Saturday, August 30, 2008
फास्ट फूड़ बना योग
योग गया अमेरिका योगा बन बैठा। स्वदेश वापसी पर लोगों को योग का महत्व समझ में आया। आख़िर आए भी क्यों ना विदेश का मुल्लमा जो चढ़ गया है। टी.वी.सेट पर चिपके लाखो लोग योग सीख रहे हैं। बस में बैठी भीड़ नाखून घिस बाल उगाने की दवा कर रही है। योग साधना ना होकर फास्ट फूड़ बन गया है। दो चम्मच खाओ और भूख मिटाओ। जिसे देखो योग सीखा रहा है योग का प्रचार कर रहा है। सभी ख़ुश है दावा करते है हमारी पुरानी विधा फिर से लोगों के दिलों में जगह बना रही है। और इसका असर हम भारतीयों पर ज़रूर दिखेगा और एक स्वस्थ भारत बना कर ही हम सभी दम लेगें। सुबह की ही ख़बर है एक महिला आसन करने बैठी और अस्पताल पहुँच गयी। कारण लिखा था टी.वी. और कुछ किताबें पढ़कर योग सीखना मँहगा पड़ गया और स्वास्थ लाभ लेने अब अस्पताल के आई.सी.यू. में दाखिल हैं। सवाल कई वर्षो से उठ रहे थे कि योग को जन-जन तक पहुँचाने के लिए क्या इसका बाज़ारू संस्करण उचित है? बार-बार मन कहता है इसमें हर्ज ही क्या है? आख़िर हमारी तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में योग भी तो रफ़्तार वाला होना चाहिए। बिना किसी मिर्च मसाले के यह योग हमें ना तो स्वादिष्ट लगेगा और ना ही हमारी पाचन शक्ति इतनी अधिक है कि हम इसे शुध्द रूप में पचा लें। हाजमा ख़राब होने का ड़र भी है। जब इतनी दिक्कतें है तो मै क्यों योगा तो योग बनाऊं इसे तो योगा ही रहने दो बड़ा ही सुखदायी है। माना कि हठप्रदिपिका में योग के यम,नियम बताऐं गऐं हैं लेकिन मुश्किल ये है इसे जानने वाले कम है और साथ ही मानने वाले भी। क्रिया और प्राणायाम में भेद ना बता पाने वाले लोग योग सीखा रहे हैं। लोगों का भरोसा भी इसी पर क़ायम है। बात साफ़ है उपभोगितावाद में जितनी चमकदार चीज़ होगी उतनी ही अच्छी होगी सभी यही मानते है इसमें मै भी शामिल हूँ। एक दो घटनाओं से लोगों की चेतना शायद ही जागे। लेकिन इस योग,योगा और अब शिल्पायन की कही तो सीमा रेखा होगी। कभी तो लोग इस विधा से खिलवाड़ करना बन्द करेगें। ऐसा मेरा विश्वास है। क्या यह संभव है...।
Friday, August 29, 2008
बिहार में प्रलय...लेकिन क्या है उपाय ?
बिहार में बाढ़ इस बार कयामत बनकर आयी है। ये वो बाढ़ नहीं है जो साल-दर साल आती थी और दस-पांच दिन रहकर चली जाती थी। इस बार नेपाल में कोसी नदी का पूर्वी तटबंध टूट गया और बिहार के आधा दर्जन से ज्यादा जिले पानी में डूब गए। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस बाढ़ से उबरने का कोई उपाय है या फिर बिहार के ये जिले काल के थपेड़ों से घायल होकर धीरे-धीरे बीरान बनते जाएंगे। इतिहासकारों का अनुमान है कि सिंधु घाटी सभ्यता के खत्म होने की एक वजह इसी तरह की कुछ बाढ़ थी जिससे एक उन्नत सभ्यता तबाह हो गई। बहुत पहले जनसत्ता में जल संरक्षण और नदियों के प्रख्याद जानकार अनुपम मिश्र का एक लेख पढ़ा था। प्रो मिश्र का कहना था कि हम नदियों पर बांध बनाकर जबर्दस्ती बाढ़ का समाधान नहीं निकाल सकते। हमें नदियों के साथ जीना सीखना होगा। हमें नदियों के पानी को बिना किसी छेड़छाड़ के पहाड़ से समंदर तक जाने देना होगा। अगर हमने इसमें बाधा डाली तो प्रकृति का कोप हमें झेलना ही होगा। और अगर गौर से देखें तो पिछले सौ सालों में यहीं हुआ है।
बाढ़ की सबसे बड़ी वजह है नदियों की सिल्टींग। जब तक नदियों की सिल्टींग नहीं हटाई जाएगी, बाढ़ पर प्रभावकारी ढ़ंग से रोक लगाना नामुमकिन है। इसकी वजह ये है कि जब-जब पानी को समंदर तक जाने में अवरोध पैदा हुआ है, उसका पानी किनारे में फैल जाता है। अगर देखा जाए सिल्टींग हटाना मुश्किल नहीं है और ये बिहार जैसे प्रान्त में बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकता है।खासकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस तरफ मोड़ा जा सकता है। दूसरी बात ये कि नदियों के किनारे सिल्ट का ऊंचा तटबंध सड़क बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और तमाम दूसरे तरह के उपयोगी कामों को करने के लिए किया जा सकता है।
बिहार से बहनेवाली नदियों का स्रोत नेपाल में है। और उस पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और उस पानी को नेपाल में रोका भी नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात ये कि अतीत में कभी नेपाल की तराई में और पहाड़ी ढ़लानों पर घने जंगल हुआ करते थे जिस वजह से पानी धीरे-धीरे बह कर मैदानों में आती थी। लेकिन पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के दौरान नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगल की लूट हुई है, साथ ही हमारे यहां भी आवादी बेतहाशा बढ़ी है। बिहार की सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती सिवाय केन्द्र पर दबाव देने के। हां, भारत सरकार नेपाल सरकार के साथ मिलकर छोटे-2 बांध बनाने के और वनीकरण की एक दीर्घकालीन नीति बना सकती है। इसके लिए हमें नेपाल में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने पड़ सकते हैं और दोनों देशों के हित के लिए आपसी विश्वास का माहौल बनाकर इसकाम को वाकई अंजाम दिया जा सकता है।
अहम बात ये भी है कि हमने छोटी-छोटी धाराओं को भरकर खेत और मकान बना लिए है। वो जमीन जो रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के नाम से दर्ज हैं, उसकी बड़े पैमाने पर लूट हुई है। हमें कड़े कानून बना कर उसे रोकना होगा। हमें पानी की छेड़छाड़ को जघन्य अपराध घोषित करना होगा। इधर, विकास की ऐसी योजनाएं बनी हैं जो पानी की धारा के बिपरीत है। उत्तर बिहार में जमीन का ढ़लान उत्तर से दक्षिण की तरफ है और दक्षिण बिहार में दक्षिण से उत्तर की तरफ, लेकिन कई ऐसी सड़के है जो पूरब से पश्चिम बनाई गई है और पानी के बहाव को रोकती है। मोकामा में टाल का इलाका शायद इन्ही कुछ वजहों से बना है जब पटना-कलकत्ता रेलवे लाईन ने पानी को गंगा की तरफ जाने में अवरोध पैदा किया।पानी कि निकासी के उपयुक्त रास्ते नहीं छोड़े गए। दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाईवे, दरभंगा-निर्मली रेलवे लाईन इसके कुछेक उदाहरण हैं-यहां ये बात कहने का मतलब विकास का विरोध नहीं है। हां, विकास ऐसा हो ताकि उसका प्रकृति के साथ तारतम्य हो।
दूसरी तरफ पिछले पचास साल में नदी परियोजनाओं में जो सरकारी लूट हुई है उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनना चाहिए। अतिरिक्त पानी को रोकने के लिए और सिंचाई के लिए कई नदी परियोजनाएं बनी है। लेकिन बिहार में उनमें से बहुत कम सफल हुई है। कोसी परियोजना की बात करें तो पश्चिमी कोसी नहर जो मेरे गांव के बीच से होकर गुजरती है-उसे 1983 में ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो आज तक पूरी नहीं हुई। शायद ये दुनिया के सबसे बड़े घोटालों में से एक है। मुझे लगता है कि अगर नदी परियोजनाओं को ही ठीक से लागू किया जाता तो बाढ़ की पूरी नहीं तो आधी समस्या का समाधान तो जरुर हो जाता। शायद अभी भी पूरी बर्बादी नहीं हुई है। इसबार के जलप्रलय ने हमें सोते से जगाया है। कुलमिलाकर जब तक बाढ़, राजनेताओं और जनता के एजेंडे में नहीं आएगा,तब तक इससे निजात पाना मुश्किल है।
बाढ़ की सबसे बड़ी वजह है नदियों की सिल्टींग। जब तक नदियों की सिल्टींग नहीं हटाई जाएगी, बाढ़ पर प्रभावकारी ढ़ंग से रोक लगाना नामुमकिन है। इसकी वजह ये है कि जब-जब पानी को समंदर तक जाने में अवरोध पैदा हुआ है, उसका पानी किनारे में फैल जाता है। अगर देखा जाए सिल्टींग हटाना मुश्किल नहीं है और ये बिहार जैसे प्रान्त में बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकता है।खासकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस तरफ मोड़ा जा सकता है। दूसरी बात ये कि नदियों के किनारे सिल्ट का ऊंचा तटबंध सड़क बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और तमाम दूसरे तरह के उपयोगी कामों को करने के लिए किया जा सकता है।
बिहार से बहनेवाली नदियों का स्रोत नेपाल में है। और उस पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और उस पानी को नेपाल में रोका भी नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात ये कि अतीत में कभी नेपाल की तराई में और पहाड़ी ढ़लानों पर घने जंगल हुआ करते थे जिस वजह से पानी धीरे-धीरे बह कर मैदानों में आती थी। लेकिन पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के दौरान नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगल की लूट हुई है, साथ ही हमारे यहां भी आवादी बेतहाशा बढ़ी है। बिहार की सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती सिवाय केन्द्र पर दबाव देने के। हां, भारत सरकार नेपाल सरकार के साथ मिलकर छोटे-2 बांध बनाने के और वनीकरण की एक दीर्घकालीन नीति बना सकती है। इसके लिए हमें नेपाल में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने पड़ सकते हैं और दोनों देशों के हित के लिए आपसी विश्वास का माहौल बनाकर इसकाम को वाकई अंजाम दिया जा सकता है।
अहम बात ये भी है कि हमने छोटी-छोटी धाराओं को भरकर खेत और मकान बना लिए है। वो जमीन जो रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के नाम से दर्ज हैं, उसकी बड़े पैमाने पर लूट हुई है। हमें कड़े कानून बना कर उसे रोकना होगा। हमें पानी की छेड़छाड़ को जघन्य अपराध घोषित करना होगा। इधर, विकास की ऐसी योजनाएं बनी हैं जो पानी की धारा के बिपरीत है। उत्तर बिहार में जमीन का ढ़लान उत्तर से दक्षिण की तरफ है और दक्षिण बिहार में दक्षिण से उत्तर की तरफ, लेकिन कई ऐसी सड़के है जो पूरब से पश्चिम बनाई गई है और पानी के बहाव को रोकती है। मोकामा में टाल का इलाका शायद इन्ही कुछ वजहों से बना है जब पटना-कलकत्ता रेलवे लाईन ने पानी को गंगा की तरफ जाने में अवरोध पैदा किया।पानी कि निकासी के उपयुक्त रास्ते नहीं छोड़े गए। दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाईवे, दरभंगा-निर्मली रेलवे लाईन इसके कुछेक उदाहरण हैं-यहां ये बात कहने का मतलब विकास का विरोध नहीं है। हां, विकास ऐसा हो ताकि उसका प्रकृति के साथ तारतम्य हो।
दूसरी तरफ पिछले पचास साल में नदी परियोजनाओं में जो सरकारी लूट हुई है उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनना चाहिए। अतिरिक्त पानी को रोकने के लिए और सिंचाई के लिए कई नदी परियोजनाएं बनी है। लेकिन बिहार में उनमें से बहुत कम सफल हुई है। कोसी परियोजना की बात करें तो पश्चिमी कोसी नहर जो मेरे गांव के बीच से होकर गुजरती है-उसे 1983 में ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो आज तक पूरी नहीं हुई। शायद ये दुनिया के सबसे बड़े घोटालों में से एक है। मुझे लगता है कि अगर नदी परियोजनाओं को ही ठीक से लागू किया जाता तो बाढ़ की पूरी नहीं तो आधी समस्या का समाधान तो जरुर हो जाता। शायद अभी भी पूरी बर्बादी नहीं हुई है। इसबार के जलप्रलय ने हमें सोते से जगाया है। कुलमिलाकर जब तक बाढ़, राजनेताओं और जनता के एजेंडे में नहीं आएगा,तब तक इससे निजात पाना मुश्किल है।
Wednesday, August 27, 2008
आफिस में लेट .........
सुबह ७ बजे का अलार्म घनघनाया और मन भन्ना गया ....आज किसी तरह आफिस जल्दी पहुचना था.... इसलिए कोसा बहुत अपने आप को लेकिन उठना था क्योकि जीवन के जद्दोजहद से जूझना था .....फ़िर क्या था ....गिरते पड़ते पंहुचा आफिस के गेट पर मोबाईल में देखा कि नौ बज के पच्चीस मिनट हो गए बस कर दिया हस्ताक्षर .....शुरू हो गई नौकरी .......स्टोरी आईडिया और खबरों का दौर.....इसी बीच कुछ मित्रो को हो गई देर कर दिए लेट और हो गए रजिस्टर में अनुपस्थित .....कट गई तनख्वाह .....मरते क्या न करते वाली हाल ने उन्हें अन्दर से झकझोर दिया ....बेचारे कुछ देर तो बिताये आफिस में ...लेकिन दे गया धैर्य जबाब वो भी कोसे किस्मत को ......और निकल पड़े घर की ओर .....सिलसिला निरंतर जारी रहेगा .......दोस्त अभी तो स्टोरी बाकी है.....ये कहानी किसी भी आफिस की हो सकती है इसलिए सावधान .................ध्यान दीजिये समय की पाबन्दी को ....
Tuesday, August 26, 2008
भारत के लिए खतरनाक हो सकते हैं शरीफ़
नवाज शरीफ और जरदारी के गठबंधन टूटने की उम्मीद पहले से ही थी। परवेज मुशर्रफ जब तक थे तब तक तो दोनों में एका था लेकिन मुशर्रफ के जाते ही दोनों की एकता ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। लेकिन गौर करने की बात जो है वो ये कि गिलानी सरकार के गिरने से सबसे तगड़ा झटका अमेरिका को लगेगा। अमेरिका ने बड़ी होशियारी से मुशर्रफ के अलोकप्रिय होते जाने की सूरत में भुट्टो परिवार को पाकिस्तान की कमान सौंपने के लिए जमीन तैयार की थी जिसे पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका भांफ गया था। नतीजा बेनजीर की हत्या में सामने आया। हत्या के बाद अमेरिका ने जरदारी पर दांव लगाया, लेकिन शरीफ, जरदारी को तभीतक बर्दाश्त करते रहे जबतक की उनके राह से मुशर्रफ का कांटा दूर न हो गया। अब, जबकि शरीफ, जजों की बहाली के मामले पर अड़ गए और दूसरी तरफ जरदारी ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने नाम की उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मामला खतरनाक हो गया।
नवाज शरीफ जजों की बहाली इसलिए चाहते हैं कि इससे उनके कई हित सधते हैं। पहला तो ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन आते ही मुशर्रफ पर मुकदमा चलाते कि उन्होने 1973 के संविधान के साथ छेड़खानी की, जिसके लिए मौत की सजा तक का प्रावधान है।दूसरी बात ये थी कि जरदारी पर जो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे उसे मुशर्रफ ने एक विशेष आदेश के जरिए हटा दिया था। अगर चौधरी इफ्तिकार हुसैन बहाल हो जाते हैं और मुशर्ऱफ पर गैरकानूनी ढंग से सत्ता हथियाकर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगता है तो फिर जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जिंदा हो जाएंगे और उन के खिलाफ मुकदमे फिर खुल जाएंगे। तीसरी बात ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन ने उस मकदमें की भी सुनवाई की थी जिसके तहत मुशर्रफ सरकार ने 300 कट्टपंथियों को पकड़कर अमेरिकी खुफिया एजेंसी को सौंप दिया था।अगर चौधरी की फिर से बहाली हो जाती है तो उन 300 आदमियों की लिस्ट फिर सरकार से मांगी जाएगी। अमेरिका की पाकिस्तान में बची खुची छवि तार-तार हो जाएगी, लोग अमेरिकी दूतावास पर पथराव करेंगे और अमेरिका का पाकिस्तान में जमे रहना मुहाल हो जाएगा। जाहिर है अमेरिका अंतिम वक्त तक कोशिश करेगा कि जजों की बहाली न हो-भले ही इसके लिए सीआईए को बड़े पैमाने पर खून-खरावा ही क्यो न करवाना पड़े।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है-जरदारी भले ही पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हों, वो जमीन के नेता नहीं है। अव्वल तो बनजीर की हत्या के बाद उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई है, दूसरी बात ये कि पाकिस्तानी समाज का क्षेत्रीय अतर्विरोध ऐसा है जिसमे पंजाबी समुदाय इतना उदार नहीं है कि किसी सिंधी को ज्यादा दिन तक सत्ता में बर्दाश्त कर सके। ये अलग बात है कि समय-समय पर गैर-पंजाबी हुक्मरान भी पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज रहें है लेकिन प्रभावी सत्ता पंजाबियों के पास ही रही है। और यहीं वो बिन्दु है जहां नवाज शरीफ, जरदारी पर भारी पर जाते हैं। देखा जाए तो पिछले दिनो जितने भी सियासी नाटक पाकिस्तान में हुए हैं उसमें मुद्दे की लड़ाई नवाज ने ही लड़ी है-चाहे वो लोकतंत्र की बात हो, मुशर्रफ को हटाना हो या जजों की बहाली हो। जरदारी तो मुशर्रफ के पिछलग्गू ही दिखे हैं और उन्होने यथास्थिति ही कायम रखने का प्रयास किया है। और इसीलिए तो मुशर्रफ ने बेनजीर को पाकिस्तान आने भी दिया था ताकि सत्ता का हस्तांतरण बिना विवाद के हो जाए। लेकिन अब के हालात में नवाज नहीं चाहेंगे कि गिलानी सरकार एक दिन भी कायम रहे-क्योंकि नए चुनाव में उनकी पार्टी को जाहिरन ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।
यहां एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि पाकिस्तानी सेना..वहां की राजनीति में एक बड़ी ताकत है। जब मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद छोड़ने के मजबूर किया गया तो बड़ी चालाकी से ऐसे आदमी को कमान सौंपी गई जो अमेरिका के साथ-साथ बेनजीर भुट्टो का भी करीबी था। जनरल कयानी वहीं आदमी है जो बेनजीर के प्रधानमंत्री रहते उनके सैन्य सलाहकार थे, साथ ही कयानी अमेरिका में सेनाधिकारियों के उस बैच में ट्रनिंग ले चुके हैं जिसमें कॉलिन पॉवेल हुआ करते थे। कयानी की तार अमेरिका और भुट्टो परिवार में गहरे जुडी है। अगर नवाज के राह में कोई बड़ा कांटा हो सकता है तो वो जनरल कयानी हो सकते हैं-ये बात ध्यान में रखनी होगी। अभी तक नवाज का जो क्रियाकलाप रहा है वो यहीं इशारा करता है कि वो जरदारी और मुशर्रफ को अपने रास्ते से हटाने के लिए कट्टरपंथियों से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे। इसके लिए वो जनता में अमेरिका विरोधी भावना का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे।
यहीं वो बात है जो भारत के लिए चिंता का सबब हो सकता है। भारत के हित की जहां तक बात है, जरदारी और अमेरिका समर्थक एक जनरल से 'डील' करना आसान है। कम से कम ऐसे लोग पाकिस्तान की कट्टरपंथियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, न ही जरदारी जैसे लोगों को पाकिस्तान के 'हितों' से बहुत सरोकार है। ये राजनीतिक बनिए हैं-लेकिन नवाज शरीफ जैसे नेता अपने आपको जनता की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानते हैं। गिलानी सरकार से समर्थन वापसी के बाद ऐसे हालात में अगर नवाज शरीफ किसी तरह से सत्ता मे आ जाते हैं तो ये कहना मुश्किल है कि क्या वो वहीं नवाज शरीफ होगें जिन्होने वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था...या वो पाकिस्तान की सनातन भारत विरोधी विचारों की अगुआई करने लगेंगे...?
नवाज शरीफ जजों की बहाली इसलिए चाहते हैं कि इससे उनके कई हित सधते हैं। पहला तो ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन आते ही मुशर्रफ पर मुकदमा चलाते कि उन्होने 1973 के संविधान के साथ छेड़खानी की, जिसके लिए मौत की सजा तक का प्रावधान है।दूसरी बात ये थी कि जरदारी पर जो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे उसे मुशर्रफ ने एक विशेष आदेश के जरिए हटा दिया था। अगर चौधरी इफ्तिकार हुसैन बहाल हो जाते हैं और मुशर्ऱफ पर गैरकानूनी ढंग से सत्ता हथियाकर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगता है तो फिर जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जिंदा हो जाएंगे और उन के खिलाफ मुकदमे फिर खुल जाएंगे। तीसरी बात ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन ने उस मकदमें की भी सुनवाई की थी जिसके तहत मुशर्रफ सरकार ने 300 कट्टपंथियों को पकड़कर अमेरिकी खुफिया एजेंसी को सौंप दिया था।अगर चौधरी की फिर से बहाली हो जाती है तो उन 300 आदमियों की लिस्ट फिर सरकार से मांगी जाएगी। अमेरिका की पाकिस्तान में बची खुची छवि तार-तार हो जाएगी, लोग अमेरिकी दूतावास पर पथराव करेंगे और अमेरिका का पाकिस्तान में जमे रहना मुहाल हो जाएगा। जाहिर है अमेरिका अंतिम वक्त तक कोशिश करेगा कि जजों की बहाली न हो-भले ही इसके लिए सीआईए को बड़े पैमाने पर खून-खरावा ही क्यो न करवाना पड़े।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है-जरदारी भले ही पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हों, वो जमीन के नेता नहीं है। अव्वल तो बनजीर की हत्या के बाद उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई है, दूसरी बात ये कि पाकिस्तानी समाज का क्षेत्रीय अतर्विरोध ऐसा है जिसमे पंजाबी समुदाय इतना उदार नहीं है कि किसी सिंधी को ज्यादा दिन तक सत्ता में बर्दाश्त कर सके। ये अलग बात है कि समय-समय पर गैर-पंजाबी हुक्मरान भी पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज रहें है लेकिन प्रभावी सत्ता पंजाबियों के पास ही रही है। और यहीं वो बिन्दु है जहां नवाज शरीफ, जरदारी पर भारी पर जाते हैं। देखा जाए तो पिछले दिनो जितने भी सियासी नाटक पाकिस्तान में हुए हैं उसमें मुद्दे की लड़ाई नवाज ने ही लड़ी है-चाहे वो लोकतंत्र की बात हो, मुशर्रफ को हटाना हो या जजों की बहाली हो। जरदारी तो मुशर्रफ के पिछलग्गू ही दिखे हैं और उन्होने यथास्थिति ही कायम रखने का प्रयास किया है। और इसीलिए तो मुशर्रफ ने बेनजीर को पाकिस्तान आने भी दिया था ताकि सत्ता का हस्तांतरण बिना विवाद के हो जाए। लेकिन अब के हालात में नवाज नहीं चाहेंगे कि गिलानी सरकार एक दिन भी कायम रहे-क्योंकि नए चुनाव में उनकी पार्टी को जाहिरन ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।
यहां एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि पाकिस्तानी सेना..वहां की राजनीति में एक बड़ी ताकत है। जब मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद छोड़ने के मजबूर किया गया तो बड़ी चालाकी से ऐसे आदमी को कमान सौंपी गई जो अमेरिका के साथ-साथ बेनजीर भुट्टो का भी करीबी था। जनरल कयानी वहीं आदमी है जो बेनजीर के प्रधानमंत्री रहते उनके सैन्य सलाहकार थे, साथ ही कयानी अमेरिका में सेनाधिकारियों के उस बैच में ट्रनिंग ले चुके हैं जिसमें कॉलिन पॉवेल हुआ करते थे। कयानी की तार अमेरिका और भुट्टो परिवार में गहरे जुडी है। अगर नवाज के राह में कोई बड़ा कांटा हो सकता है तो वो जनरल कयानी हो सकते हैं-ये बात ध्यान में रखनी होगी। अभी तक नवाज का जो क्रियाकलाप रहा है वो यहीं इशारा करता है कि वो जरदारी और मुशर्रफ को अपने रास्ते से हटाने के लिए कट्टरपंथियों से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे। इसके लिए वो जनता में अमेरिका विरोधी भावना का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे।
यहीं वो बात है जो भारत के लिए चिंता का सबब हो सकता है। भारत के हित की जहां तक बात है, जरदारी और अमेरिका समर्थक एक जनरल से 'डील' करना आसान है। कम से कम ऐसे लोग पाकिस्तान की कट्टरपंथियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, न ही जरदारी जैसे लोगों को पाकिस्तान के 'हितों' से बहुत सरोकार है। ये राजनीतिक बनिए हैं-लेकिन नवाज शरीफ जैसे नेता अपने आपको जनता की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानते हैं। गिलानी सरकार से समर्थन वापसी के बाद ऐसे हालात में अगर नवाज शरीफ किसी तरह से सत्ता मे आ जाते हैं तो ये कहना मुश्किल है कि क्या वो वहीं नवाज शरीफ होगें जिन्होने वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था...या वो पाकिस्तान की सनातन भारत विरोधी विचारों की अगुआई करने लगेंगे...?
Saturday, August 23, 2008
....यही दुनिया है तो फिर ऐसी दुनिया क्यों है!
जब अचानक तेज चलता एक रास्ता... बेहद तीखे घुमाव के बाद बस खत्म हो जाए... जब पीछे मुड़कर एक बार कोशिश करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता ना हो..... तब भी कुछ देर रुककर आगे बढ़ने के लिए बिल्कुल उसी जगह से रास्ता बनाने की जद्दोजहद। आज छह साल होने को आए हैं जब जिंदगी के साथ जद्दोजेहद करता दिल्ली चला आया था....। कनॉट प्लेस से गुजरती बस से बाहर की दिल्ली बहुत छोटी लगी थी.... शायद सपने की दिल्ली और उसमें नजर आने वाली ऊंची इमारतें.... असल की इस दिल्ली को रौंद गए थे... बिना किसी सहानुभूति के। मगर वो सपने ऐसे थे.. जिनकी तासीर सचमुच जिंदा कर देती थी...मगर आज महज 6 सालों में ही जैसे सपनों में एक अजीब सा जंग लग गया है.... वक्त के साथ बीतता हर एक लम्हा मानो बासी सा है.... कहीं कुछ भी कोई नयापन नहीं... ऐसा लगता है मानो सरकारी हो गई है जिंदगी... जहां हर रोज... वही कुर्सी.... वही फाइलें... और वही कुछ बेकार सी बातें करने वाले ऊबाऊ लोग.....। नहीं... मैं ऐसी जिंदगी कभी नहीं चाहता था...। बेर सराय के केरला कैफे की वो 10 रुपए की थाली....अब भी जब कभी जेहन में परोसी जाती है.... लगता है जैसे जोरों की भूख लग आई हो.... पर रेस्टोरेंट की चार कुर्सियों के बीच... आराम से बैठे दो लोगों की भूख..... अब फार्मेलिटी से ज्यादा कुछ भी नहीं लगती.... मालूम नहीं... ये उदास वक्त कहां से दाखिल हो गया है जिंदगी के उन सपनों में जहां... कभी हर पल... एक नया सा धागा बुनता था... जहां ख्वाबों के कैनवास पर हर लम्हा... कुछ नए रंग और नई आकृतियां अपना आशियाना बना लेती थीं... मगर अब वो बात नहीं....। शहर कहीं खा गया है...मेरे सपनों को.... मेरी उन उल्टी सीधी प्लानिंग्स को.... सच कहूं तो शहर नहीं.... कुछ और है... जो निगल गया मेरी अपनी चीजों को.... शायद समझ... शायद बोध हकीकत का... या शायद खुद मैं..जिसकी बनाई दुनिया इतनी छोटी थी... जिसे महज 6 सालों में नाप दिया गया... और कुछ भी बाकी नहीं रहा.... मैं नहीं जानता... मैं क्या लिख रहा हूं... क्यों लिख रहा हूं... मगर ये सच है... घुटन की ये वो तस्वीरें हैं... जिन्हें पन्नों पर जगह देने से कुछ आराम जरुर मिल रहा है.... काश मैं... एक बार फिर तलाश लेता... कुछ सपने... सिर्फ अपने लिए.... क्योंकि मैं जीना चाहता हूं... फिर से......
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