Friday, December 14, 2007

मखंचू की संगीत साधना..

अभिषेक सत्य व्रतम्


पिछले
साल गर्मियों में गांव गया था। मेरा गांव यू.पी में गाजीपुर जिले की एक तहसील ज़मानियां से एक कोस की दूरी पर है। मूलभूत सुविधाओं के नाम पर एक प्राईमरी स्कूल है जिसमे मुश्किल से 30 बच्चे होंगे। आधे दलितों के तो आधे ब्राह्मणों के। गांव का भूगोल ऐसा है कि ब्राह्मणों और दलितों का अनुपात लगभग बराबर है। इन दो जातियों के अलावा कुछ परिवार लोहार, नाई और कानू के हैं।
आंगन मे बैठा था तभी हार्मोनिअम की आवाज सुनाई पडी। जब मैने अपनी चाची से पूछा तो पता चला कि मखंचू है। मखंचू की उम्र मुझसे 7-8 साल ज्यादा होगी, रिश्ते में मेरे चाचा लगते हैं। शायद दसवीं पास हैं। उनका असली नाम न तो मुझे पता है न ही मेरे घर वालों को। बचपन से उनको इसी नाम से जानता हूं। बहरहाल जब ध्यान दिया तो गाने की हल्की आवाज़ भी सुनाई दी। मखंचू के घर की और मेरे घर के दीवार एक ही है। चूकि हमारे ही खानदान के है सो आर्थिक स्थिती भी कमोबेश वैसी ही है। थोडी देर बाद चाची ने ये बताया कि मखंचू आजकल महेन्दर.... से संगीत सीख रहे हैं। सुनकर अच्छा लगा। महेन्दर मेरे ही गांव के दलित बस्ती का है और उसे गाने बजाने का शौक है। मैने भी कई बार उसे गाते हुए सुना है। अच्छा गाता है। ब्राह्मण परिवारों में भी जब कभी गाने बजाने के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है तो महेन्दर को भी ज़रूर बुलाया जाता है और उसे भी उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना कि किसी और को। लेकिन मखंचू के संगीत साधना के बारे मे जब चाची ने एक अनोखी बात बताई तो मुझे अचम्भा हुआ। चाची ने बताया कि मखंचू, महेन्दर का पैर छूकर प्रणाम करता है। ऐसा अपने गांव में पहली बार सुना। और तो और ये भी पता चला कि महेन्दर चारपाई पर बैठता है और मखंचू स्वय नीचे. अगल- बगल के कुछ बुजुर्ग पीठ पीछे गरियाते है लेकिन मखन्चू को इस बात कि कोई परवाह नही है।
ब्लाग्वाणी पर टहल रहा था कि ये लाइनें दिख गयी.. हूबहू लिख दे रहा हूं-
"सतीश वर्मादूबे जी लैट्रिन साफ करने लगे, तो इसका मतलब यह नहीं निकाला जाए कि शूद्रों को न्याय मिल गया। जब वर्णाश्रम व्यवस्था से जाति व्यवस्था की नींव पडी, तभी से ही शूद्रों के लिए अंत्यज कर्म का घोषित...... "
मुझे भी लगता है कि समाज बदल रहा है। हम कह सकते है कि आज किसी की भी सामाजिक स्थिती का आकलन उसकी आर्थिक स्थिति के आधार पर किया जा रहा है। लेकिन ऐसा भी नही है कि समाज में व्यवहार के स्तर पे जो भी बद्लाव हम महसूस कर रहे हैं उसका आधार केवल और केवल आर्थिक है। एक स्वस्थ सोच का विकास हो रहा है जिसमे सबकी भगीदारी है खासतौर पे युवाओ की भूमिका बहुत ही सराहनीय है। मेरा बस यही कहना है कि छिछ्ली मानसिकता से बाहर निकलकर इस बद्लाव को सकारात्मक सोच के साथ स्वीकार किया जाना चाहिये न कि न्याय और अन्याय के पलडे पर आंखे गडाए रखनी चाहिए। बदलाव हमेशा इनक्रिमेण्टल होता है। वक्त तो लगेगा ही।
किसी तरह ऐसे लोग अगर बदले की भावना त्याग दें तो शौचालय की सफाई करने वाला आदमी सिर्फ आदमी दिखेगा ब्राह्मण या शूद्र नही। क्योंकि आज कोई भी काम " कास्ट स्पेसिफिक' नही रह गया है. न दूध बेचना , न बाल काटना, न सब्जी बेचना, न ही शौचालय साफ करना। और हां!! कलम घिसना भी....

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