Saturday, April 26, 2008
बेबस और लाचार पत्रकार
कहने को हैं पत्रकार
है हमारा विचारों से सरोकार
पर हैं, हम बेबस और लाचार
क्या करें...
प्रोडक्ट जो बन चुका है अखबार
या यूं कहें, पूरे मीडिया जगत को है आधार
पहले भैया एडवरटिजमेंट, फिर देखेंगे समाचार।
editorial की जगह ले ली है aditorial ने
ऐसे में, विचार बन रहा आचार
कहने को हैं पत्रकार
पर हैं, बेबस और लाचार।
सुनता हूं, पहले होनी थी पत्रकारिता
वजह थी, कारण था सामने जो थी परतंत्रता।
कहने को, अब हम आजाद हैं,
स्वतंत्र हैं, उन्मुक्त हैं और भविष्य ही बुनियाद हैछ
पर सोचता हूं, पत्रकारों के लिए स्वतंत्रता शब्द बकवास है
क्योंकि पूरे मीडिया जगत पर उपभोक्तावाद का वास है।
परिमल कुमार
लेखक एनडीटीवी के पत्रकार हैं।
गठजोड़ का नफा नुकसान
केंद्रीय नेतृत्व के रवैये के कारण कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में भी साधारण कार्यकर्ता का मनोबल टूटता जा रहा है। केंद्रीय नेताओं की यह जमात बिहार की जमीनी राजनीति का कखग भी नहीं समझती
गठबंधन की राजनीति के तहत केंद्र की सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए अब गठबंधन ही गले की हड्डी बनता जा रहा है। बिहार और महाराष्ट्र में हाल की घटनाओं को देखा जाए तो इसे काफी हद तक सही कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि पार्टी हरियाणा, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश के उदाहरणों से सबक नहीं ले रही है, जहां गठबंधन की राजनीति के कारण अब भाजपा को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। बिहार में जो कुछ हो रहा है वह पार्टी की खुमारी तोड़ने के लिए काफी था लेकिन महाराष्ट्र की घटनाओं के कारण उस पर उतना ध्यान ही नहीं दिया गया। बिहार में कुछ साल पहले तक भाजपा मुख्य विरोधी दल हुआ करती थी और उसके बाद ही समता पार्टी या जनता दल यूनाइटेड का नंबर आता था, जिसके नेता नीतीश कुमार थे। अब स्थिति यह है कि भाजपा को उनके सहारे की जरूरत पड़ रही है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं? यह सवाल कठिन नहीं है। उत्तर सामने है कि इसके लिए पार्टी की प्रदेश इकाई से ज्यादा केंद्रीय नेता ओर उनके सलाहकारों को अर्जुन की तरह केवल दिल्ली की ही सत्ता नजर आती है और वह इसके लिए ही रणनीति बनाते रहते हैं। इन्हें राज्यों में पार्टी की हालत, संगठन की खामियों या कार्यकर्ताओं की इच्छाओं से कोई ज्यादा लेना देना नहीं है। ये तो गठबंधन के नाम पर पार्टी हितों को कुर्बान करने से पहले एक बार सोचते तक नहीं हैं। इनका एक ही मकसद रहता है कि सहयोगी पार्टी किसी तरह से नाराज नहीं हो और पार्टी का कोई नेता राज्य में अपना छत्रप न बना सके। केंद्रीय नेतृत्व के रवैये के कारण कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में भी साधारण कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता जा रहा है। केंद्रीय नेताओं की यह जमात बिहार की जमीनी राजनीति का क, ख, ग नहीं समझती और अपने हिसाब से तीन-पांच करती रहती है। हताश कार्यकर्ताओं के पास दो ही विकल्प बचते हैं, या तो वह चुपचाप घर में बैठ जाए या किसी और दल चला जाए। नीतीश इसी का फायदा उठा रहे हैं। जिस दिन से उनकी सरकार बनी है इसी दिन से उन्होंने इस दिन से उन्होंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया था। नीतीश को आज की तारीख में यूं ही सबसे चतुर राजनेताओं में नहीं गिना जाता है। जब सरकार बनी तो भाजपा कोटे से किसी को मंत्री नहीं बनाया गया, जबकि बुरे दिनों में भाजपा को मिलने वाले पारंपरिक वोटों में कायस्थ मत शामिल रहे। भाजपा नेता नवीन किशोर पऱसाद सिन्हा का हक बनता था लेकिन नीतीश ने अपनी पार्टी की कायस्थ विधायक सुधा श्रीवास्तव को मंत्री बनाया। यह सब जानते हैं कि कायस्थ शहरी इलाकों ज्यादा रहते हैं और कई सीटों पर उनके मतों से हार जीत का फैसला होता है। नीतीश ने इस तरह से भाजपा के आधार पर चोट की लेकिन पार्टी का प्रदेश नेतृत्व चुप बैठ गया। नवीन का बाद में निधन हो गया और माना गया कि मंत्रिमंडल गठन में अपनी ही पार्टी के प्रांतीय नेताओं द्वारा दरकिनार करने से उन्हें गहरा सदमा लगा था। इसके बाद तो नीतीश जैसा चाहते रहे, प्रदेश में वैसा ही होता रहा है। पुरानी कहावत है कि बाड़ खेत खाने लगे तो रखवाली कौन करेगा, बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं की मानें तो उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पूरी तरह से नीतीश के रंग में रंग गए हैं। मोदी पर पार्टी से ज्यादा नीतीश की बात सुनने का आरोप है। हाल में हुए मंत्रिमंडल के पुनर्गठन ने आग में घी का काम किया है। मोदी विरोधी अभियान के बीच मोदी के बचाव में खुलकर सामने आने वाले अकेले बड़े नेता नीतीश कुमार हैं। नीतीश ने सफाई दी कि उनकी सरकार एकजुट है और मंत्रिमंडल में फेरबदल से कोई नाराजगी नहीं है। यह बिडंबना ही है कि जो पार्टी कभी अपने को दूसरे दलों से अलग और एक अनुशासित पार्टी होने का दावा करती थी, उसी में आज घमासान मचा हुआ है। ऐसा लगता है कि बिहार भाजपा में व्याप्त असंतोष को खत्म करने के लिए तत्काल ठोस और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो वहां भी पार्टी की हालत उत्तर प्रदेश जैसी बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। एक समय था जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार होती थी और उसके उम्मीदवारों के लिए विधानसभा चुनावों में जमानत बचानी मुश्किल हो जाती है। गठबंधन की बलिवेदी पर चढ़ने वाला अगला राज्य बिहार हो सकता है। पार्टी के एक प्रांतीय नेता ने एक बेबाक टिप्पणी की, पार्टी के आला नेता अपनी पारी खेल चुके हैं। पार्टी को बनाने और उसे इस मुकाम तक पहुंचाने में उनका बड़ा योगदान रहा है लेकिन लगता है कि जब वह रिटायर होंगे तो हम फिर वहीं पहुंच जाएंगे, जहां से शुरुआत की थी। थोड़े लाभ के लिए दीर्घकालिक हितों की कुर्बानी का इससे बेहतर नतीजा हो भी तो नहीं सकता।
गठबंधन की राजनीति के तहत केंद्र की सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए अब गठबंधन ही गले की हड्डी बनता जा रहा है। बिहार और महाराष्ट्र में हाल की घटनाओं को देखा जाए तो इसे काफी हद तक सही कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि पार्टी हरियाणा, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश के उदाहरणों से सबक नहीं ले रही है, जहां गठबंधन की राजनीति के कारण अब भाजपा को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। बिहार में जो कुछ हो रहा है वह पार्टी की खुमारी तोड़ने के लिए काफी था लेकिन महाराष्ट्र की घटनाओं के कारण उस पर उतना ध्यान ही नहीं दिया गया। बिहार में कुछ साल पहले तक भाजपा मुख्य विरोधी दल हुआ करती थी और उसके बाद ही समता पार्टी या जनता दल यूनाइटेड का नंबर आता था, जिसके नेता नीतीश कुमार थे। अब स्थिति यह है कि भाजपा को उनके सहारे की जरूरत पड़ रही है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं? यह सवाल कठिन नहीं है। उत्तर सामने है कि इसके लिए पार्टी की प्रदेश इकाई से ज्यादा केंद्रीय नेता ओर उनके सलाहकारों को अर्जुन की तरह केवल दिल्ली की ही सत्ता नजर आती है और वह इसके लिए ही रणनीति बनाते रहते हैं। इन्हें राज्यों में पार्टी की हालत, संगठन की खामियों या कार्यकर्ताओं की इच्छाओं से कोई ज्यादा लेना देना नहीं है। ये तो गठबंधन के नाम पर पार्टी हितों को कुर्बान करने से पहले एक बार सोचते तक नहीं हैं। इनका एक ही मकसद रहता है कि सहयोगी पार्टी किसी तरह से नाराज नहीं हो और पार्टी का कोई नेता राज्य में अपना छत्रप न बना सके। केंद्रीय नेतृत्व के रवैये के कारण कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में भी साधारण कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता जा रहा है। केंद्रीय नेताओं की यह जमात बिहार की जमीनी राजनीति का क, ख, ग नहीं समझती और अपने हिसाब से तीन-पांच करती रहती है। हताश कार्यकर्ताओं के पास दो ही विकल्प बचते हैं, या तो वह चुपचाप घर में बैठ जाए या किसी और दल चला जाए। नीतीश इसी का फायदा उठा रहे हैं। जिस दिन से उनकी सरकार बनी है इसी दिन से उन्होंने इस दिन से उन्होंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया था। नीतीश को आज की तारीख में यूं ही सबसे चतुर राजनेताओं में नहीं गिना जाता है। जब सरकार बनी तो भाजपा कोटे से किसी को मंत्री नहीं बनाया गया, जबकि बुरे दिनों में भाजपा को मिलने वाले पारंपरिक वोटों में कायस्थ मत शामिल रहे। भाजपा नेता नवीन किशोर पऱसाद सिन्हा का हक बनता था लेकिन नीतीश ने अपनी पार्टी की कायस्थ विधायक सुधा श्रीवास्तव को मंत्री बनाया। यह सब जानते हैं कि कायस्थ शहरी इलाकों ज्यादा रहते हैं और कई सीटों पर उनके मतों से हार जीत का फैसला होता है। नीतीश ने इस तरह से भाजपा के आधार पर चोट की लेकिन पार्टी का प्रदेश नेतृत्व चुप बैठ गया। नवीन का बाद में निधन हो गया और माना गया कि मंत्रिमंडल गठन में अपनी ही पार्टी के प्रांतीय नेताओं द्वारा दरकिनार करने से उन्हें गहरा सदमा लगा था। इसके बाद तो नीतीश जैसा चाहते रहे, प्रदेश में वैसा ही होता रहा है। पुरानी कहावत है कि बाड़ खेत खाने लगे तो रखवाली कौन करेगा, बिहार के भाजपा कार्यकर्ताओं की मानें तो उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पूरी तरह से नीतीश के रंग में रंग गए हैं। मोदी पर पार्टी से ज्यादा नीतीश की बात सुनने का आरोप है। हाल में हुए मंत्रिमंडल के पुनर्गठन ने आग में घी का काम किया है। मोदी विरोधी अभियान के बीच मोदी के बचाव में खुलकर सामने आने वाले अकेले बड़े नेता नीतीश कुमार हैं। नीतीश ने सफाई दी कि उनकी सरकार एकजुट है और मंत्रिमंडल में फेरबदल से कोई नाराजगी नहीं है। यह बिडंबना ही है कि जो पार्टी कभी अपने को दूसरे दलों से अलग और एक अनुशासित पार्टी होने का दावा करती थी, उसी में आज घमासान मचा हुआ है। ऐसा लगता है कि बिहार भाजपा में व्याप्त असंतोष को खत्म करने के लिए तत्काल ठोस और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो वहां भी पार्टी की हालत उत्तर प्रदेश जैसी बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। एक समय था जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार होती थी और उसके उम्मीदवारों के लिए विधानसभा चुनावों में जमानत बचानी मुश्किल हो जाती है। गठबंधन की बलिवेदी पर चढ़ने वाला अगला राज्य बिहार हो सकता है। पार्टी के एक प्रांतीय नेता ने एक बेबाक टिप्पणी की, पार्टी के आला नेता अपनी पारी खेल चुके हैं। पार्टी को बनाने और उसे इस मुकाम तक पहुंचाने में उनका बड़ा योगदान रहा है लेकिन लगता है कि जब वह रिटायर होंगे तो हम फिर वहीं पहुंच जाएंगे, जहां से शुरुआत की थी। थोड़े लाभ के लिए दीर्घकालिक हितों की कुर्बानी का इससे बेहतर नतीजा हो भी तो नहीं सकता।
राजीव पांडे
Wednesday, April 23, 2008
क्रेजी क्रिकेट
क्रेजी क्रिकेट। जी हां। हर तरफ पागलपन का माहौल। मैदान पर। टीवी पर और गली-मुहल्लों में। आईपीएल का रोमांच सबके सर चढ़कर बोल रहा है। दनादन छक्के। झटपट गिरते विकेट। और हर रोमांचक लम्हों पर देशी गानों पर थिरकती विदेशी बालाएं। मौजा ही मौजा करती हुईं। लगता है हर तरफ मौज ही मौज है। उपर से क्रिकेट में बालीवुड का तड़का। और क्या चाहिए। क्रेजी होने के लिए। सभी कुछ तो मौजूद है यहां। लेकिन सब कुछ होने के बावजूद लगता है लगता कुछ नहीं है। वो है देशभक्ति का अहसास। अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान जब भारतीय धुरंधर दूसरे देश के बालरों की बखिया उधेड़ते हैं, तो वो अहसास ही कुछ अलग होता है। या जब ईंशात शर्मा जैसे बालर पोंटिग की गिल्लियां बिखेरते हैं, जो मन बाग-बाग हो उठता है। मन करता है इन फिरंगियों को मजा चखा दें। लेकिन आईपीएल में न जाने क्यों फर्क ही नहीं पड़ता। कोई भी जीते। कोई भी हारे। हमें क्या। हमें मजा चाहिए और वो हमें मिल रहा है। आईपीएल के मैच के दौरान कई बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि शायद यह जज्बा लोगों से गायब हो गया है। मंगलवार को डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ जब वीरू ने अर्धशतक ठोका। तो हैदराबाद के मैदान में मौजूद दर्शकों ने उनका अभिवादन नहीं किया। इस पर वीरू ने हाथ उठाकर कहा क्या हुआ दोस्तों मैं तुम्हारा वीरू। लेकिन मैदान में सन्नाटा छाया रहा। इसी वीरू ने जब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ३१९ रन की पारी खेली थी। तो देश क्या विदेश में भी भारतीय झूम उठे थे। और मैदान पर मौजूद दर्शकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। सब के सब क्रेजी हुए पड़े थे। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि आईपीएल हमारे क्रेजी दर्शकों में दीवार खड़ी कर रहा है। लोग देश को छोड़, प्रांतीय टीमों से जुड़ गए हैं। आईपीएल की टीमों के एडवरटिजमेंट से तो यही जाहिर होता है। जैसे एक डेंटिस्ट के यहां एक मरीज अपने दांत दिखाने आता है। इसी दौरान डाक्टर मरीज से पूछता है कि आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर मरीज कहता है दिल्ली डेयरडेविल्स। डाक्टर नर्स की ओर देखता है। और कहता है इनके एक दांत नहीं। पांच दांत उखाड़ दो। इस पर मरीज घबरा जाता है, और डाक्टर रेपिस्ट जैसी हंसी के साथ कहता है। मैं मुंबई इंडियन। क्या पता कुछ दिनों बाद इस तरह की घटनाएं मैदान पर दिखाई दें। लोग अपनी टीम को लेकर इतने संवेदनशील हो उठे कि अपनी टीम के खिलाफ एक शब्द न सुन सकें। क्या पता डेक्कन चार्जर्स के प्रशंसक और नाइट राइडर्स के फैंस के बीच झगड़ा हो जाए और बात खून-खराबे तक पहुंच जाए। जैसा आमतौर पर पश्चिमी देशों में फुटबाल मैच के दौरान दिखाई देता है। मैनचेस्टर युनाइटेड के प्रशंसक या तो आर्सनल के फैंस को पीट देते हैं। या फिर आर्सनल के मैनचेस्टर युनाइटेड को।
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला। क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें। अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।
भूपेंद्र सिंह
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला। क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें। अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।
भूपेंद्र सिंह
Tuesday, April 22, 2008
A walk with Cloud...
I was running along with a cloud,
On the road, that leads to success,
Suddenly, the cloud disappeared,
That Cloud turned himself into rain drops.
The Cloud dissolved himself for earth,
To quench her ever existing thirst,
Lost his existence so that others can exist,
And nature can give new birth.
Then I realized the Glory behind Sacrifice,
I learned how to exist forever in this materialistic world,
And between Give and Take, how to make a choice,
I have decided not to run after something which is absurd.
Now, I will not live my life only for my shares,
I will find my reason to smile in eyes of others,
And then only we can make this world a place to live,
When we all will do the same what that Cloud did…
गंगा-तट
मजीद अहमद
धूप में खुले केश
चमक रही है स्त्री-देह
वातावरण में बेहद सनसनी है
फिर भी वह मुस्कुरा रही है
इस भयानक समय को
सुंदरता में तब्दील करते हुए
धूप में खुले केश
चमक रही है स्त्री-देह
वातावरण में बेहद सनसनी है
फिर भी वह मुस्कुरा रही है
इस भयानक समय को
सुंदरता में तब्दील करते हुए
Sunday, April 20, 2008
कया आप डॉ मुखतार अंसारी को जानते हैं?
चौंक गए न...हम उस आदमी की बात नहीं कर रहे जिसके बारे में आप सोंच रहे हैं। जी हां, डॉ मुख्तार अंसारी भी उसी गाजीपुर में पैदा हुए थे जिस इलाके से 'मुख्तार अंसारी' ताल्लुक रखते हैं। डॉ मुख्तार अंसारी आजादी के लड़ाई में अगली कतार के नेता थे। उनका जन्म 25 दिसम्वर 1880 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले में युसुफपुर-मोहमदावाद नामके गांव में हुआ था। अंसारी, जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे।उन्होने मद्रास मेडिकल कालेज से डिग्री लेने के बाद इंग्लैन्ड से एमएस और एमडी की डिग्री हासिल की। अपनी काबिलियत के बल पर उन्होने इग्लैंड के कई बड़े अस्पतालों में काम किया और वहां के स्वास्थ्य विभाग में ऊंचे अोहदे तक पहुंचे। एक भारतीय का ऊंचे पद पर जा पहुंचना वहां के तत्कालीन नस्लवादी समाज को रास नहीं आया और उनके खिलाफ हाउस अॉफ कामंस में मामला उठाया गया। ऐसा कहा जाता है कि वहां के तत्कालीन हेल्थ सेक्रेटरी ने संसद को बताया कि डॉ अंसारी की नियुक्ति इसलिए की गई कि उस समय उस पद के लिए उनसे काबिल कोई नहीं था। आज भी लंदन के केयरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में डॉ अंसारी के सम्मान में एक अंसारी वार्ड है । लेकिन हिंदुस्तान की गुलामी ने अंसारी के मन को विचलित कर दिया और अपनी एशो-आराम की जिंदगी छोड़कर वे वतन की राह में कुर्वान होने के लिए वापस चले आए।उन्होने कांग्रेस ज्वाइन किया और 1916 में हुए लखनऊ पैक्ट में अहम किरदार निभाया।वे कई दफा कांग्रेस महासचिव बने और और 1927 में तो वे कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए गए। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में डॉ अंसारी का अहम योगदान था और जामिया के स्थापना में मुख्य योगदान देने बाले डॉ अजमल खान की मौत के बाद डॉ अंसारी जामिया के वाइस चांसलर भी बने।
दिल्ली में डॉ अंसारी का दरियागंज के इलाके में अपना भव्य मकान था और महात्मा गांधी अक्सर उनके मेहमान होते थे। जाहिर है उनकी हवेली उस समय राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करती थी। आजादी के बाद सरकार ने उनके सम्मान में एक सड़क का नाम अंसारी रोड रखा है। डॉ अंसारी नई पीढ़ी के प्रगतिशील मुसलमानों में से थे जो इस्लाम की एक उदार तस्वीर दुनिया के सामने रख रहे थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे बहुत ही कम उम्र में इस दुनिया से चले गए। सन् 1936 में मसूरी से दिल्ली आते समय हार्ट एटेक की वजह से ट्रेन में ही डॉ अंसारी की मौत हो गई। कितने संयोग की बात है कि डॉ अंसारी के ही उम्र के मुंशी प्रेमचंद भी थे( मुंशी जी का जन्म भी 1880 में ही हुआ था) और उनकी भी मौत भी 1936 में ही हुई। पुनर्जागरण का एक बड़ा सितारा समय से पहले बुझ गया-जिसकी शायद उस समय सबसे ज्यादा जरुरत थी।
डॉ अंसारी से कुछ और भी बातें जुड़ी है। वर्तमान उपराष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी भी उसी परिवार से ताल्लुक रखते हैं और बाहुवली सांसद मुख्तार अंसारी भी...जिसमें डॉ अंसारी पैदा हुए थे। दरअसल, गाजीपुर-आजमगढ़ में मुगलों के जमाने से ही(जानकारों का कहना है कि मुगलसराय का नाम मुगल सेना की छावनी बनने की वजह से ही रखा गया जो उस रास्ते अक्सर बंगाल जाया करती थी) या उससे पहले सल्तनत काल में ही मुसलमान सिपहसलारों की कुछ जागीरें थी। और उन्ही परिवारों में से कई प्रगतिशील मुस्लिम चेहरे बाद में उभरकर सामने आए..जिसमें डॉ अंसारी भी एक थे।
आज की पीढ़ी डॉ मुख्तार अंसारी को नहीं जानती। वो तो उस मुख्तार अंसारी को जानती है जो बाहुवली सांसद है और टेलिविजन पर्दे पर किसी रॉविनहुड सा चमकता है। अगर आप नामके पीछे डॉ भी लगाएंगे तो भी यह पीढ़ी नहीं समझ पाएगी क्योंकि पीएचडी करना अब बहुत 'आसान' हो गया है।
दिल्ली में डॉ अंसारी का दरियागंज के इलाके में अपना भव्य मकान था और महात्मा गांधी अक्सर उनके मेहमान होते थे। जाहिर है उनकी हवेली उस समय राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करती थी। आजादी के बाद सरकार ने उनके सम्मान में एक सड़क का नाम अंसारी रोड रखा है। डॉ अंसारी नई पीढ़ी के प्रगतिशील मुसलमानों में से थे जो इस्लाम की एक उदार तस्वीर दुनिया के सामने रख रहे थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे बहुत ही कम उम्र में इस दुनिया से चले गए। सन् 1936 में मसूरी से दिल्ली आते समय हार्ट एटेक की वजह से ट्रेन में ही डॉ अंसारी की मौत हो गई। कितने संयोग की बात है कि डॉ अंसारी के ही उम्र के मुंशी प्रेमचंद भी थे( मुंशी जी का जन्म भी 1880 में ही हुआ था) और उनकी भी मौत भी 1936 में ही हुई। पुनर्जागरण का एक बड़ा सितारा समय से पहले बुझ गया-जिसकी शायद उस समय सबसे ज्यादा जरुरत थी।
डॉ अंसारी से कुछ और भी बातें जुड़ी है। वर्तमान उपराष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी भी उसी परिवार से ताल्लुक रखते हैं और बाहुवली सांसद मुख्तार अंसारी भी...जिसमें डॉ अंसारी पैदा हुए थे। दरअसल, गाजीपुर-आजमगढ़ में मुगलों के जमाने से ही(जानकारों का कहना है कि मुगलसराय का नाम मुगल सेना की छावनी बनने की वजह से ही रखा गया जो उस रास्ते अक्सर बंगाल जाया करती थी) या उससे पहले सल्तनत काल में ही मुसलमान सिपहसलारों की कुछ जागीरें थी। और उन्ही परिवारों में से कई प्रगतिशील मुस्लिम चेहरे बाद में उभरकर सामने आए..जिसमें डॉ अंसारी भी एक थे।
आज की पीढ़ी डॉ मुख्तार अंसारी को नहीं जानती। वो तो उस मुख्तार अंसारी को जानती है जो बाहुवली सांसद है और टेलिविजन पर्दे पर किसी रॉविनहुड सा चमकता है। अगर आप नामके पीछे डॉ भी लगाएंगे तो भी यह पीढ़ी नहीं समझ पाएगी क्योंकि पीएचडी करना अब बहुत 'आसान' हो गया है।
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