प्रस्तुत उत्तेजक गीत हिन्दी फिल्म जगत के नवीनतम रत्न 'तीस मार खान' से लिया गया है. यह गाना नायिका के संगमरमर जैसे शरीर से आकर्षित होने वाले लंगोट के ढीले पुरुषों पर नायिका की अपमानजनक प्रतिक्रया को व्यक्त करता है. नायिका उन्हें सीधे और कटु शब्दों में बताना चाहती है कि शीशे के पीछे रसगुल्ले की ख्वाहिश करना एक बात है और उसे चखना दूसरी बात!
I know you want it
But you never gonna get it
Tere haath kabhi na aani
Maane na maane koi duniya
Yeh saari, mere ishq ki hai deewani
गाने की शुरुआत नायिका के ईमानदारीपूर्ण वक्तव्य से होती है. वो जानती है कि इन मर्दों को उसकी भावनाओं, दिल और प्रेम से कोई सरोकार नहीं. वो तो बस एक ही चीज चाहते हैं. पर वो उन्हें मिलने वाली नहीं. उन्हें मुंह में भर आये पानी से ही अपनी प्यास बुझानी होगी. दुर्भाग्यपूर्ण, परन्तु सत्य.
Hey hey, I know you want it
but you never gonna get it
Tere haath kabhi na aani
Maane na maane koi duniya
yeh saari Mere ishq ki hai deewani
Ab dil karta hai haule haule se
Main toh khud ko gale lagaun
Kisi aur ki mujhko zaroorat kya
Main toh khud se pyaar jataun
नायिका पुनः दर्जनों पुरुषों में उसके प्रति जगी वासना पर प्रकाश डालती है. वो अपने आस-पास मंडराते छिछोरों को बताती है कि उनकी दाल नहीं गलने वाली. पर साथ ही यहाँ नायिका के व्यक्तित्व का एक और पक्ष उजागर होता है. सौंदर्य से जागृत अहंकार का पक्ष. वो अपनी सुन्दरता से इतनी प्रभावित है कि उसे किसी पुरुष की ज़रुरत नहीं. वो अपने अन्दर की स्त्री के लिए खुद ही पुरुष बन जाना चाहती है. अब इसे अहंकार की पराकाष्ठा कहें या आत्म-प्रेम की मादकता!
what's my name
what's my name
what's my name
My name is Sheela
Sheela ki jawani
I'm just sexy for you
Main tere haath na aani
Na na na sheela
Sheela ki jawani
I'm just sexy for you
Main tere haath na aani
अब नायिका अपना परिचय देती है. अपना नाम बताती है. और नाम भी ऐसा जो बूढ़ी नसों के लिए वायाग्रा का काम करे. उनमें यौवन का झंझावात ला दे. नाम बताने के साथ वो यह भी बताती है कि वो बहुत ही ज़्यादा सेक्सी है. अपने मुंह मियाँ मिट्ठू. पर इस आत्म-प्रशंसा में भी अहंकार की सुगंध है. वो खुद को इतना ज़्यादा सेक्सी बताती है कि वो सबकी पहुँच से बाहर है. एक ऐसे चन्द्रमा की तरह जिसकी चांदनी तो सबको उपलब्ध है, पर उस चाँद को छूकर उसे महसूस करना किसी के बस की नहीं. यहाँ यह सिद्ध होता है है कि नायिका सौंदर्य की साधक ही नहीं, बल्कि अहंकार से भरी चुड़ैल भी है.
Take it on
Take it on
Take it on
Take it on
अब नायिका सीधे शब्दों में चुनौती देती है. एक ऐसी चुनौती जो शायद मर्दों में शराब के बिना भी साहस ला दे.
Silly silly silly silly boys
O o o you're so silly
Mujhe bolo bolo karte hain
O o oHaan jab unki taraf dekhun,
baatein haule haule karte hain
Hai magar, beasar mujh par har paintra
अब नायिका उनका उपहास करती है. उन्हें मूर्ख कहकर पुकारती है. उन्हें ज़लील करती है. वो मर्द नायिका के बारे में गुप-चुप बातें कर सकते हैं
Friday, December 31, 2010
Thursday, August 5, 2010
‘कॉमनवेल्थ’ के बाद अब ‘बुलेट ट्रेन’…तमाशा जारी है..!
सुशांत झा
क्या आपको बूलेट ट्रेन पर चढ़कर तीन घंटे में पटना पहुंचने की इच्छा नहीं होती ? कितना अच्छा लगेगा अगर आप 5,000 रुपया किराय अदा करें और एक उपन्यास पढ़ते हुए या सल्लू मियां की कोई फिल्म देखते हुए पटना पहुंच जाएं। वहां आपके इंतजार में कोई शॉफर ड्रिवने गाड़ी हो, जो आपको अपनी कोठी तक छोड़ आए ! और हां, ख्याल रहे कि आप अगर फिल्म देखने के बदले कोई उपन्यास या मैगजीन पढ़ते हुए जाएं तो वो खालिस अंग्रेजी की हो। तभी तो आप एक डिजाइनर हिंदुस्तानी (बिहारी नहीं) लगेंगे। आपकी चिंता बहुत जल्दी ही दूर होने वाली है। आपकी ये चिंता दिल्ली में बैठे हुए कुछ लोगों का गिरोह, जिसे सरकार कहते हैं बहुत जल्द दूर करने वाली है। अब ये मत पूछिए कि इसमें खर्च कितना आएगा। वो सब समझना आपके औकात की बात नहीं है। वैसे इस तरह के ट्रेन में चढ़ना भी आपके औकात के बाहर ही है, लेकिन मुगालता पालने में क्या हर्ज है ?
अब देखिए, ये जो हमारी सरकार बहादुर है न, वो आपको किस तरीके से बुलेट ट्रेन देगी। वो आपको नरेगा में काम देती है, बीपीएल को अनाज देती है-देती है कि नहीं ? तो उस सरकार बहादुर को अब इस बात की शर्म आने लगी है कि चीन जैसे देश में जब बुलेट ट्रेन दौड़ सकती है, तो हमारे यहां क्यों नहीं। माना कि हम उनके जैसे ओलंपिक नहीं करवा सके हैं, लेकिन कॉमनवेल्थ करवाने जा रहे हैं कि नहीं ? आप सच-सच बताईये, आपको कॉमनवेल्थ से खुशी हो रही है कि नहीं ? आपका दिल बल्लियों उछल रहा है कि नहीं॥! जरुर उछल रहा होगा, आप शरमा रहे हैं, इसीलिए नहीं बोल रहे हैं।
अब देखिए, दिल्ली से पटना है मात्र 1000 किलोमीटर। अब 500-600 करोड़ रुपये किलोमीटर के हिसाब से पटरी बिछा भी दी जाए(जो शर्तिया प्रोजेक्ट के बनने तक 1500 करोड़ रुपये प्रति किमी हो जाएगी) तो कितना बजट आएगा ? सही जोड़ा आपने(हिंदुस्तानी इसलिए अच्छा इंजिनियर बनते हैं), ये खर्च आएगा मात्र 5 लाख करोड़ रुपये। अरे जनाव, ये भी कोई खर्च है ? 12 लाख करोड़ का तो अपने सरकार बहादुर का खर्च है, डेढ़ लाख करोड़ सेना खा जाती है, 1 लाख करोड़ हम ‘खेल’ में खर्च कर सकते हैं तो इतनी रकम बुलेट ट्रेन में क्यों नहीं। अरे, कुछ पैसा विदेशों से ले लेंगे, कुछ जनता पर सरचार्ज लगा देंगे, बस खेल खतम।क्या कहा, इतने पैसे में सबको शिक्षा और स्वास्थ्य मिल जाएगी ? अरे महाराज, लोगों को एक ही दिन में थोड़े पढ़ाना है और तंदुरुस्त बनाना है ? और फिर आबादी भी देखिए, 120 करोड़ होने वाले हैं। अभी बुलेट पर चढ़िए। बाद की बाद में देखी जाएगी।
क्या कहा, ये ठेकेदारों, दलालों और नेताओं का प्रोजेक्ट है ? आप पागल तो नहीं हो गए ? क्या आपको बैलगाड़ी के युग में ही रहना है ? 21वीं सदीं में नहीं जाना आपको ? जरुर इसमें विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है जो जनता में गलत-फलत संदेश फैलाते हैं कि उच्च तकनीक से देश का बुरा होगा। अरे आप सोचिए, कि हमारा देश विश्वस्तरीय बन रहा है, हमारे पास एटम है, मिसाईल है, साफ्टवेयर है, क़ॉमनवेल्थ है, मेट्रो है, फिर बुलेट से आपको क्यों खुजली हो रही है ?
अरे, आप क्या बकवास कर रहे हैं ? 15 अगस्त को परेड देखकर आपको खुशी नहीं होती ? मंत्रियों के बड़े बंगले और लंबी गाडियां देखकर आपको खुशी नहीं होती? अंग्रेजों के जमाने में थी अपने लोगों के पास ऐसी कोठियां ? तो पैसा तो इसमें भी खर्च होता है न...फिर बुलेट ट्रेन से तो देश का गौरव बढ़ेगा, आप मान भी जाईये। अब ठीक है ये ठेकेदार या नेता भी तो अपने ही भाई बंधु है, घी कहां जा रहा है तो दाल ही में न...! क्या कहा, स्विस बैंक…हम आपको आश्वासन देते हैं कि कमीशन या घूस की कोई रकम हम स्विस बैंक नहीं जाने देंगे। हम सीधे आपके लिए सरकार से बात करेंगे। अब तो खुश !
Sunday, June 13, 2010
Sunday, May 9, 2010
चकल्लस में मीडिया...
नमस्कार दोस्तों-
मीडिया मीडिया और मीडिया..........हर जगह ये लोग पहुंचे रहते है....बिना बताये और बिना बुलाये....अभी हाल ही में शिरडी में एक घटना घटी...या कहे कि घटना घटा दी गयी...रितिका रोशन मीडिया के दुश्मन बन गये थे...हर न्यूज़ चैनल उनको खलनायक के रूप में पेश कर रहा था.....मीडिया के साथ बदसलूकी का पूरा ठीकरा रितिक रोशन पर फोड़ दिया गया.. पूरा माजरा हम आपको बताते है कि क्या हुआ था उस दिन.....फिल्म अभिनेता रितिक रोशन अपने परिवार के साथ शिरडी के सांई बाबा के मंदिर में दर्शन करने गये थे...जो कि वो हमेशा किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले करते है....ऐसा इस बार भी किये..लेकिन घटना ये घटी कि बिना बुलाये मेंहमान वहां भी पहुंच गये....फिर क्या होना था...वही जो बिना बुलाये मेहमान करते है...धक्का मुक्की का दौर चला...और इल्जाम लगा रितिक रोशन पर...रितिक को कहा गया कि वो फिल्म के पब्लिसिटी के लिये इस तरीके की हरकत कर रहे है..जबकि रितिक ने ट्विटर पर लिखे कि ये उनका निजी दौरा था जिसमें वो मीडिया को मना कर रहे थे लेकिन मीडिया ने नहीं माना और उनका फोटो खीचने लगें...जिसकी वजह से ये सारा मामला हो गया...अब रितिक रोशन को भी समझना चाहिये कि शिरडी के सांई बाबा उनके अकेले तो है नही...मीडिया ने बकायदा मंदिर प्रशासन से अनुमति लेके मंदिर में प्रवेश किया था....खैर ऐसे मौको पर मीडिया ताक में रहती है कि कोई घटना ऐसी हो जाये जिससे उनको मशाला मिल जाये...भाई मीडिया के बारे में जहां तक मै जानता हूं वहां एक बात सामने निकल के आती है..वो बात ये है कि रिपोर्टर जब भी किसी ख़बर के लिये ऑफिस से निकलता है तब उसका मेन मोटो यही होता है कि कोई ब्रेकिंग मिल जाये नहीं तो बना ली जायेगी क्योंकि बॉस की तारीफ जो बटोरनी है...इन रिपोर्टर लोगो को ये पता होना चाहिये कि वो इन सस्ती टीआरपी के चक्कर में जो काम करते है उससे सामने वाले के दिल पर क्या बीतती है....न्यूज़ चैनल वालो के लिये सबसे बड़ी खबर वॉलीवुड से होती है...अगर मुंबई में किसी कलाकार को छींक आ गयी तो ये लोग पूरे मुंबई के तापमान का पोस्टमॉर्टम कर देंगे....लेकिन अगर उड़ीसा या फिर झारखंड में किसी नक्सली का कहर टूटेगा तो ये उस ख़बर को महज टिकर में अपडेट कर देते है......खैर रितिक रोशन जैसा मामला खली और कुछ दिन पहले टीम इंडिया के स्पिनर हरभजन सिंह के साथ हुआ.....अब देखने वाली बात ये होगी कि कभी सच्चाई को सामने लाने की मुहिम में लगी मीडिया अपने पुराने अस्तित्व में कब लौटेगी ।
आपका
विवेक मिश्रा
मीडिया मीडिया और मीडिया..........हर जगह ये लोग पहुंचे रहते है....बिना बताये और बिना बुलाये....अभी हाल ही में शिरडी में एक घटना घटी...या कहे कि घटना घटा दी गयी...रितिका रोशन मीडिया के दुश्मन बन गये थे...हर न्यूज़ चैनल उनको खलनायक के रूप में पेश कर रहा था.....मीडिया के साथ बदसलूकी का पूरा ठीकरा रितिक रोशन पर फोड़ दिया गया.. पूरा माजरा हम आपको बताते है कि क्या हुआ था उस दिन.....फिल्म अभिनेता रितिक रोशन अपने परिवार के साथ शिरडी के सांई बाबा के मंदिर में दर्शन करने गये थे...जो कि वो हमेशा किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले करते है....ऐसा इस बार भी किये..लेकिन घटना ये घटी कि बिना बुलाये मेंहमान वहां भी पहुंच गये....फिर क्या होना था...वही जो बिना बुलाये मेहमान करते है...धक्का मुक्की का दौर चला...और इल्जाम लगा रितिक रोशन पर...रितिक को कहा गया कि वो फिल्म के पब्लिसिटी के लिये इस तरीके की हरकत कर रहे है..जबकि रितिक ने ट्विटर पर लिखे कि ये उनका निजी दौरा था जिसमें वो मीडिया को मना कर रहे थे लेकिन मीडिया ने नहीं माना और उनका फोटो खीचने लगें...जिसकी वजह से ये सारा मामला हो गया...अब रितिक रोशन को भी समझना चाहिये कि शिरडी के सांई बाबा उनके अकेले तो है नही...मीडिया ने बकायदा मंदिर प्रशासन से अनुमति लेके मंदिर में प्रवेश किया था....खैर ऐसे मौको पर मीडिया ताक में रहती है कि कोई घटना ऐसी हो जाये जिससे उनको मशाला मिल जाये...भाई मीडिया के बारे में जहां तक मै जानता हूं वहां एक बात सामने निकल के आती है..वो बात ये है कि रिपोर्टर जब भी किसी ख़बर के लिये ऑफिस से निकलता है तब उसका मेन मोटो यही होता है कि कोई ब्रेकिंग मिल जाये नहीं तो बना ली जायेगी क्योंकि बॉस की तारीफ जो बटोरनी है...इन रिपोर्टर लोगो को ये पता होना चाहिये कि वो इन सस्ती टीआरपी के चक्कर में जो काम करते है उससे सामने वाले के दिल पर क्या बीतती है....न्यूज़ चैनल वालो के लिये सबसे बड़ी खबर वॉलीवुड से होती है...अगर मुंबई में किसी कलाकार को छींक आ गयी तो ये लोग पूरे मुंबई के तापमान का पोस्टमॉर्टम कर देंगे....लेकिन अगर उड़ीसा या फिर झारखंड में किसी नक्सली का कहर टूटेगा तो ये उस ख़बर को महज टिकर में अपडेट कर देते है......खैर रितिक रोशन जैसा मामला खली और कुछ दिन पहले टीम इंडिया के स्पिनर हरभजन सिंह के साथ हुआ.....अब देखने वाली बात ये होगी कि कभी सच्चाई को सामने लाने की मुहिम में लगी मीडिया अपने पुराने अस्तित्व में कब लौटेगी ।
आपका
विवेक मिश्रा
Monday, April 19, 2010
आईपीएल मतलब गड़बड़घोटाला...
नमस्कार दोस्तो...
पूरे डेढ़ महीने तक चला आईपीएल का सफर अब आईपीएल खत्म होने के कगार पर है...लेकिन इन दिनों के बीच सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि आईपीएल में क्रिकेट से बढ़कर विवाद ज्यादा बिका...आखिरी समय में तो मोदी और थरूर की जंग नें तो आईपीएल का सारा काला चिट्ठा ही खोल के रख दिया...मोदी जहां सुनंदा नाम की सुंदरी का सहारा ले रहे थे॥वहीं थरूर साउथ अफ्रीकी मॉडल गैब्रिएला के दामन को पकड़े थे... हां एक बात जरूर देखने को मिली, कि मोदी के कार्यालय में आयकर विभाग का छापा पड़ा तो ढ़ेर सारे दस्तावेज मिले जो कि मोदी के विपरीत जाते है....कुछ लोगो के मुताबिक क्रिकेट...क्रिकेट नही रह गया है...क्रिकेट बन गया है जुआ.. जी हां सुनंदा पुष्कर जैसे लोग इस जुए में पैसा लगाती है जिसका फल उनको दुगुना होता है...इस पूरे प्रकरण के बाद शशि थरूर को अपना विदेश राज्य मंत्री पद की कुर्बानी देनी पड़ी..जबकि ललित मोदी पर गाज गिरनी बाकी है....
ललित मोदी के बारे में...
ललित मोदी को आईपीएल के तीनो सीजन को सफलता पूर्वक चलाने का खिताब जरूर मिलना चाहिये....क्योंकि ये वही ललित मोदी है जो पिछले साल सुरक्षा को लेके गृहमंत्री पी. चिदंबरम का विरोध करके इस क्रिकेट के जुए को साउथ अफ्रीका में सफलता पूर्वक खेलवाये....वाकई में मोदी जी आप बधाई के पात्र है..लेकिन अगर आपके पैसे पर गौर फरमायें तो निकल के आता है कि....इन तीन सालो में आपके पास हर वो नई चीजे दिखी है जो एक अरबपति के पास होना चाहिये...ए दिगर की बात है कि आप खुद रईसो के श्रेणी में आते है..आपके पास ढ़ेरों कंपनिया है..लेकिन इन तीन सालो में आपके गैरेज में BMW, मर्सिडीज और प्राईवेट प्लेन जरूर बढ़े है..भाई मोदी साहब हर साख पे उल्लू बैठा है...आप जो पैसा इंडियन प्रीमियर लीग में बना रहे थे....उस पर सरकार की नज़र 2009 से ही लगी हुई थी...अभी तो और खुलासे बाकी है..देखने वाली बात ये होगी कि जेन्टलमैन वाले खेल क्रिकेट को जुआ बनाने वाले ये मोदी जैसे लोगों के पर कब कतरे जायेंगें.....
आपका
विवेक मिश्रा
Wednesday, March 10, 2010
काहे का रिजर्वेशन !
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
देश की आधी आबादी की चिंता सबको है सरकार को, विपक्ष को, महिला आयोग को और नारी हितों की झंडाबरदार उन तमाम संगठनों को भी जो आए दिन जंतर-मंतर पर अपनी तख्तियों के साथ पहुंच जाते हैं और चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे रहकर वो सारे काम करते हैं जो ये साबित कर दे कि देश की सारी महिलाओं की फिक्र अगर किसी को है तो वो केवल वहीं हैं.लेकिन जिसकी चिंता में वो दोहरे हुए जा रहे हैं उस अबला नारी को तो ये भी पता नहीं कि आरक्षण किस चिड़िया का नाम है! संसद किसकी पंचायत है और वहां जो नेताइन जी पहुंचेंगी वो क्या करेंगी वहां ! हो भी तो कैसे, बेचारी फुलमतिया की तो सुबह होती है झाड़ू-पोछे से और रात होती है जूठे बर्तनों की घिसघिसाहट से। दिन में अगर उसे बोलने-बतियाने या गल-चऊर करने का मौका भी मिलता है तो बातें कुछ ऐसी ही होती हैं- ‘फलनवें की दुल्हनिया बड़ी नकचढ़ी है...या ढेकनवे का मरद तो दिन-रा दारु पी के टुन्न रहता है और मेहरारु को झोंटा पकड़ के पीटता है स्साला..’ हां, जब चुनाव आएगा तब थोड़ा बहुत समझ में आएगा, लेकिन क्या ?...यही ना, कि अब तक नेताजी उसके घर आते थे वोट मांगने, अब नेताइन आएंगी, पूरे दल-बल के साथ। फूलमतिया सोचेगी- ‘मेहरारु मेहरारु का दरद नहीं तो कउन समझेगा ! लेकिन नेताइन ऐसा क्या कर देंगी जो अब तक नेताजी नहीं कर पाते थे ? क्या वो घूंघट का झंझट दूर कर देंगी ? क्या वो उसकी बिटिया का बियाह बिना दहेज के करवा देंगी ? क्या वो उसकी अम्मा जी या बाउजी को वो ये समझा पाएंगी कि बिटिया हो या बिटवा कोई फर्क नहीं पड़ता ? या वो उन शोहदों-लफंगों-गुडों-बदमाशों को ठीक कर देंगी जो आए दिन उसकी बिटिया या ननद का दुपट्टा या हाथ खींचकर भाग जाते हैं ? या उसके ससुर, ताऊ, जेठ या देवर की नकेल कस सकेंगी जो रात होते ही शुरू हो जाते हैं ?...एक तो ये सारे सवाल नेताइन से पूछने की हिम्मत ही नहीं होगी उसे, अगर उसने किसी तरह किसी चढ़ाने-वढ़ाने से ये सवाल पूछ भी लिए तो जवाब में क्या मिलेगा ?....बगल में खड़े नेताजी की चढ़ी-चढ़ी घूरती आंखें, उनकी पल-पल बदलती त्यौरियां...जिनका मतलब बस यही होगा ‘बहुत चल रही है तेरी जबान ! कहां है तेरा मरद ?’ और ऐसा तो तब होगा जब उसका मरद उसे ये सब बोलने देगा, वरना वो अगर भीतर से सिर पर पल्लू डाले बाहर आने लगेगी तभी उसका मरद टोक देगा ‘तू कहां जा रही है करमजली, चल अंदर’ और वैसे भी वो इन ‘फालतू’ पचड़ों में पड़ना भी चाहती- ‘अब तक कुछ हुआ है भला जो ये नेताइन कर देंगी, बड़ी आईं नेतागिरी करने, पहले अपना ही घर संभाल लें’ उधर उसका मरद भी हाथ खुजलाता हुआ ‘हे-हे…’ करता हुआ नेताइन से बोलेगा-‘हां, हां, आपको ही वोट देंगे..लेकिन....’ हाथ खुजलाते हुए उसकी नजरें कागज के कुछ हरे-हरे टुकड़ें तलाशेंगी, अगर मिल गए तो ठीक वरना ‘जय राम जी की’ और भी नेताइनें हैं वो भी आती ही होंगी अपना लाव-लश्कर लेकर। किवाड़ बंदकर वो सोचेगा ‘पिछली बार तो फलांने भइया जीते थे, उनकी मेहरारु खड़ी हुई हैं इस बार ! बड़ा हो-हल्ला है उनका। इस बार उ नहीं तो उनकी मेहरारु ही, सही का फरक पड़ता है !’ उसे फर्क पड़े न पड़े लेकिन असली फर्क तो उसे पड़ेगा जो इस महिला आऱक्षण के दम पर पहली बार चुनाव लड़ेगी। हर किसी औरत के वश का नहीं। अगर उसका पति-पिता-भाई-ससुर-काका-ताऊ कोई भी सियासी अखाड़े का पहलवान नहीं है तो भला उसे दांव-पेंच कहां से आएंगे ! अगर किसी से उसने दांव-पेंच सीखने की कोशिश भी की तो सियासी गुरु अपनी चेली से काम तो निकालेगा ही। अब ये उस लड़की या औरत पर है कि वो सियासी बिसात पर कितना आगे जाना चाहती है ! जितना ऊंचा जाना हो उतनी ही बड़ी दक्षिणा ! दक्षिणा देने से वो ही बचेंगी जो किसी ऊंची रसूख वाले की बीवी-बेटी-बहू होंगी। लेकिन काम तो वही है। जो काम अब तक नेताजी करते थे वही काम अब नेताइन को करना पड़ेगा, भले ही वो किचेन से करें। बच्चे की मालिश करते-करते कागजात पर दस्तखत करें चाहे जैसे करें। घर का बोझ पहले से था ही अब कागज-पत्तर का भी बोझ बढ़ा। नेताजी सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेना अपनी शान के खिलाफ समझते थे, अब नेताइन को घर के कामों से फुरसत ही नहीं मिल पाएगी जो जा पाए, बहाना भी सॉलिड ! और अगर कुछ हिम्मती महिलाएं आगे भी आईं जिनका राजनीति में कोई नाते-रिश्तेदार नहीं है तो उन्हें कड़ा संघर्ष करना ही होगा। कॉलेज लेवल पर ही देखिए ज्यादा महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनेता या बाहुबली से ताल्लुक रखती है, किसी दबंग छात्रनेता की बहन या गर्लफ्रेंड होती है या फिर किसी रसूख वाले की रईसजादी ! अगर गलती से कोई आम लड़की चुनाव में खड़ी होती है तो उसे प्रलोभन या धमकी देकर बैठा दिया जाता है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पंचायत में जिस पर बड़े-बड़े बाहुबली अजगर साम-दाम-दंड-भेद के साथ नजरें गड़ाएं बैठे हैं, वहां बेचारी मिडिल क्लास की नेताइन कैसे पहुंच पाएगी ? क्या वो इस आरक्षण की बैसाखी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर पाएगी ?
Thursday, February 25, 2010
सचिन रिकॉर्ड तेन्दुलकर...
दोस्तो नमस्कार....
विश्व क्रिकेट में अगर सचिन की बात की जाये तो हर खिलाड़ी उनकी तारीफ ही करता है। खास करके जब उन्होनें वनडे में नाबाद दोहरा शतक लगाया तब....मास्टर की खासियत रही है कि वो जब भी मैदान पर उतरते है तब उनकी एक नयी अदा सामने आ जाती है। २४ अक्तूबर को ग्वालियर का रूप सिंह स्टेडियम में बैठा हर सचिन प्रेमी उनके इस कारनामा का गवाह बना है... साथ में खुद ग्वालियर का रूप सिंह स्टेडियम भी धन्य हो गया है.... क्योकिं क्रिकेट के भगवान ने साक्षात अपने असली रूप में आये। खुद मै भी उस महान क्षण का गवाह बना साथ में सचिन के दोहरे शतक पर लाइव चैट भी किया... दोस्तो सच में बता दूं कि हमने अपने पत्रकारिता में कई लाइव चैट कियें है...लेकिन मै बता दूं कि मेरी अब तक कि जिदंगी का ये लाइव चैट सबसे अहम रहेगा...पूरे आधे घंटे तक कैमरे के सामने मैं सचिन के नाबाद दोहरे शतक जड़ने पर उनका सचिननामा पढ़ता रहा। हमारी सहयोगी एंकर नें हमसे सवाल किया कि विवेक जी आप को कैसा महसूस हो रहा है............इस सवाल के बाद तो मानो मेरे गले से आवाज ही नही निकल रही थी... खुद मैं सचिन का बहुत बड़ा फैन हूं और इस महान पल को अपने लाइव चैट के दौरान अपने दर्शको से रूबरू करा रहा था॥लेकिन इस सवाल के बाद मेरी आखों से आंसू निकल पड़े किसी तरह से मैनें अपने आप को रोका...लेकिन हमारे सहयोगी लोग भांप गये थे कि अब मैं पूरी तरह से रो दूंगा॥लेकिन मैनें अपने आप को संभाला और सचिननामा पढ़ता रहा... दोस्तो यहां पर बता दें कि अगर हिन्दी पत्रकारिता के महात्मा गांधी प्रभाष जोशी जो कि सचिन के महान प्रशंसको में से एक थे......अगर वो जिंदा होते तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहता....क्रिकेट और सचिन पर प्रभाष जी के लेख वाकई में लाजवाब होते थे....खुद मै भी उनके आर्टिकिल से प्रेरणा लिया करता था...और सचिन भी.....अब सचिन से उम्मीद है कि वो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अपने सौ शतक पूरा करे...
आपका
विवेक
Sunday, January 24, 2010
आईपीएल पर गरमा - गरमी...
दोस्तो नमस्कार.....
बहुत दिन हुआ कुछ लिखे सोचा कुछ लिंखू..... इन दिनो काफी बिजी था....कुछ खास हो भी नही रहा है। जेनेश्वर जी चले गये सो उनको जाना था उम्र हो गयी थी.... लेकिन उनका जाना इसलिये खल गया कि वो लोहिया के आखिरी चिराग कहे जाते थे जो बुझ गया....खैर मरना जीना तो लगा रहता है॥ अब बात की जाये ताजा उबाल कि जी हां ताजा मामला ये है कि आईपीएल आ गया है ... बोली भी लग गयी है... और सबसे बड़ी बात ये है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों की बोली लगाने कि किसी फ्रैंचाईजी ने जहमत नही उठाई....भाई उठाता भी क्यों... इस उठाने के पीछे कई कारण है...एक तो पाकिस्तान का आंतकवादी रवैया और दूसरका उन पाकिस्तानी खिलाड़ियों की भारत में सुरक्षा... खैर बोली न लगने के पीछे एक लिखित कारण ये भी है कि उन खिलाड़ियों का दाम कुछ ज्यादा था। अफरीदी कि बात करे तो उनकी बोली लगाना शायद किसी टीम के बस की बात नही थी.... अब अफरीदी साहब कि बोली ना लगने से वो नाराज हो गये है.... साथ में अपने बोर्ड को भी अपनी नाराजगी में शामिल कर लिये है...पड़ोसी पाक तो हमेशा से ही भारत के खिलाफ कोई ना कोई मुद्दा तलाशता रहता है वो मुद्दा मिल भी गया....अफरीदी वाले मामले पर पाकिस्तान में बवाल मच गया है .... एक ओर तो भारत-पाक का रिश्ता तल्ख है तो दूसरी ओर आग में घी डालने का काम अफरीदी कर गये....अब पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड इस पूरे मामले का छिछालेदर कर दिया है मामला कुछ रंग कुछ और का दे दिया गया है। पाकिस्तान बोर्ड के मुताबिक आईपीएल ने पाकिस्तान की तौहीन कि है.... और इस मामला के बाद कुछ पाकिस्तानी सांसद अपना भारत दौरा भी रद्द कर दिये है... अब खबर ये है कि पाकिस्तान में आईपीएल का प्रसारण भी बंद कर दिया जायेगा....भाई क्रिकेट का कोई मजहब नही होता धर्म नही होता है .... अगर होता है तो केवल इंज्वाय.............................
बहुत दिन हुआ कुछ लिखे सोचा कुछ लिंखू..... इन दिनो काफी बिजी था....कुछ खास हो भी नही रहा है। जेनेश्वर जी चले गये सो उनको जाना था उम्र हो गयी थी.... लेकिन उनका जाना इसलिये खल गया कि वो लोहिया के आखिरी चिराग कहे जाते थे जो बुझ गया....खैर मरना जीना तो लगा रहता है॥ अब बात की जाये ताजा उबाल कि जी हां ताजा मामला ये है कि आईपीएल आ गया है ... बोली भी लग गयी है... और सबसे बड़ी बात ये है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों की बोली लगाने कि किसी फ्रैंचाईजी ने जहमत नही उठाई....भाई उठाता भी क्यों... इस उठाने के पीछे कई कारण है...एक तो पाकिस्तान का आंतकवादी रवैया और दूसरका उन पाकिस्तानी खिलाड़ियों की भारत में सुरक्षा... खैर बोली न लगने के पीछे एक लिखित कारण ये भी है कि उन खिलाड़ियों का दाम कुछ ज्यादा था। अफरीदी कि बात करे तो उनकी बोली लगाना शायद किसी टीम के बस की बात नही थी.... अब अफरीदी साहब कि बोली ना लगने से वो नाराज हो गये है.... साथ में अपने बोर्ड को भी अपनी नाराजगी में शामिल कर लिये है...पड़ोसी पाक तो हमेशा से ही भारत के खिलाफ कोई ना कोई मुद्दा तलाशता रहता है वो मुद्दा मिल भी गया....अफरीदी वाले मामले पर पाकिस्तान में बवाल मच गया है .... एक ओर तो भारत-पाक का रिश्ता तल्ख है तो दूसरी ओर आग में घी डालने का काम अफरीदी कर गये....अब पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड इस पूरे मामले का छिछालेदर कर दिया है मामला कुछ रंग कुछ और का दे दिया गया है। पाकिस्तान बोर्ड के मुताबिक आईपीएल ने पाकिस्तान की तौहीन कि है.... और इस मामला के बाद कुछ पाकिस्तानी सांसद अपना भारत दौरा भी रद्द कर दिये है... अब खबर ये है कि पाकिस्तान में आईपीएल का प्रसारण भी बंद कर दिया जायेगा....भाई क्रिकेट का कोई मजहब नही होता धर्म नही होता है .... अगर होता है तो केवल इंज्वाय.............................
Subscribe to:
Posts (Atom)