Thursday, January 31, 2008

बदलती तस्बीरे सोंधी मिटटी की ......

"बतकही" से जुड़कर ऐसा लग रहा है जैसे पत्रकारिता के अँधेरी भूलभुलैया में एक रास्ता मिल गया है .....सब सत्यमित्रम जी की मेहरबानी है उनके हम आभारी है .......वैसे तो कभी इस तरह से कुछ लिखा नहीं पर सवाल गांव की सोंधी मिटटी से जुड़ा है तो भाई कुछ लिखना ही पड़ेगा ...मैं जौनपुर ( उत्तर प्रदेश) में एक छोटा सा गांव बघौरा है (शेरवा) है जो मुख्यालय से 15 km इलाहाबाद रोड पर है ....मुग़ल बादशाह शाहजहा द्वारा शिराज - ए - हिंद के खिताब से नवाजा गया जौनपुर जनपद मध्यकालीन इतिहास में अपनी महत्ता स्थापित करता है, और एतिहासिक इमारतो जैसे अटाला मस्जिद , झझरी मस्जिद , शाही पुल आदि को अपने में संजोए हुए है ......आदि गंगा के रूप में प्रसिध्द गोमती के तट पर बसा जौनपुर प्राचीन काल में महर्षि यमदग्नी (परशुराम के पिता) के तापोस्थाली के रूप में जाना जाता है. तथा 1360 में जुना खां की स्मृति में बसाया गया था किवंदती के रूप में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रोटी और कमल रूपी प्रतीक की योजना मौलाना करामत अली की ही थी .
पहले के गाँव में और आज के गाँव में काफी फर्क आ गया है , वैसे तों आज संस्कृति और कला में काफी बदलाव आया है फिर भी गाँव तो गाँव है , सबसे पहले मैं बात करूँगा बचपन की वो तालाब और नहर में चुपके से नहाना और जब घर पे पता चाल जाये तो मम्मी के हाथ से मार भी खाना , गाँव में पहले कितना मजा आता था जब कजरी जैसे त्योहारों पर कजरी के गीत , कबड्डी के खेल और पतंग उड़ाना आदि आज भी नहीं भूलता ...पहले गाँव में फ़ोन की सुविधा नहीं थी फिर भी सूचना एक दूसरे तक आसानी से पहुच जाती थी मुझे खूब याद है केवल शहर में ही एकाध PCO थे लोग वहा जा कर बम्बई आदि जगहों पे फ़ोन करते थे ...पहले युवाओ की टोली बैठती थी तो देश हित की और स्वतंत्रता संग्राम की बाटे करते थे पर आज गाँव में पहले से काफी कुछ बदल गया है , लोग बैठते है तो शराब पीने या फिर गाजा , नशे की लत गाँव की तस्बीर ही बदल दी है ...आज गाँव के युवा चन्द्र शेखर आजाद , भगत सिंह आदि को अपना आदर्श बनाने के बजाय माफिया सरगानाओ को आदर्श बनाते है ....
पहले के गाँव में और आज के गाँव में काफी फर्क आ गया है , वैसे तों आज संस्कृति और कला में काफी बदलाव आया है फिर भी गाँव तो गाँव है , सबसे पहले मैं बात करूँगा बचपन की वो तालाब और नहर में चुपके से नहाना और जब घर पे पता चाल जाये तो मम्मी के हाथ से मार भी खाना , गाँव में पहले कितना मजा आता था जब कजरी जैसे त्योहारों पर कजरी के गीत , कबड्डी के खेल और पतंग उड़ाना आदि आज भी नहीं भूलता ...पहले गाँव में फ़ोन की सुविधा नहीं थी फिर भी सूचना एक दूसरे तक आसानी से पहुच जाती थी मुझे खूब याद है केवल शहर में ही एकाध PCO थे लोग वहा जा कर बम्बई आदि जगहों पे फ़ोन करते थे ...पहले युवाओ की टोली बैठती थी तो देश हित की और स्वतंत्रता संग्राम की बाटे करते थे पर आज गाँव में पहले से काफी कुछ बदल गया है , लोग बैठते है तो शराब पीने या फिर गाजा , नशे की लत गाँव की तस्बीर ही बदल दी है ...आज गाँव के युवा चन्द्र शेखर आजाद , भगत सिंह आदि को अपना आदर्श बनाने के बजाय माफिया सरगानाओ को आदर्श बनाते है ....
बदलना होगा हमें अपने समाज को और इस बुराई को नेस्तनाबूत कर देना है .क्या हम आज विकास के साथ - साथ अपनी संस्कृति को भूल गए है ? अगर परम्परा का हनन अपनी विरासत को भुलाना विकास है तो हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए .......इससे तो वो दौर अच्छा था ...........

राज नेता अपना विश्वास खो चुके है......

राजनीति से नीति और नैतिकता गायब हो गयी ,भ्रष्टाचार शिष्टाचार में प्रवर्तित हो चुका है ,उदारीकरण तुष्टिकरण में बदल गया है बापू के घर गोधरा बन गया .जिनके कंधो पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है वे स्वयं असुरक्षित है संसद भी घायल हो चुकी .उ.प्र बिहार दिल्ली आसाम पंजाब महाराष्ट्र गुजरात राजस्थान समेत सभी पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवादी नक्सल गतिविधिया चरम पर है सीमा पर हमारे जवान सरकार की गलत नीतियों के कारन शहीद हो रहे है . कैसे बंद होगा ये सब ?ये क्रांति कौन लाएगा ?जनता को तो केवल अब मिडिया न्यायालय तथा चुनिंदा समर्पित अधिकारियो से ही उम्मीद है . क्योकि - राज नेता अपना विश्वास खो चुके है ........

भारत की नीति - "नेपाल के मुद्दे" पर

नेपाल मे हुआ सत्ता परिवर्तन भारत के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है .हमारी केन्द्र सरकार जिसतरह आँख बंद कर सोयी है हमे आश्चर्य होता है कि हमारे पडोसी मुल्क मे भारत विरोधी ताकते पैर पसार रही है और हम नपुंसक बने बैठे है .नेपाल कि राजशाही भारत की समर्थक थी .माना कि लोकतंत्र आवश्यक है परन्तु वह तथाकथित न होकर भारतीय लोकतंत्र जैसा पवित्र होना चाहिऐ .माओवादी सरपरस्ती मे बनी नेपाली सरकार जगजाहिर है कि उसका मंसूबा भारतीय हितों के लिए न सकारात्मक था न ही रहेगा.भारत विरोधी विदेशी ताकते नेपाल मे अभी से ही सक्रिय हो गयी है .माओवादी नक्सलवाद का खुला समर्थन करते है .उत्तरप्रदेश और बिहार समेत भारत के दक्षिण ,पूर्वोत्तर राज्यों मे नक्सलवादी हरकते लगातार जारी है .समाचारपत्रों व अन्य माध्यमो से आमजनता को मालूम है कि हर महीने हमारे सैकडो जवान नक्सलवादी घटनाओ मे शहीद होते है .भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान चीन तो पहले ही हमारी सीमा पर गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे है .श्रीलंका पर हमारी नीति ने हमारे एक नेता कि बलि ले ली . कुछ साल पहले बाग्लादेश से लाये गए २२ बी एस ऍफ़ के जवानों की शवो की वह तस्वीर जिसमे हमारे जवान जानवरों की तरह टाँगे गए थे हमारी आंखो के नाच रही है .और हम एक नया सर दर्द पाल बैठे है .अमेरिका ने तो अमेरिकी हितों का हवाल देकर हजारो मील दूर अफगानिस्तान ईराक पर हमला कर सत्ता परिवर्तन कर दिया और हम अपने बगल नए दुश्मन का प्रादुर्भाव देख रहे है .नेपाल भारत और चीन के बीच एक खाई कि तरह है .अरुणांचल आसाम सिक्किम नागालैंड तो चीनी हस्तक्षेप से पहले ही पीड़ित है अब नेपाल के रास्ते उत्तर प्रदेश बिहार पर भी यही खतरा मंडरा रहा है .ऐसा नही है कि हमारे राजनीतिज्ञ नौकरशाह इस समस्या से अनभिज्ञ है परन्तु बाम्पन्थियो के दबाव के कारण सरकार मजबूर है.बामपंथी और माओवादी एक ही सिक्के के दो पहलू है .इन बाम्पन्थियो को तो भारतीय हितों से ज्यादा चीनी हितों की चिंता रहती है.समर्थ न वापसी की धमकी के चलते इन बाम्पन्थियो ने अन्य कई राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर सरकार को कदम पीछे करने पर मजबूर कर दिया .परन्तु ये सत्ता के लालची नेता और भ्रष्ट नौकरशाह अपनी मातृभूमि से भी खिलवाड़ कर रहे है .........सरकार को चाहिऐ था कि वह नेपाल मे हस्तक्षेप कर नेपाल मे एक वास्तविक सच्चे पवित्र लोकतांत्रिक सरकार का गठन करवाती जो भारत समर्थक होती .

Sunday, January 27, 2008

नैनो का सपना



रतन टाटा उड़ते हवा में हैं। ऍफ़- 16 फाएटर प्लेन खुद ही उडाने की काबलियत रखते हैं। अब इन्होने आम आदमी को भी उड़ने का ख्वाब दिखाया हैं। ख्वाब दिखाना कोई बुरी बात नही हैं। आख़िर इसी पर तो सभी की दुकानदारी टिकी है। सौदागरों की तो अब बात ही क्या ? सभी अपनी दुकान सजाये उस तक पहुँचने को बेकरार दीखते हैं जिसे हम सभी आम आदमी कहते हैं । उत्पाद सभी के अलग हैं लेकिन मकसद एक है आम आदमी को आम ही बनाये रखना। ये हैं तो राजनीति हैं, सामाजिक ताना- बाना बरक़रार है। खैर बाज़ार के जानकर मानते हैं कि समय इसी आम आदमी के साथ है। जिसके पास मनी पावर बढ़ रही हैं। ये ही नया खरीददार हैं। ये खुशफहमी पालने वालो को दिलासा दे देने के लिए काफी है कि आखिरकार देश की सत्तर फीसदी की जमात भी खरीदारों की लिस्ट में शामिल हो गई हैं। अब ये भूखे रह कर भी अपने सपनो को खरीद सकते हैं। महंगी होती शिक्षा खरीद सकते हैं, स्वास्थ सुबिधा खरीद सकते हैं, आधुनिकता के साजों सामान खरीद सकते हैं। तभी शायद गाँव के आस पास शॉपिंग माल खुल गए हैं, फाइव स्टार हॉस्पिटल खुल गए हैं। तरक्की के परोकारों के लिए ये बदलाव मानदंड बन गए हैं। और ये ही दावा करते हैं कि भारत तरक्की कर इंडिया की राह पर है। लेकिन क्या ये वास्तव में तरक्की के संकेत हैं? या कुछ ऐसे लोगों की जादूगरी जो महज आंकडो से खेलना जानते हैं। आज भी इस ७० फीसदी की आधी आबादी के पास खाने के लिए रोटी नही हैं। जो की इंसान की पहली ज़रूरत है। कपडे और मकान के तो बात ही दूर हैं। कुछ इनमे किसान हैं जो साल भर दूसरो के लिए अनाज पैदा करने में लगा रहता हैं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए इसका खुद का निवाला ही इसकी पहुंच से दूर हो चला हैं। इसके लिए रोज़ एक विदर्भ और बुंदेलखंड मुह बाये खड़ा है। आगे चलते हैं तो बचे १० से १५ फीसदी लोग जो नौकरी पेशा करके अपनी नैया इस भवसागर में खे रहे हैं। जो लोन लेकर अपना घर खरीदता हैं और अपना सुकून दान कर देता हैं। घर की दूसरी चीजें भी इसी तरह जुगाड़ करता हैं। यानी गरीबी, भुखमरी से लड़ता वर्ग और ये ही आम आदमी है। जरूरत और इच्चयों के बीच लगातार पिसते इस आदमी के नैन में नैनो का सपना है। इस हालत में तो कार के सपने का सौदा कोई सस्ता नही है। साईकिल से ये दुपहिया पर कब आ गया इसे पता ही नही चला अब वैसे ही ये कार में सवार हो जाएगा। इतरा के चलेगा बाकी बचे अपने भाई बन्धुवों को अपनी तरक्की के पैमाने दिखायेगा और खास लोगों की ला इ न में अपने को खड़ा देखने का आत्मसुख पायेगा। थोडे से इ ऍम आई यानी किस्तों को चूका कर इतने फायदे हैं तो भला ये पीछे क्यों रहे तभी नैनो के दिवानो की तादाद दस दिनों में ही सत्तर लाख पहुंच गई। और टाटा का संतोष भी बढा की आख़िर वो अब सभी को पीछे छोड़ आम आदमी के दिलो में " बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज" की तर्ज पर ही "हमारी नैनो" के रूप में दाखिल हो चुके हैं। अब इस सपने को पूरा करने की होड़ में किसे फुरसत हैं कि वो जरा देख ले की उसकी हालत क्या हैं। अपन तो इतनी गुजारिश करेंगे की इस आम आदमी की कोई मदद नही कर सकता तो कम -एस-कम इसके सपनो का कोई सौदा तो न करे।

Saturday, January 12, 2008

मेरा गांव और बाढ......-2

मेरे गांव के बारे में लोगों का कहना यह है कि मेरे पुरखे आज से तकरीवन ढाई सौ साल पहले मधुबनी से करीब तीस किलोमीटर पश्चिम बसैठ-चनपुरा से आए थे। बसैठ चानपुरा वहीं गांव है जहां इंदिरा गांधी के नजदीकी और बिवादास्पद योगी धीरेंद्र व्रह्मचारी का जन्म हुआ था। उस गांव मे अभी भी हमलोगों के मूल के व्राह्मण काफी संख्या में है। उस जमाने में पता नहीं हैजा या बाढ की बजह से लोग पलायन करते रहते थे। हिंदुस्तान में वो मुगलो का अवसान काल था और यह इलाका बंगाल के नवाब के अधीन था। दरभंगा महाराज उनके सामंत हुआ करते थे। कहते है कि उस जमाने में इस इलाके में बडे बडे जंगल थे, कुछ तो बिहार के उत्तरी भाग से लेकर हिमालय की निचली श्रृखलांओं तक फैले हुए थे। गांव में अक्सर तेंदुआ या बाघ आ जाता था और ऐसा आजादी मिलने के समय तक सुनने में आता था। अब पता नहीं वो जंगल कहां है, बढती आबादी ने जंगलो के बेतरह लील लिया और अब तो उसके अवशेष भी यहां मिलना मुश्किल है। आज यह इलाका भारत के घनी आबादी बाले इलाकों में गिना जाता है। पुराने लोगों की बातों पर यकीन करें तो बाढ तब भी आता था लेकिन उसका प्रकोप इतना नहीं था। बडे-बडे जंगल विशेषकर नेपाल की तराई के जंगल बाढ के पानी को आहिस्ता आहिस्ता मैदानों में आने देते थे और तकरीवन हरेक गांव में पोखरों की श्रृखला, ताल-तलैया और छोटी-छोटी धाराएं बडे-2 बाढ को पचा जाती थी। आज भी उत्तर बिहार के इस इलाके में-जिसे मिथिलांचल के नाम से जाना जाता है-हरेक गांव में आठ-दस पोखर या तालाव हैं जो दिन व दिन अतिक्रमण की बजह से उथले होते जा रहे है। पहले ये तालाबें जमींदारो की मल्कियत थी, लेकिन आजादी मिलने का बाद से इनका सरकारीकरण हो गया और लोगों ने तालाब को भरकर घर वनाना शुरु कर दिया। पतली-पतली जल धाराएं- जो पता नहीं नेपाल से कहीं से आती थी- जिनका हरेक गांव में अलग अलग नाम था और जो बडी नदियों में जाकर मिल जाती थी, लोगों द्वारा भर कर खेत बना ली गई है और स्वभाविकत; इससे पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुका है। विकास की तमाम योजनाएं ऐसी वनाई गई जिससे उत्तर से आने वाली नदियों के पानी का प्रवाह अवरुद्ध हुआ-जिसका सवसे बडा उदाहरण दरभंगा -निर्मली रेलवे लाइन है जो पश्चिम से पूरब लगभग सत्तर किलोमीटर तक पानी के लिए एक कृत्रिम अवरोध के रुप में डटी है। इसके आलावा दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाइवे भी इसी तरह का है। कहने का तात्पर्य यह विल्कुल नहीं है कि विकास की योजनाएं गैर-जरुरी है। मतलब सिर्फ इतना है कि इसका कोई लाजिकल तरीका खोजा जा सकता था। नेपाल की तराई में पहले घने जंगल थे-सागवान की लकडियो के लिए प्रसिद्ध। पिछले पचास साल में वहां की राजशाही के दौरान विकास के आधुनिक माडल के तहत जो जंगलों की हृदयहीन लूट हुई है उसने हिमालय के ढलान को नंगा कर दिया है और उसका सीधा असर उत्तर बिहार पर पडा है। इसके आलावा, कुछ न कुछ असर ग्लोवल वार्मिग का भी जरुर हुआ है जिसने वर्षा के चक्र को वेतरह प्रभावित किया है।
बाढ की समस्या में नदियों का सिल्टिंग एक महत्वपूर्ण कारण है। पिछले कई दशकों से बिहार के नदियों की सिल्टिंग नहीं हटाई गई है और बाढ जव आती है तो किनारों में अकल्पनीय क्षति पहुचाती है।

Monday, January 7, 2008

मेरा गाव खोजपुर-1

मुझे शुरु में लगता था कि खोजपुर नामका जो यह गांव है वो मेरो ही पुरखे द्बारा बसाया गया है, लेकिन बाद मे यह भ्रम भी दूर हो गया। दरअसल इस गाव का जिक्र टोडरमल के 16वीं सदी के सर्वे में भी आता है जबकि मेरे पुरखे इस गांव मे करीब 1750 ई के आसपास आए होगें। दरअसल, ये बाते मुझे पूर्व सांसद भोगेद्र झा ने बतायी जिनका इतिहास आदि विषयों में खासा दखल है। अपने आसपास की चीजों के बारे में हम कितना कम जानतेहै। अधिकांश को तो अपने गांव या अपने पडोस का ही इतिहास नहीं मलूम है-जवकि उन्हे हडप्पा-मोहनजोदडो के बारे में तोता की तरह रटाया जाता है। खैर, बात खोजपुर नामके गांव की हो रही थी जो बिहार के मधुबनी जिले में,जिला मुख्यालय से 34 किलोमीटर उत्तर-पूर्व की दिशा में बसा हुआ है। नेपाल की सीमा यहां से मह़ज 20 किलोमीटर है-और सीमापार बेरोकटोक आवाजाही होती है,शादी व्याह भी। सन् 84 तक गांव में बस नहीं चलती थी, कारण की सडक पक्की नहीं थी और कमला-बलान पर पुल नहीं था। पुल बनबाने में ललितनारायण मिश्र का योगदान अहम था। यों उन्होने और भी कई उल्लेखनीय काम किये थे-जैसे, दरभंगा में विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेज, झंझारपुर-लौकहा रेलवेलाइन और पश्चिमी कोशी नहर आदि। जनता उन्हे भगवान की तरह मानती थी। इतना सम्मान बिहार में बहुत कम नेताओं को नसीव हुआ। खोजपुर की आबादी आठेक हजार है जिनमें, ब्राह्मण,हरिजन ,यादव और कई पिछडी जातियां शामिल है। गांव की तकरीबन 80 फीसदी जमीन आज भी व्राह्मणों की मल्कियत है-हलांकि जमीन का हस्तांतरण पिछडी जातियों को हो रहा है-मगर उसकी रफ्तार अभी भी कम है। आज खोजपुर में बैक है, स्कूल है, डाकघर है, पटना के लिए बसें मिलती है और एक छोटा सा चौक भी है जहां आप दैनिक जीवन की वस्तुएं खरीद सकते है। लेकिन मुझे उस खोजपुर की याद आती है जो व्राह्मणों के कठोर चंगुल मे जकडा हुआ था-ये बात 80 के दशक की है, जब पटना में लालू यादव नामका आदमी मुख्यमंत्री नहीं बना था, जब कमला-बलान पर पुल नहीं बना था और जब अधिकांश व्राह्मण खेती खुद करते थे या करबाते थ। मेरे छुटपन तक तो सवर्णों का आत्याचाक कम हो गया था अलबत्ता आतंक अभी भी व्याप्त था। अभी भी पुराने लोग उन्हें देखकर पायलागी करते ही थे..अलबत्ता दिल्ली और पंजाव से कमाकर आई दलितो की नई पौध ने उन्हे चुनौती देना शुरु कर दिया था..ये बात तो लालू यादव के आने के पहले ही शुरु हो गयी थी।. हां लालू के आने के बाद वो आवाज और भी मुखरित हो चली थी और कई बार तो अन्याय के हद तक ब्राह्मणों से बदला लिया गया था। एक व्यक्ति के सत्ता में आने से कैसे सामाजिक संवंध बदलते है इसका नायाब उदाहरण नव्वे का वो शुरुआता दशक था , जहां लालू की आलोचना का मतलव सरेआम राह चलते पिटाई हो सकती थी।

Saturday, January 5, 2008

गाँव मे टीवी

कल चचेरे भाई नें गाँव से फ़ोन किया था। मोबाईल से! उसने बतलाया कि धनतेरस पर घर मे डीवीडी ख़रीदा गया है। आगे यह भी पता चला कि मैं दिल्ली में रहकर तकनीक के बारे में उससे कम जानता हूं। फ्लैशबैक में चला गया।

बात 1995 की रही होगी। गर्मी छुट्टी में दो महीने के लिए गाँव गया था। मेरा गाँव भारत-नेपाल सीमा से काफ़ी करीब है, इसलिए वहाँ से प्रसारित कार्यक्रम बार्डर के इस पार भी आसानी से टेलिवीजन पर देखा जा सकता है। जिस समय दिल्ली दूरदर्शन पर रामायण प्रसारित होता था, मेरे गाँव की बात तो छोड़िए, मेरे जिले में भी दो-तीन सौ से ज्यादा टीवी सेट नहीं रहे होंगे। गाँववाले उस वक्त रामायण देखने से वंचित रह गए थे। लेकिन 1995 में जब नेपाली टेलिवीजन ने किसान साबुन वाले विज्ञापन के साथ रामायण का प्रसारण शुरु किया, तो उस वक्त तक गाँव के दो-चार घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी का किसी कमाऊ बीवी की तरह भव्य पदार्पन हो चुका था। गाँव में मेरे पड़ोस के एक घर में भी टीवी था। मैं वहीं टीवी देखने जाता था। टीवी ने गाँव में हलचल ला दी थी। एक क्रांति, जो चुपके से लोगों के घरों से होते हुए उनके दिमाग में भी अपनी जगह बना रही थी। रामायण का प्रसारण शुक्रवार को रात के आठ बजे से होता था। महिलाएँ जल्दी-जल्दी खाना पका लेती थीं। साढ़े सात बजे के बाद पूरे गाँव की एक ही मंजिल होती थी। टीवी वाले घर।

बिल्कुल सिनेमा हाल सा माहौल। व्यवस्था भी कुछ-कुछ वैसा ही। घर के मालिक दरवाज़े के पास टार्च लेकर बैठ जाते थे। बच्चों को आगे बिठाया जाता था, महिलाएं बीच में, शादी योग्य लड़कियां महिलाओं के बीच में और बड़े बुजुर्ग पीछे कुर्सीयों पर विराजते थे। गाँव के लौंडे-लफारे अगल-बगल एडजस्ट हो जाते थे। इसके अलावा जिन बच्चों को 'ट्रेक रिकार्ड' ख़राब होन के कारण प्रवेश नहीं मिल पाता था, वो बाहर से खिड़कियों पर लटक जाते थे। बिल्कुल मुंबई के लोकल ट्रेन जैसा माहौल। प्रसारण निर्बाध रूप से चले इसकी जिम्मेवारी गाँव के ही कुछ 'काबिल' लड़कों पर होती थी। मैट्रिक फेल इन लड़को के योगदान को ध्यान में रखते हुए इन्हें 'इंजीनियर साहब' कह कर संबोधित किया जाता था। अपने देश में यह लोग मास्टर साब, डाक्टर साब के बाद एकमात्र साहब थे। निर्बाध और स्पष्ट प्रसारण इन 'इंजीनियरो' के प्रतिष्ठा और कैरियर दोनों के लिए महत्वपूर्ण थे। अपने काम के प्रति इतने समर्पित और निष्ठावान कि, माँ-बाप कुहक-कुहक कर मर जाएं कि पाँच किलो गेंहूं पिसवा कर ले आओ। लेकिन क्या मज़ाल कि ये टस से मस भी हों। लेकिन जुमे के दिन ये बीस किलो वजनी बैट्री साइकिल पर लाद कर पाँच किलोमीटर दूर मधुबनी से चार्ज करा लाते थे। ब्राडकास्टिंग संबंधी इनका ज्ञान किसी भी आईआईटियन के पसीने छुड़ा सकता था। बूस्टर, चुट्टा, एंटीना, बैट्री का पानी, बैट्री प्लेट आदि इनके डिक्शनरी के शब्द थे। यह अलग बात है कि करेंट फ्लो संबंधी इनके ज्ञान पर बैंजामिन फ्रैंकलिन भी शर्मा जाएं।

इन तथाकथित 'इंजीनियरो' के बाद सबसे ज्यादा टीआरपी उन बच्चों की होती थी जो साप्ताहिकी कार्यक्रम रट लेते थे। यानी सबसे तेज़! बच्चों के इस प्रजाति को दो का पहाड़ा भले ही न याद हो, लेकिन रंगोली, चित्रहार और आने वाले रविवार को शाम पांच बजकर पैंतालिस मिनट का हिंदी फीचर फिल्म का समय देवी सरस्वती इनकी जिह्वा पर चिपका देती थीं।

टीवी देखने के बहाने हुए इस सोशल गेदरिंग ने कई लोकल लेवल प्रेम प्रसंगों के संभावनाओं को भी जन्म दिया था जो असमय ही कहीं परंपराओं के कब्रस्तान में दफ्न हो गयी। जमाने के पहरे और सामाजिक बंधन से मुक्ति का शायद ही इससे अच्छा कोई और विक्लप रहा हो। रूढ़ीवादी मान्यताएं चूर हो रही थी। छोटे भाई-बहन, सहेलियाँ, हमउम्र भाभियां, लव लेटर के वाहक बन चुके थे। अलबत्ता यह उस दौर की बात है जब सिर्फ़ भाभी की बहन या फिर बहन की ननद तक ही प्रेम विवाह आदर्श माना जाता था। खैर, धीरे-धीरे ही सही, टीवी को सामाजिक मान्यता मिलने लगी थी। और रामायण जैसे सीरियल ने तो घर में टीवी के अनिवार्यता और भी मुखर रूप से सामने रखा था। कह सकते हैं कि धर्म ने तकनीक और बाजार को वैधता प्रदान करने की काफी सफल कोशिश की थी।

ख़ैर, घड़ी में आठ बजते ही बिल्कुल स्तब्धता छा जाती थी। और शुरू हो जाता था कालजयी सीरियल 'रामायण'।

Thursday, January 3, 2008

खोजपुर बेहतर हुआ है..........

पिछले एक साल पर गांव जाने का मौका मिला था और मैं हिंदुस्तान के गांवो की बदलती तस्वीर को अपने गांव के आईने में देखना चाहता था। उपर से सबकुछ वैसा ही था, बाढ के बाद का अटका हुआ पानी,उबड-खाबड सडके जिसपर नीतीश सरकार बडी शिद्दत के साथ कोलतार बिछा रही थी और मगध एक्सप्रेस से उतरकर शाही तिरुपति और जयमातादी जैसे बसों में बैठंने बालों का रैला। लेकिन कहीं गहराई में बहुत कुछ बदल रहा है। नेपाल की सीमा से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर मेरे गांव खोजपुर तक सडकें डवल लेन की बनाई जा रही थी। पिछले पचास साल में जो काम सरकारी टेलीफोन कंपनियां नहीं कर पाई थी, उसे सिर्फ एक साल में एयरटेल और रिलांयस ने निबटा दिया था। घर -घर में मोबाइल पहुच चुका था, और बिहार के खेतों में मोबाइल बजना मेरे लिए वाकई किसी सपने से कम नहीं था।सबसे बडी और सकारात्मक बात मैने यह मैंने जो देखा वो यह कि लडकियो की शिक्षा पर सरकार का और लोगों का खासा जोर है। सरकार का सर्वशिक्षा अभियान, अपने कई कमियों के बावजूद इस दिशा में खासा कामयाव रहा है।मिड डे मील स्कीम, लडकियों के लिए मुफ्त की किताबें, साल में दो बार ड्रेस और हाईस्कूल की लडकियों के लिए साईकिले-इन तमाम योजनाओं ने वाकई लडकियोंको वडी तादाद में स्कूल की तरफ खीचा है।मुझे यकीन नहीं हुआ जब मैंने अपने गांव के स्कूल में आठ सौसे ज्यादा बच्चों को देखा, जो मेरे जमाने में कभी चार सौ से उपर नहीं गया, जबकि उस समय पडोस के गांव के बच्चे भी वहां पढने आते थे। जाहिर सी बात है कि गांव के ज्यादातर ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां शहरों की ओर पलायन कर चुकी है और उन आठ सौ बच्चों में ज्यादातर पिछडों और दलितों के बच्चे थे जो एक नए भविष्य की तरफ इशारा कर रहे थे। गांव में अब आंगनबाडी केंद्र है, महिला स्वास्थ्य सेविका है और नये शिक्षा-मित्रों में एक तिहाई महिलाएं है। मेरे गांव में अब पर्दा के घुटन से महिलाएं आजाद हो रही हैं और साईकिल पर सबार लडकियां जब अपने सतरंगी परिधानों मे स्कूल की तरफ निकलती है तो लगता है कि वाकई पूरा कायनात मुसकुरा रहा है। पढने की भूख कुछ इस कदर हावी है कि दोयम दर्जे के अंग्रजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह खुल गये है और काफी पैसा भी बना रहे है। ट्यूटरों की एक फौज खडी हो गयी है जिसकी मासिक आमदनी दो हजार से आठ हजार रु तक है। नीतीश सरकार ने शिक्षा व्यबस्था को पटरी पर लाने की काफी कोशिशें की हैं लेकिन कुछ लोग शिक्षा-मित्र की बहाली पर सबालिया निशान लगा रहे हैं। अलबत्ता सरकार का दावा अपनी जगह है कि एक गरीब राज्य चार हजार रु प्रतिमाह में शिक्षा-मित्रों की सहायता से अभी अपनी सिर्फ अपनी प्राथमिकता निबाह रही है।सरकार की स्वास्थ्य नीति की भी तारीफ हो रही है जिसके तहत सरकार ने स्वास्थ्य केंद्रों के रखरखाव की जिम्मेवारी निजी संस्थानों को दे दी है।
लेकिन बिहार की समस्या सिर्फ भ्रष्टाचार की नहीं है जिसको लेकर वर्तमान सरकार परेशान दिख रही है।एक गरीब प्रांत जिसको सिलसिलेवद्ध रुप से पिछले साठ बरस से जातीय गिरोहों ने बिभिन्न राजनैतिक दलों के बैनर तले लूटा है और जो स्वभाविक रुप से अपराध , असामनता, भ्रष्टाचार और कुत्सित जातिवाद का शिकार हो गया है, वहां यह आश्चर्य की बात है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर सबसे कम पुलिस बाले ,डाक्टर और शिक्षक है। ऐसे में बिहारी छात्रों का बिहार के बाहर जाकर कामयाबी का झंडा गाडना वाकई काबिलेतारीफ है।कई दफा तो वे दूसरे प्रांत के लोगों के लिए जलन का पात्र बन जाते है। साधनबिहीन और कम संख्या में पुलिस का रिकार्ड भी तब खराब नहीं कहा जा सकता।
कुल मिलाकर सबसे बडी चीज जो देखने में आ रही है कि जनता में एक आशा का संचार हुआ है और प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप कम हुआ है। बिहार की गाडी को रफ्तार पकडने में भले ही दस बर्ष और लग जाए, लेकिन चीजें सकारात्मक हुई हैं। पटना बस स्टैंड में बस में बैठते बक्त अगर आप सरकारी कर्मचारियों की बातचीत का जायजा लें, तो एक बात साफ तौर पर झलक कर सामने आती है कि वे नितीश सरकार से वाकई नाखुश हैं। बास्तव में यहीं वो तबका है जिसने लालू यादव के कार्यकाल में नेताओं के साथ मिलकर जमकर लूट मचाया था, एश किया था और सवर्ण चरित्र होने के कारण लालू को गाली भी यहीं तबका सबसे ज्यादा देता था। मजे की बात यह है कि यहीं जन-विरोधी वर्ग अब नीतीश सरकार की आलोचना कर रहा है क्योंकि उसे नीतीश का चंद्राबाबू बनना पसंद नहीं है।

Wednesday, January 2, 2008

जिन्दादिली से लबरेज़ एक ख़त....

- सौदामिनी

( ब््लाग शुरु होने पर पहली बधाई सौदामिनी की ओर से आई थी। लेकिन शायद वक््त की कमी की वजह से कोई लेख नहीं लिख पाईं। फिलहाल वो सबसे तेज चैनल की शोभा बढ़ा रही हैं। एक इंसान के तौर पर िजतना मैं जानता हूं उन््हें तिकड़म और दांव पेंच से अक््सर परेशान करते हैं। उन््हें दुनिया और समाज की ये हकीकत भी परेशान करती है कि दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं...अच््छे और बुरे। ये लेख शायद अपने अच््छे बुरे तजुर््बों की जमीन पर ही लिखा गया है। उम््मीद है आपको उनकी साफगोई पसंद आएगी....- मेन माडरेटर , ऑफ द रिकॉर््ड )

आफ द रिकार्ड पढ़ने वालों को नया साल बहुत-बहुत मुबारक हो। जनाब एक और साल बीत गया और छोड़ गया ढेर सारे लम्हे हमारी यादों की आर्काइवल लाइब्रेरी में। और यादों में कौन कौन से वाकये- फलां जगह तनाव फैल गया, यहां हिंसा की इतनी वारदातें हुईं, यहां महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ, यहां इस रैकेट का भंडाफोड़ हुआ, यहां स्टिंग आपरेशन से फलां-फलां का पर्दाफाश हुआ और इतनी सारी नेगेटिव ख़बरें कि आप कह दें कि अमा यार कोई नई बात बताओ। यूं तो वक्त इतनी तेज़ी से बीतता है कि हमें पता ही नहीं चलता कि कब नया साल शुरू हुआ और कब बीत गया। लेकिन इस बीच हम अगर कोई चीज़ सबसे ज्यादा महसूस करते हैं तो वो है खुद का जीने के लिए संघर्ष। सामने कई तरह की चुनौतियां लेकिन चेहरे पर मधुर मुस्कान लिए हुए, विरोधियों के हर छोटे-बड़े वार का बखूबी सामना करते हुए, कड़वे तजुर्बों से सबक लेते हुए हम हर पल इस ज़िंदगी की पाठशाला में एक क्लास पास करते जाते हैं और इस तरह हमारे अंदर जन्म लेती है सहनशीलता और सहृदयता जो किसी भी तरह की पीड़ा का ज़बरदस्त काट है। ज़िंदगी हर पल हमें कुछ न कुछ सिखाती है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। अच्छा हो या बुरा, हर समय बीत जाता है। यादों के खज़ाने में ढेर सारे हीरे जवाहरात जमा होते रहते हैं और यही हैं हमारी असल पूंजी जो ताउम्र हमारे साथ रहती है, चाहे हम जिस भी हाल में रहें। हमारे ढेर सारे दोस्त, हमारे शुभचिंतक जो जाने अंजाने हम से दूर चले जाते है और न जाने कितने अंजान लोग जो हमारे दिलों में घर बना लेते हैं, इन्हीं ढेर सारे लोगों की मीठी यादों को हम बरसों संजो कर रखते हैं और भविष्य के लिए खुद को तैयार करते हैं। जिंदगी हमें एक ही बार मिलती है, ये जैसी भी है बेशकीमती है और इसका हर पल हमें पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए।

Tuesday, January 1, 2008

देखो दर्द का डिस्को

लो आज नया साल भी आ गया। इस शुभ मौक़े पर सबसे सुकून फ़ोन को मिली है। मोबाइल फ़ोन ने राहत की साँस ली है, इधर दो तीन दिनों से काफी बिजी था। बेचारा अपने दर्द का इजहार भी नही कर सकता था। दर्द किसे और किस किस को हुआ ये जानने की फुरसत किसी को नही मुझे भी नही लेकिन कुछ लोगो को दर्द हुआ हैं.. चलिए देखते हैं किसे हुआ क्यों हुआ ...... युवा कहता हैं हम तो नया वर्ष को लाने का महान काम कर रहे थे फिर ये बेकार बातें । फिर भी अपन तो इस बार दर्द का डिस्को खूब जम कर किया, तो बात ख़त्म, हम हर जगह थे बार रेस्टोरेंट में, होटल में, और आज कल की विकास की रफ्तार का प्रतीक बने मॉल्स में। जिनको जगह नही मिली वो भी पीछे नही थे गलियां बची हुई थी पार्क में भी काफी जगह थी बस जमा डाला रंग। दारू भी ने भी खूब रंग जमाया सर पर चढी तो अपनों की पहचान भूल गए। दारू पिलाने वाले दोस्त नज़र आये बाकी जो बचे उनको गरीयाने के लिए रखा गया। नये साल ने आते आते या यूं कहे की पुराने साल ने जाते जाते मोबाइल वाले से लेकर दारू की दुकान वालों को आमदनी खूब करा गया.....ख़ैर सभी की बल्ले बल्ले हैं नया साल आ रहा हैं। इस नए साल से बेखबर जो लोग घर पर रह गए आधी नींद से जाग गए ,बीमार भी नये साल की धमक से बच ना सके, बच्चे रो रो कर नए साल की अगुवाई करते नज़र आये, फुत्पात पर सोने वाले लोग रात भर अपनी जान की खेर मनाते बडे ज़ोर शोर से नये साल को आते देख रहे थे. यानी अपने अपने तरीके से सभी नये वर्ष को आते देख रहे थे। घर लौटते बच्चों को नशे में झूमते माँ पाप ने देखा......लेकिन नया साल भी तो ये ही लेकर आयें हैं। अब कहो मियां खान चुके हम.... जान हैं बात में जान हैं........ मैंने भी नये साल को देखा लेकिन दर्द कहीं नही दीखा। आपने देखा हो तो बताये। वैसे नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं।