत्ता, बिहारियों जैसा दिलदार कौम आपको शायद ही खोजने पर मिले। बिहारियों ने दिलखोल कर बाहर के लोगों को संसद में पहुंचाया है-चाहे वो जॉर्ज हों या फिर शरद यादव या फिर मधु लिमिये हो। तो फिर आप अंदाज लगा लीजिए की..ये सिर्फ क्षेत्रीयतावाद है या कुछ और। शायद ये दोनों है,या शायद कुछ भी नहीं।
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी क्यों ?
डॉ राजेंद्र कुमार, साहित्यकार एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''ये मुहावरा गांधीजी का अवमूल्यन करने वाला प्रतीत होता है। गांधीजी ने कभी भी अहिंसा को न तो कायरता कापर्याय माना न मजबूरी का। चूंकि गांधी के आदर्श को व्यवहारिकता के तौर पर नहीं समझा सका। इसलिए जिनलोगों ने वास्तविक रूप में गांधीजी की राह पर चलना चाहा उनको मजबूरी से जोड़कर लोगों ने अपनी समर्थता को छिपा लिया।''
डॉ जेएस माथुर, निदेशक, गांधी अध्ययन संस्थान, इलाहाबाद
'''ये प्रश्न बिल्कुल बेतुका है। लोग किसी भी उल्टी-सीधी बात को स्लोगन बना लेते हैं, उस पर हमें माथा-पच्ची नहींकरनी चाहिए कि कैसे बना क्यों बना। गांधीजी दृढ़ इच्छाशक्ति और सबल नेतृत्व के स्वामी थे, लोग उनसे बहुतकुछ सीख सकते हैं।''
डॉ एचएस उपाध्याय, अध्यक्ष, दर्शनशास्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी हिंसा के सहारे इतने बड़े शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं लड़ सकते थे। इसीलिए मजबूरी में अहिंसाका सहारा लेना पड़ा। शायद तभी लोग ऐसा कहते हैं।''
डॉ राजाराम यादव, प्राध्यापक भौतिकशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी देश का बंटवारा नहीं चाहते थे, पर मजबूरी में उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा। शायद इसीलिए मजबूरी कानाम महात्मा गांधी पड़ गया।''
डॉ आईआर सिद्दिकी,प्राध्यापक रसायनशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''उस समय जनता तत्कालीन सरकार पर आर्थिक या राजनैतिक रूप से दबाव डालने में असमर्थ थी। गांधीजीमजबूर होकर खुद को तकलीफ देना उचित समझते थे। उनकी कार्यप्रणाली यही थी कि अधिक से अधिक कष्टसहकर विरोध प्रदर्शित किया जाए।''
डॉ अनीता गोपेश, साहित्यकार एवं प्राध्यापक जन्तु विज्ञान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी राष्ट्र का विभाजन नहीं चाहते थे फिर भी विभाजन हुआ और वे मजबूर हो अपना शोक प्रकट करते रहे।उनकी इस मजबूरी को ही उनका अवमूल्यन करते हुए लोगों ने उनके नाम के साथ जोड़ दिया, यह सर्वथा अनुचितहै।''
डॉ अविनाश त्रिपाठी, व्याख्याता वनस्पति विज्ञान, इलाहाबाद
'' गांधीजी के संबंध में तीन बातें विचारणीय हैं-
वे बहुत कृषकाय शरीर के थे।
उन्होंने प्राय: मजबूरन ही अंग्रेजों से समझौते किये
भारत के विभाजन के मुद्दे पर जिन्ना के हठ के आगे वे मजबूर हो गये।
दूसरे किसी भी शख्स ने कभी मजबूर होकर समझौते नहीं किये, इसीलिए मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहाजाता है...''
ब्लॉगवाणी के जरिए इन लोगों के विचार मिेले-
सुरेश चंद्र गुप्त
''मेरे विचार में यह कहावत नेहरू की देन है। नेहरू ने गांधी को कभी अपना आदर्श नहीं माना, वह केवल अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए गाँधी से जुड़े थे। आज़ादी के बाद नेहरू को गांधी की जिद पर कई ऐसे फैसले करने परे जो उन्हें पसंद नहीं थे. नेहरू के लिए गांधी एक मजबूरी का नाम थे.''
सुरेश चिपलूणकर
''राष्ट्रपिता भी उन्हें "मजबूरी" में ही बनाया गया (माना गया) शायद इसीलिये… क्योंकि तिलक, भगतसिंह, बोस के होते हुए कुर्सी और चमचागिरी की मजबूरी में नेहरु ने उन्हें राष्ट्रपिता घोषित किया.''
(.....इस कड़ी को आप आगे बढ़ा सकते हैं....लिखिए आप क्या सोचते हैं इस मुद्दे पर, क्यों अक्सर लोग कहते हैं 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी !' अपने विचार आप यहां टिप्पणी के रूप में दर्ज कर दें या मुझे मेल कर दें। )
वो खबर बनाती थी, अब खबर बन गई !
ये तो हुई मेरी कहानी। कुछ लोग ऐसे भी हैं..जिन्होंने सौम्या के साथ वक्त बिताया है.. सौम्या का जाना उनकी जिंदगी में कैसा खालीपन लेकर आया है...वो आप यहां पढ़ सकते हैं-
वो बार बार आती रही मेरे ख्यालों में