Tuesday, November 27, 2007

तसलीमा के बहाने नंदीग्राम नरसंहार से ध्यान हटा है…

शायद ये बहुत दिनों के बाद हुआ है कि वामपंथी वैकफुट पर हैं। कोशिश ये हो रही है कि किसी तरह नंदीग्राम और तसलीमा के मामले को रफा-दफा करने में सफलता मिल जाए। बेचारे रिजवान को भी इसी बीच मरना था। लेकिन मामला है कि शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। दूसरे के घर पर पत्थर फेंकते-फेंकते अपना घर कब शीशे का बन गया लाल खेमा को पता ही नहीं चला। अब सबाल ये है कि तसलीमा का क्या होगा..नंदीग्राम तक तो ठीक था..रक्तपात तो वैसे भी क्रान्ति का शुभ संकेत है लेकिन ये तसलीमा तो आफत की पुरिया निकली। अपने पीछे 20-25 फीसदी मुसलमानों का वोट वर्वाद करने पर तुली है। इसे भगाना जरुरी था-भाड में जाए वामपंथी विचारधारा...पहले सरकार बचा लो बाद में विचारधारा बचाना। फेंको इसे उठाकर कहीं- कमसे कम राजस्थान जैसे राज्य में जहां वो मर-मुर भी जाए तो ठीकरा संघियों के सिर फोडने में मजा आए। य़ाद आता है-भंडारकर संस्थान और रानी अहिल्यावाई विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला। तब वाम आलोचना स्तुत्य लगी थी। वाम ने तो दिल चुरा लिया था। ळे बलैया..तसलीमा तो बडी वो निकली...वाम को ही नंगा ही कर दिया। एक मित्र ने कहा कि यार ठीक ही तो है ये औरत भारत में कर क्या रही है..मैने कहा कि यार एक मित्र देश की वुद्धिजीवी महिला है और उसे परेशान किया जा रहा है तो ये तो हमारा स्वाभाविक दायित्व है कि हम उसे संरक्षण दें। तो उस मित्र का जवाब था कि तो सारे बंग्लादेशियों को क्यों नहीं बसा लेते.....मैंने उसे कहा कि यार सवाल को उलट दो--अव ये वामदलों से पूछो कि जब उन्हे तमाम बंग्लादेशियों से कोई आपत्ति नहीं है तो इस महिला से क्या आपत्ति है...सवाल आपत्ति का नहीं है, सबाल ये है कि वामदल कब से वोटबैंक की राजनीति करने लगे..ये तो वाम सिद्धान्तो की सरासर पराजय है। क्या वाम सडक पर उपद्रव करने बाले मुट्ठी भर मुसलमानों से डर गया है..क्या उसे 25 फीसदी वोट की चिन्ता सताने लगी है..।अगर इसका मतलब ये नहीं है तो क्या है..। इसी मानसिकता के लोगों के कारण सलमान रश्दी को अपना वतन छोडकर बेगानों की तरह नहीं भटकना पडा था..यहां बात सिर्फ तसलीमा नामके बंग्लादेशी की नहीं है जो हमारे मुल्क में अशांति का सवव बन गयी है..बात छद्म-धर्मनिरपेक्षता और दोहरे मानसिकता की है।

2 comments:

विवेक सत्य मित्रम् said...

दरअसल हकीकत ये है कि अब जाकर लेफ्ट की असलियत खुलकर सामने आ पाई है। आज की तारीख में कोई भी दल 'पार्टी विद अ डिफरेंस' का दावा नहीं कर सकती। अगर कोई ऐसा करता है, तो खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। देर सबेर असलियत सामने आ ही जाती है। यही कुछ किस्सा लेफ्ट के साथ हुआ। खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली लेफ्ट पार्टियां किसी भी दूसरे दल से अलग नहीं हैं। ये बात अलग है कि दूसरे दल उनकी तरह सियासत करना नहीं जानते। अगर ये सब कुछ गुजरात या राजस्थान में हुआ होता तो अब तक तो ये बीजेपी की अर्थी निकाल चुके होते। बहरहाल मेरा मानना ये है कि कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है। लेकिन लेफ्ट पार्टियों में इतनी कूव्वत ही नहीं है कि वो इस सच्चाई को स्वीकार कर पाएं। फिलहाल ये ट्रेलर है, फिल्म तो अभी आनी बाकी है।

अनुनाद सिंह said...

तसलीमा के मुद्दे पर वामपंथी और कांग्रेस दोनो ने धर्मनिरपेक्षता के उपर मुल्ला तुष्टीकरण को वरीयता दे डाली। इससे सिद्ध हो गया कि ये शुद्ध रूप से वोट के सौदागर हैं।

और हाँ,वे छद्म बुद्धिजीवी कहाँ हैं जो बात-बात पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का रोना रोते रहते थे। क्या काश्मीर की तरह यह सिगनल भी उनके लाल-रडार पर कैच नहीं होता? शबना और जावेद कहाँ हैं? 'प्रखर चिन्तक' खुशवन्त सिं कहाँ हैं? ....