Tuesday, September 30, 2008

क्या मीडिया में बिहारवाद चलता है ?

इंडिया न्यूज में बतौर प्रोड्यूसर काम कर रहे सचिन अग्रवाल काफी परेशान हैं। उनकी बेचैनी और परेशानी इस लेख में साफ झलकती है। शायद ऑफिस में प्रतिक्रिया जताने का मौका उन्हें नहीं मिल पाया। लिहाजा वो अपनी बात यहां रख रहे हैं। सचिन अग्रवाल ईटीवी, टोटल टीवी, एस 1 और आजाद न्यूज जैसे जमे जमाए चैनलों में काम कर चुके हैं। अपनी बात बेहद बेबाकी से रखते हैं। जो कुछ वो कह रहे हैं, उससे सहमति असहमति अलग मुद्दा है...पर उनसे सहानुभूति जरुर है।- मॉडरेटर

क्या बिहारी बॉस बिहारी लोगों को सपोर्ट करते हैं......कहा तो ये ही जाता है कि हां करते हैं....मैं भुक्तभोगी हूं भी और नहीं भी....कभी लगता है कि ये होता है कभी लगता नहीं ...आखिर बॉस को भी तो नौकरी करनी है ...मालिक को दे या ना दे बाजार को तो जवाब देना ही पड़ेगा.... अगर वाद चलाएगा तो खुद बर्बाद हो जाएगा...अब वो फिदाईन तो हैं नहीं कि किसी वाद के लिए अपनी जान देदे .....मैं जहां का रहने वाला हूं वहां के लोगों की मदद इस हद तक तो नहीं करूंगा कि मेर ऊपर इल्जाम लगने लगें मुझे जगह जगह जाकर जवाब देना पड़े....मेरा अखिल भारतीय होने की छवि को क्षेत्रीय बना दिया जाए....बॉस भी तो इन चीजों से जूझता होगा....लेकिन फिर भी मन नहीं मानता ...मन में ये हर वक्त चलता रहता है कि बिहार के लोग बिहारियों को सपोर्ट करते हैं...ऐसा न होता तो आज हर जगह हर बड़ी कुर्सी पर यही लोग क्यों बैठे हैं.....कुछ तो है....क्या बिहार से ज्यादातर लोग पलायन करते हैं इसलिए मीडिया में भी ज्यादातर बिहारी है ...क्या बिहार के लोग पढ़ने लिखने वाले ज्यादा होते हैं...एक कारण ये भी है कि बिहार के लोग यूपीएससी के ग्लैमर में जब बिखर जाते हैं और नेता बनने के उनके पास चांस नहीं रह जाते तो ताकत की खोज उन्हे मीडिया में ले आती हो ...हो सकता है .....क्या बिहार के लोग अपने लोगों की मदद करते हैं....अगर करते हैं तो कोई बुराई नहीं...लेकिन मेरा नुकसान करके अगर उनकी मदद करेंगे तो बुराई है ...क्योंकि मैं शायद उनकी जगह होऊं तो ऐसा नहीं करूंगा...तो क्या बॉस अपनी कुर्सी को मजबूत करने के लिए अपने वफादार लोगों को भरने के चक्कर में बिहारवाद में पड़ जाता है....कुर्सी पर जो भी बैठेगा उसे काम करके तो देना होगा वरना नमस्कार होने में टाइम नहीं लगेगा...लेकिन कुर्सी पर बैठने के बाद उसके चारो पाए मजबूत भी करने पड़ते हैं...तो क्या पाए मजबूत करने के चक्कर में अधिकारी काबिलियत की बजाय़ इलाके को तरजीह देने लगते हैं.....मेरा ये मतलब नहीं कि बिहार के लोग प्रतिभाशाली नहीं होते ...हां मेरा मतलब ये जरूर है कि बिहार का हर पत्रकार मुझसे ज्यादा प्रतिभाशली नहीं....मैं जानता हूं मीडिया के कुछ लोगों को जिनके बारे में सुना है कि वो सिर्फ बिहार के लोगों को ही नौकरी देते हैं...उनके साथ काम करने को नहीं मिला....मिल भी गया तो राज ठाकरे तो मैं नहीं बन पाऊंगा.....लेकिन सच जानने ललक जरूर है ...आप लोग मेरी मदद करें......बताइए मैं दिल की सुनूं या दिमाग की ...या कहीं ऐसा है कि दोनो ही एक ही बात बोल रहे हों और मुझे अलग अलग लग रही हों.....दिल कहता है कि मान लो मीडिया ...प्लीज मेरी मदद करें.....

Sunday, September 28, 2008

अविनाश जी...महरौली में बम मैंने फोड़ा, शुक्र है आपका मोहल्ला बच गया !


स्थान- दिल्ली के ओखला इलाके में एक न्यूज चैनल का आफिस
समय- 3.40 मिनट
हालात- आफिस पहुंचने से कुछ वक्त पहले ही मुझे एफएम के जरिए मालूम हो चला था कि महरौली में बम फट गया है।
आफिस पहुंचकर जैसे ही मैंने अपना जीमेल अकाउंट खोला.. उसमें 3.15 मिनट का एक ईमेल नजर आया।
ये ईमेल मोहल्ला के मॉडरेटर और वर्तमान में दैनिक भाष्कर में सेवाएं दे रहे अविनाश दास जी का था। यूं तो ये
ईमेल बस डेढ़ लाइन का था...मगर इन डेढ़ लाइनों में जो कुछ लिखा गया था। उससे अंदाजा लगाना मुश्किल था
कि अविनाश जी ने क्या सोचकर ये ईमेल मुझे भेजा था। ईमेल में बस इतना ही लिखा गया था "सारे आतंकवादी
तो पकड़े या मार डाले गये थे, फिर महरौली में किसने बम फोड़ा?"

जामिया नगर में हुए मुठभेड़ को लेकर लिखे गए एक लेख के जवाब में मैंने एक लेख लिखा था। बहुत से लोगों ने पढ़ा.. जिसे जो समझ में आया.. टिप्पणी दे गए। मगर मोहल्ले वाले अविनाश जी ने मान लिया..कि मैं तो फर्जी मुठभेड़ों का समर्थक हूं। चूंकि मेरे लेख में मुठभेड़ को फर्जी ठहराए जाने के तार्किक विश्लेषण पर कुछ सहज जिज्ञासाएं जाहिर की गई थीं..। और शायद.. ये जिज्ञासाएं अविनाश जी को नागवार गुजरीं.. और इसके मायने उन्होंने कुछ इस तरह निकाले मानो मुझे पुलिसिया मुठभेड़ में एक्शन फिल्मों का पुट नजर आता हो..या फिर मैं वामपंथियों को छोड़कर बाकी बचे सांप्रदायिक हिंदुओं का प्रवीण तोगड़िया टाइप कोई नेता हूं...जिसे मुसलमानों की बढ़ती आबादी से खतरा नजर आता हो। अजीब बात है...जो वामपंथी नहीं है.. उसे पक्के तौर पर आरएसएस का कार्यकर्ता मान लिया जाता है। जो दक्षिणपंथी नहीं है..उस पर लेफ्टिस्ट होने का तमगा चिपका दिया जाता है। अफसोस तब होता है..जब ये काम वो लोग करते हैं..जिन्हें समाज में इसी बात का सम्मान मिला है..कि वो बाकियों की तरह भेड़चाल में नहीं चलते..। जिनसे ये उम्मीद पाली जाती है कि वो अपने दिमाग की खिड़कियां और दरवाजे खोलकर रहते हैं। मैं ये सब कुछ इसलिए नहीं लिख रहा कि..इसे एक मुद्दा बनाकर वैचारिक जुगाली का एक और नायाब मौका खोजा जाए...। ये एक सहज प्रतिक्रिया है....उस पूर्वाग्रह के प्रति जो अविनाश जी ने मेरे बारे में ना केवल बनाई बल्कि जाहिर भी की। खैर..अविनाश जी! मैं ये तो नहीं जानता..सचमुच महरौली में बम किसने फोड़ा..लेकिन अगर सचमुच आपको लगता है कि आतंकवाद के नाम पर होने वाले एनकाउंटर पर सवाल नहीं उठाकर मैंने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है तो चलिए मैं ही ये गुनाह कबूल कर लेता हूं...। हां..मैंने ही फोड़ा है महरौली में बम.. क्योंकि आपके मुताबिक.. सारे आतंकवादी या तो पकड़े या मार दिए गए थे...। शायद आपने ये ईमेल तो मुझे ये मानकर लिखा है कि मैं दिल्ली पुलिस का प्रवक्ता हूं.. या फिर इंडियन मुजाहिद्दीन का सरगना...। जो कुछ मानना हो मान लीजिए...मगर प्लीज..पूर्वाग्रह का चश्मा उतार दीजिए... क्योंकि लेफ्ट में जो एक बात बहुत जोर देकर कही जाती है कि "तय करो कि किस ओर हो..इस ओर या..." इससे बेहूदा सूक्ति कुछ भी नहीं हो सकती। विचारधाराओं के बौद्धिक मकड़जाल में आम आदमी के भीतर की सहजता और इंसानियत को खत्म करने की ये साजिश खत्म होनी चाहिए...। मैं जानता हूं...आपको ये बातें अच्छी नहीं लग रही होंगी.. मगर क्या आप मुझे एक वैलि़ड रीजन बता सकते हैं...आपने मुझसे क्यों पूछा.."सारे आतंकवादी तो पकड़े या मार डाले गये थे, फिर महरौली में किसने बम फोड़ा?" जब मीडिया में काम करने वाला हर शख्स खबर चलाने, बनाने या जानकारी हासिल करने में लगा हुआ था..ठीक उस वक्त.. वो भी धमाके के महज घंटे भर के भीतर आपको यही बात क्यों ध्यान में आई...कि आपको मुझे मेल करना है ? अगर आप इस पर अपना पक्ष रखना चाहें तो..अच्छा है...लेकिन विषय को कहीं और मत ले जाइएगा। वैसे भी.. इस्लामिक आतंकवाद...गोधरा नरसंहार कांड...बाबरी मस्जिद कांड...फलीस्तीन-इस्राइल विवाद...सोहराबुद्दीन केस.. जाहिरा शेख, नाथूराम गोडसे.. के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है.. और ना ही मुझे पोलिश..रशियन..या फिर बांग्ला लिटरेचर पढ़ने का ही मौका मिला। उम्मीद करता हूं..आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। क्योंकि ये सिर्फ आपका पूर्वाग्रह दूर करने की कोशिश भर है। बाकी.. आपसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत मैं जुटा भी नहीं सकता।

Tuesday, September 23, 2008

क्या बीमारी है ये भड़ास डॉट कॉम

क्या बीमारी है भइया ये ...ये किसी दिन मेरे खिलाफ न छाप दे...अब तो बड़ा आदमी बनने से डर लगता है ...किसी दिन मेरी हकीकत न छाप दे....ये भी नहीं पता कि जो छपेगा वो सच ही होगा...इतना जरूर है जो छपा होगा उसमें चटखारे लेने की पूरी गुंजाइश होगी...हर चैनल ... हर पत्रकार की खबर ले रहा है ...लेकिन इसका अंदाज मुझे पसंद नहीं....कम से कम पत्रकारों के लिए छपने वाली खबरें तो ऐसी हों जो चौसठिय़ा के अंदाज में न हों...हम सब पढ़े लिखे हैं और इससे ज्यादा दिक्कत इस बात की है कि अपने को पढ़ा लिखा मानते हैं...यशवन्त जी कृपया इतनी इज्जत न उतारें लोगों की ....निजी टिप्पणियों से बचें....संस्थान चलाने के लिए बहुत सी चीजें होती हैं...इस ब्लॉग को हर किसी का अपना फ्रस्टेशन निकालने का पखाना न बनाए....आप अच्छा काम कर रहें लेकिन प्लीज उसे अच्छी तरह से करें...पत्रकारिता में मौजूद मेरे जैसे दलित विचारकों की कुंठाओं को आवाज दें लेकिन मेरी शब्दावली को अपने संपादकीय शब्द तो दें...जो मैं बोलता हू प्लीज वैसे ही मत छाप दिया करें....मैं तो जाने अफसरों के लिए क्या क्या बोलता हूं...कई बार तो वो आलाकमान के परिवार की महिला सद्स्यों के बारे में मेरी कल्पनाशीलता का यौनातिरेक होता है .....तो क्या वो भी आप छाप देंगे....या अभी वो समय आने वाला है ......आया नहीं है .....इसे निजता की ओर न ले जाएं....किसी की इज्जत न लूटें....इज्जत लूटना बुरी बात है ......धन्यवाद

क्या मै महफूज हूँ ???? .......

बम ब्लास्ट की ख़बर को तवज्जो देना हम पत्रकारों का फर्ज होता है .....लेकिन जब आम आदमी की सोचते है तो लगता है की अभी बहुत कुछ बाकी है..कही कोशी तो कही सिंगुर या कुछ और ??? .....पहले तो नही लेकिन अब जब भी घर से निकालता हूँ ...तो मन में एक अनजाना सा डर बना रहता है की कही ब्लास्ट न हो जाए ...बस में मेट्रो में या फ़िर कही भी हर उस शक्श को संदेह की नजरो से देखता हूँ जिसके हाथ में कोई बैग होता है ...... लगातार हो रही आतंकवादी गतिविधियों से हर आदमी अपने आप को डरा हुआ महसूस कर रहा है......लेकिन लोगो कि दिनचर्या वैसे ही चल रही है जैसे पहले चल रही थी ...क्योंकि हम भारतीय है ,,,हमें कोई डिगा नही सकता .......लेकिन आम आदमी के लिए बदला है तो मन में एक डर .....
दोस्तों मै जिंदगी में कभी भी किसी से नही डरा हूँ ..... लेकिन किसी ब्लास्ट का शिकार हो के बे मौत नही मरना चाहता हूँ .... भगवान से यही दुआ है कि अगर कभी जान जाए तो देश की सेवा करते हुए जाए बस........ क्या खुफिया एजंसी इतनी निकम्मी हो गई है कि आम आदमी घर से निकलने के बाद वापस घर पहुच पाए ??????क्या ये मुमकिन है ????

Sunday, September 21, 2008

मैं कब बनूंगा आतंकवादी

मेरे जैसे लोग क्य़ों बन जाते हैं आंतकवादी....पढ़ने वाले ..लिखने वाले...परिवार से प्यार करने वाले ...जिंदगी से प्यार करने वाले...मौत से डरने वाले.....नौकरी करने वाले ...महत्वाकांक्षी...पैसा कमाने की जिद पाले हुए....दुनिया को खूबसूरत मानने वाले...कम्प्यूटर पर गिटपिट करेन वाले......मोबाइल इस्तेमाल करने वाले...लड़कियों से प्रेम करने वाले...,क्या है जो सारे रास्ते बदल देता है....सारे सपनों की दिशा बदल देता है ....सारे रिश्तों को जुनू से ढक देता है ...जिंदगी से मोहब्बत खत्म कर देता है .....लाश बनाकर छोड़देता है ...एक तारीख नवाज देता है ....जिस दिन होगी शरीर की मौत....मरने से पहले कितनी बार मरते होंगे मेंरे जैसे वो लोग जो बन गए आतंकवादी....पैसा तो नहीं होता होगा इसकी वजह....भविष्य बनाना तो नहीं होता इसका अंजाम....सिस्टम से तो मैं भी नाराज हूं फिर मैं क्यों नहीं बन पाता आतंकवादी...क्या उसे हासिल करने के लिए ज्यादा कलेजा चाहिए....क्या वो बनने के लिए जितना गुस्सा चाहिए मुझमें नहीं...क्या नाइंसाफी के शिकार लोग ही बनते हैं आतंकवादी....या जो अपराधी हैं वही बनते हैं आतंकवादी......ये सच है कि आंतकवादी क्रूर सिस्टम चाहिए...ये भी सच है कि आतंकवादी को खतरनाक बनाने के लिए एक नियोजित साजिश चाहिए....ट्रेन्ड टीचर चाहिए....ये सब मौजूद है...सारी वजहें मौजूद हैं ...सारे साधन मौजूद हैं.....फिर भी मैं नहीं बन सकता आतंकवादी....क्योंकि मैं नहीं लेता नफरत से इनर्जी....दहशत फैलाने के लिए चाहिए नफरत.चारों तऱफ फैली और मेरे अंदर बसी नफरत अबतक मेरे चलने फिरने सोचने समझने की वजह नहीं बना पाई है ....जबतक ऐसा है मैं नहीं बन सकता आतंकवादी ....

Saturday, September 20, 2008

जांबाजी कही बिकती नही .....

जोश, जज्बा और देशभक्ति कही से खरीदी नही जाती .....ये पैदा होती है अपने देश की मिटटी के जुडाव से .....ये पैदा होतो है अपने परिवार के संस्कारो से ......दिल्ली पुलिस के जांबाज पुलिस इंस्पेक्टर शहीद मोहन चंद शर्मा को शत - शत नमन....जनवरी २००८ को राष्ट्रपति द्वारा मैडल लेते समय देखने वालो में कोई यह नही सोचा होगा की यह उनके लिए आखिरी मैडल होगा ....लेकिन आज यह सही है .....कारगिल हो या फ़िर कोई और जंग या कोई पुलिसिया मुठभेड़ हर जगह ये आतंकवादी या क्रिमिनल मरते है तो अखबार , न्यूज़ चैनल अपनी भड़ास निकालने पहुच जाते है ...स्टोरी बानाने का सिलसिला चल पड़ता है .....लोग भीड़ बढाते है नारे बाजी करते है ..स्थानीय भी राजनीतिक रोटी सेकने पहुच जाते है .....आज एक पुलिस का जवान शहीद हुआ है ....खबरों में इनकी शहादत को तव्वजो दी गई है लेकिन शायद इससे ज्यादा तव्वजो दी गई है उस ख़बर को जो मुठभेड़ से जुदा था ...हर पत्रकार बंधू अपने अखबार या चैनल के लिए सबसे पहले ब्रेकिंग करना चाहता था ....शायद नौकरी के लिए यह जरुरी भी था........निवेदन है इन पत्रकार भाइयो से की इस जांबाज इंस्पेक्टर के परिवार की स्थिति के बारे में भी कुछ दिखाए ....

Friday, September 19, 2008

आतंकवाद में समाज की भूमिका ......

ब्लास्ट होता है लोग मरते है फ़िर स्थिति सामान्य होती है ...समय के साथ लोगो की दिनचर्या भी सामान्य हो जाती है......कुछ लोगो को पुरस्कार मिलता है तो कुछ लोगो को मुवावजा ...क्या इसके पीछे कोई यह सोचता है कि उन लोगो का क्या होता है जो इसके शिकार होते है ......क्या इन सब के बाद सुरक्षा व्यवस्था सुधर जाती है ? नही वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति चलती है .....आख़िर पुलिस क्या - क्या करे किस -किस को खंगाले .....जब भी कोई इनकाउंटर होता है तो कुछ समाज के ठेकेदार या फ़िर कहा जाय कि ये सामाजिक लोग ये जरुर कहते फिरेंगे कि ये इनकाउंटर पूर्व नियोजित था .....या कुछ मानवाधिकारी बंधू कूद के आ जायेंगे कहेंगे कि यह मानवाधिकार के खिलाफ है .......आख़िर में हम ये सवाल करते है कि ये सामाजिक लोग और मानवाधिकारी लोग उस समय कहा जाते है जब ब्लास्ट होता है ? पुलिस तो जो भी कर रही है कही न कही से जनता कि और देश की भलाई ही कर रही है .....अभी हाल में एक फ़िल्म आई थी वेडनेसडे जिसमे नसरुद्दीन शाह ने एक आम आदमी कि भूमिका निभाई थी ....वो आम आदमी मुंबई ब्लास्ट से परेशान था .....उसने आतंकवादियों के खिलाफ वो कदम उठाया जो आतंकवादी देश के खिलाफ उठाते है .....अगर आज देश का हर आम आदमी इस फ़िल्म के हीरो कि भूमिका निभाने लगे तो ......देश कि सुरक्षा एजंसियों का क्या होगा ?

Saturday, September 13, 2008

आखिर कितनी बलि लेंगे गृहमंत्री साहब ?


" आज दिल्ली में धमाके हुए हैं और उसमें अब तक जो हमारे पास मालूम्मात आई है उसके मुताबिक 18 लोगों की जानें गई हैं.. जिन्होंने भी ये किया है वो इंसानियत के शत्रु हैं, हमारे देश के शत्रु हैं, औऱ हमारे यहां की शांतता में खलल डालना चाहते हैं.. ऐसा करने वालों की हम घोर भर्त्सना करते हैं...जिनके घरवालों की मृत्यु हुई है...हम उनके प्रति हार्दिक संवेदना प्रगट करते हैं...जिन लोगों ने भी ये किया है... उन्हें भारत के कानून के हिसाब से कड़ी से कड़ी सजा दिलाई जाएगी..." ये सारे अल्फाज़ हमारे देश के काबिल गृहमंत्री शिवराज पाटिल के मुंह से निकले हैं। जो दिल्ली में हुए पांच धमाकों पर अपनी रुटीन बाइट देते हुए उन्होंने कहे। अब तो उन्हें इसकी आदत सी पड़ गई है..और धमाकों के बाद दिए जाने वाले बयान तो उन्हें जुबानी याद हो गए हैं... बस जगह और मरने वालों की संख्या में अपडेट लेकर हेर फेर कर देते हैं। अयोध्या, वाराणसी,लखनऊ, दिल्ली, फैजाबाद, मुंबई, मालेगांव, हैदराबाद, अजमेर, जयपुर, अहमदाबाद, सूरत, और एक बार फिर दिल्ली। ये स्वर्णिम इतिहास है यूपीए सरकार का। महज पांच साल में अमन के फरिश्तों की इस फौज ने देश को लाल रंग में रंग दिया है। हर धमाके के बाद..सूट बूट पहने हमारे गृहमंत्री साहब मीडिया से मुखातिब होते हैं..और वही घिसी पिटी बातें दोहरा जाते हैं। उनके बयान सुनकर लगता ही नहीं कि देश का गृहमंत्री बोल रहा है। ऐसा लगता है.. धमाकों से हैरान परेशान पुलिस का कोई मामूली प्रवक्ता अपनी सफाई दे रहा है... क्या यही सलीका है एक गृहमंत्री के बयान देने का। शिवराज पाटिल साहब कितने भोलेपन से कह देते हैं, कानून अपना काम कर रहा है..। धमाकों के बाद राज्य सरकार औऱ केन्द्र के बीच जो कुत्ते बिल्ली की लड़ाई शुरु हो जाती है... वो बताता है कि कोई भी आम आदमी की जिंदगी की हिफाजत की गारंटी लेने को तैयार नहीं है। सुरक्षाबलों की टुकड़ी से लैस बंगलों में रहने वाले..और बुलेटप्रूफ गाड़ियों में सैर करने वाले इन नेताओं को भला क्या मालूम...। कैसा लगता है एक शख्स को हजारों किलोमीटर
दूर अपने घरवालों को धमाके के बाद ये बताते हुए कि इस बार भी वो बच गया है। मिस्टर शिवराज पाटिल अगर आप निहायत ही गांधियाना अंदाज में हमें ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अब हिंदुस्तान भी अफगानिस्तान,इराक, फलस्तीन औऱ पाकिस्तान बन चुका है...जहां लोगों को धमाकों औऱ गोलीबारी के बीच जीने की आदत पड़ गई है... और हमें भी
इसके साथ ट्यूनिंग बना लेनी चाहिए... तो आपको बता दें, आप गलतफहमी में हैं.. कि आप यूं हीं आवाम की लाशों पर खड़े होकर शांतिपूर्वक भाषण देते रहेंगे...और हम इंतजार करते रहेंगे कि अब हमारी सरकार आतंकवादियों को सबक सिखाएगी। हमें मालूम है... कश्मीर से लेकर इस्लामी आतंकवाद पर बोलते हुए आपका गला फंस जाता है। मगर आप ये भी समझ लीजिए.. न्यूक्लियर डील के सब्जबाग दिखाकर अगली बार आप सत्ता तक नहीं पहुंच पाएंगे...। बेगुनाहों की जिंदगी से खेलने वाले हिजड़ों को तो ये जनता हर बार बताती है... कि उनकी औकात कितनी है। मगर, क्या आपको ये समझ में नहीं आता इस्लाम और जेहाद के नाम पर खून की होली खेलने वालों का कोई मजहब नहीं है... फिर वोटबैंक की चिंता कैसी...किसी भी समुदाय का तुष्टिकरण कैसा। आखिर बेखौफ जीने के लिए कितनी और बलि देनी होगी हमें..।
कम से कम यही साफ कर दीजिए....।

Thursday, September 11, 2008

मिथिलेश...तुमने छाया को क्यों मारा ?

आखिर उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था। ऐसी कौन सी खता कर दी थी, जिसकी कीमत उसे जान देकर चुकानी पड़ी। यही ना कि वो आंख बंद कर तुम पर यकीन करती रही। क्या उसकी गलती ये थी। तुम्हारी बातें उसने ना केवल सुनीं बल्कि उन पर यकीन भी किया। या फिर तुमने उसे जो कुछ दिखाया, सुनाया, उसने उन पर सवाल खड़े नहीं किए। बस सब कुछ मानती गई। पर इसमें उसकी क्या गलती है। उसकी अभी उम्र ही क्या थी। लगातार दो दिन तक तुम उसे डराते रहे। धमकाते रहे, बस मौत करीब है। और वो तुम्हारी धमकियों को सच मानती रही। जी हां, ये कहानी है..16 साल की उस मासूम छाया की, जो पिछले दो दिनों से न्यूज चैनल पर चल रही प्रलय की खबरों पर यकीन करने लगी थी...। ये लड़की मध्य प्रदेश में राजगढ़ जिले की सारंगपुर कस्बे की रहने वाली थी...। जेनेवा में होने वाला महाप्रयोग.. उसके लिए सचमुच का प्रलय बनकर आया। क्योंकि न्यूज चैनलों ने इस खबर को बेचने की कोशिश में डर, खौफ और दहशत का जो माहौल बनाया था.. उसमें ऐसा होना तय था। अगर अब ये न्यूज चैनल प्रलय और छाया की मौत को आपस में जोड़कर एक नया टीआरपी शो गढ़ दें तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। दो दिनों से छाया न्यूज चैनल पर चल रहे महाप्रलय शो से चिपकी रही। वो भी उस वक्त इन चैनलों के टीआरपी का हिस्सा बनी। जिसके लिए ये सारा खेल खेला गया। लेकिन ज्यों ही महाप्रलय का बुधवार आया। उसने भयावह मौत मरने की बजाए। सल्फास की गोलियां खाकर मरना पसंद किया। उसे इंदौर के अस्पताल में ले जाया गया, बचाने की कोशिशें भी हुईं। मगर जिसे मारने की साजिश दर्जनों न्यूज चैनलों ने रची हो। भला उसकी जान कहां बचने वाली थी। उधर जेनेवा में महाप्रयोग शुरु हुआ। इधर चैनलों ने दिखाना शुरु किया। क्या सचमुच मिट जाएगी धऱती। मगर जैसे जैसे दिन चढ़ता गया। चैनल के कर्ताधर्ताओं को लगा। अब पब्लिक जान चुकी है,प्रलय-वलय कुछ नहीं आने वाला। तो इन चैनलों ने अपने स्टूडियो में एक जानकार को बिठा लिया। और लोगों को लगातार ये बताते रहे कि उन्हें डरने की कोई जरुरत नहीं। प्रलय जैसा कुछ भी नहीं होने जा रहा। वाह रे मायावी न्यूज चैनल। काश,गिरगिट की तरह बदलते चैनल्स का असली रंग वो देख पाई होती..तो शायद एक जिंदगी टीआरपी की भेंट नहीं चढ़ती। इंदौर पुलिस ने 16 साल की छाया की खुदकुशी के सिलसिले में मामला भी दर्ज कर लिया है और छानबीन भी शुरु कर दी है। मगर क्या सचमुच गुनहगारों को सजा मिल पाएगी। आखिर छाया की मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा। उतनी ही तेज आवाज में चीखकर कौन कहेगा..हां मैंने मारा है छाया को..जितनी चीख पुकार के अंदाज में प्रलय की बात कर लोगों को डराया गया। ये तमाम सवाल हर उस शख्स से है। जो मीडिया का हिस्सा है। मुझसे, आपसे और भी दूसरों से जिन्हें नाम से मैं नहीं जानता। मिथिलेश का नाम इसलिए लिया क्योंकि मैं जानता हूं..मेरे चैनल पर महाप्रलय की भविष्यवाणी जिस प्रोग्राम में की गई। वो उसने बनाया था। मैं ये भी जानता हूं। जानते समझते हुए भी कि वो गलत कर रहा है, उसने अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी,वो नायाब शब्द तलाशने में जिनसे सचमुच प्रलय और तबाही का भयावह मंजर दिमाग में डाला जा सके। क्योंकि इस वक्त उसके लिए ये महज एक असाइनमेंट था। और आखिरकार उसके जैसे पचासों लोगों की मेहनत रंग लाई। कम से कम छाया के परिवार वालों के लिए तो प्रलय आ ही गई। मैं शर्मिंदा हूं। मैं भी उसी जमात का हिस्सा हूं जो दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में किसी की जिंदगी से खेलने से भी बाज नहीं आते। मिथिलेश, मैं जानता हूं..तुम्हारा वश होता तो तुम ऐसा प्रोग्राम कभी नहीं बनाते...। हकीकत तो ये है, गुनहगार मैं भी हूं..मैंने उस रात तुमसे कहा था...'बहुत बढ़िया प्रोग्राम बनाया'। काश,हम जान पाते खबर से खेलना बहुत खतरनाक होता है।