ऐसी हालत सिर्फ़ उन्ही राज्यों की नहीं है जहां बबाल मच रहे है , कमोबेश सारे आदिवासी बहुल राज्यों की यही दशा है । एक डॉक्युमेंटरी के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के मैनपाट जिले में जाना हुआ था । मैनपाट कोरबा और पाहाड़ी कोरवा बहुल इलाका है । पहाड़ी इलाका होने के कारन यहाँ सड़क संपर्क बस कामचलाऊ ही है । बाक्साइट के खानों के इस इलाके में ज्यादातर लोग आजीविका के लिए बाक्साइट के खानों पर ही निर्भर है जो साल में ६ महीने चलती है । बाकी के ६ महीने मश्क्कत के होते है । इन इलाके में ज्यादातर जमीन सरकारकी रिकॉर्ड में आदिवासियों के पास है पर जमीनी हकीकत इसके उलट है ज्यादातर जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्ज़ा है और मजे की बात ये की वो उन उन्ही से करवाते हैं जो उनके मालिक होते है । और बदले में उन्हें मिलता है बस पीने को कुछ रुपये और शाराब aisa नही है की इनकी हालात से सरकारी और गैर सरकारी संगठन अनजान है । ६ दिनों में मैं ऐसे १०-१२ गैर सरकारी संगठनों से मिला जो आदिवासियों की दशा और दिशा सुधाने में लगे है पर नतीजा सिफर । पिछले २१ दिनों से कंधमाल में हूँ शायद अभी कुछ और दिन रहूं । यहाँ की कहानी भी इससे इतर नही । अभी हाल तक कंधमाल चैनलों में छाया रहा । केन्द्र में बैठे मठाधीशों ने इसपर खूब राजनीति की अन्धाधुंध बयान दिया अब भी लोग आ रहे है । कंधमाल में बहुत बबाल हुआ काफी लोग मारे गए , चर्चो को तोड़ा गया मैं इसका समर्थन नही कर रहा पर मेरे हिसाब से आज भी कंधमाल में जो स्थिति है अगर फिर कोई बड़ी घटना हो तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिए।
कंधमाल कुछ तथ्य : आदिवासी बहुल इस जिले का इतिहास ज्यादा पुराना नही । सात लाख की आबादी वाले इस जिले में ५२ फीसदी कंध (आदिवासी) है । यहाँ झगरा कंधो और पणों (दलित) के बीच में है । इलाके की ५८ % जमीनों पर जहाँ कन्धों का कब्ज़ा है (सरकारी हिसाब) से वही १० % जमीन दलितों के पास है ।बाकि सामान्य लोगो के हिस्से है। कन्धों की आजीविका का मुख्या साधन जंगल और उनके उत्पाद है अपनी जमीनों पर खेती वो पणों की मदद से करते है (हालाकि अब ये पुरानी बात हो गई ) । यहाँ चर्च का प्रवेश १९२० में हुआ इसका कारण ये था की ब्रिटिश शासन के दौरान कंधमाल मद्रास के अंतर्गत गुमुसुर सब - डिविजन का पार्ट था । यहाँ बाली गुंडा और भजनगर में सबसे पहले चर्च की स्थापना हुई थी। इंडस्ट्री के नाम पर यह उड़ीसा के पिछड़े इलाको में से एक है । इस जिले में कुल १.३२ करोड़ की ६५ स्माल स्केल इंडस्ट्री है।
क्या है क्लेश : कंधमाल आर्थिक असमानता ,शोषण और अवैध मतान्तरण का जीता जागता उदाहरण है । इस तात्कालिक सांप्रदयिक संघर्ष का कारणमात्र मतान्तरण नहीं है । स्वामी जी की हत्या तो बोस्टन टी पार्टी की तरह एक तात्कालिक कारण है । इसका मूल कारण तो पर्णों के द्वारा लबे समय से किया जा रहा शोषण है जिनमे ये ईसाई मिशनरियां इन पणों की मदद करती है । पणों ने हमेशा से बिचोलिये की तरह काम किया है । ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजो के कृपा पात्र (क्योकि इनके बीच तभी से धर्मान्तरण शुरू )के रूप में कभी इन्होंने लगान वसूल करने का काम किया तो कभी नमक का । कंधो से संख्या में काफी काम होने के बाद भी दिन प्रतिदिन इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधरती चली गयी । किसी भी समुदाय को अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने और आगे बढ़ने का पूरा हक़ है लेकिन किसी अन्य समुदाय के शोषण की कीमत पर नहीं। पणों ने ना केवल उनका शोषण किया बल्कि उनकी जमीनों संसाधनों पर भी कब्ज़ा किया और तो और आजादी के बाद जब धर्मान्तरि दलितों के आरक्षण पररोक लगी तो पणों ने एक नया रास्ता निकाला । आमतौर पर पाणों की बोलचाल की भाषा उड़ीया और कंधो की कुई है ( यह एक स्क्रिप्ट लेस भाषा है ) पणों ने कुई सीख ली थी उसका प्रयोग करके खुद को आदिवासी बताकर आरक्षण का लाभ लिया , फर्जी जाति प्रमाण पात्र बनवाए और उनका लाभ नौकरियों में एवं अन्य कार्य में किया । इसके लिए केस भी हुआ की उन्हें आदिवासी की मान्यता दी जाये क्योकि वो लिए कुई बोलते है । इसाईयों की आबादी को अगर देखे तो इस बात की तस्दीक होती है । ९१ में उनकी संख्या ७५ हजार थी जिसके जो०१ में बढ़ कर तक़रीबन सवा लाख हो गई वो भी उड़ीसा स्वतंत्र अधिनियम लागू होने के बाद । जिसके अनुसार हर मतान्तरण के लिए कलेक्टर की इजाजत जरुरी है । २००१ से नक्सलियो के क्षेत्र में सक्रिय होने से पणों को और बल मिला नक्सलियो ने पानो को प्रशिक्षित करना शुरू । इलाके के लोगों के अनुसार इसके एवज में उन्हें पैसा ईसाई मिशनरियों से मिलता है । फादर कल्तित का कहना है की कोई धर्मान्तरण नहीं हुआ तो फादर आखिर जिले में ईसाई जनसँख्या इतनी कैसे हो गयी ?
2 comments:
बहुत अच्छा लिखते है आप। बधाई हो
अच्छा लेख..,.
Post a Comment