Sunday, February 20, 2011

दिल, दोस्ती, मेट्रो और मोबाइल

घर से निकलते वक्त
चेहरे की मुस्कान-हंसी-ठहाके
और मीठी-मीठी बातें
घंटे भर की यात्रा में रगड़ खाने के बाद
खो जाती हैं कहीं
मेट्रो के एनाउंसमेंट
भीड़ की चिल्ल-पों और
नाक बहते किसी बच्चे के रोने में,
बदल जाता है चेहरे का भूगोल,
जुबान की मिठास
हो जाती है इतिहास,
कई बार टूटते हैं
कई बार जुड़ते हैं
दिल और मोबाइल।

शीर्षक नहीं सूझ रहा

हर बार उसे देखकर
एक नई तस्वीर बन जाती है
हर बार उसकी आवाज में
एक नई धुन खनकती है
हर बार उसकी खुशबुओं की बारिश में भीगना
आग लगा जाता है
हर बार उसे जाते हुए देखना
लगता है जैसे इतिहास दोहरा रहा हो खुद को
मेरा भूगोल और केमिस्ट्री बदलने के लिए
मेरे सितारों का गणित हल करने के लिए
मेरे मनोविज्ञान के अनसुलझे रहस्यों से
पर्दा उठाने के लिए
और सबसे बढ़कर
मेरे पूरे अस्तित्व को कई बार
झिंझोड़ने के लिए ।